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गीता पर औचित्यहीन पंथनिरपेक्षी विलाप

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Geetajiकथित पंथनिरपेक्षी व्यथित हैं. पंथनिरपेक्षता को खतरा है. नरेंद्र मोदी की सरकार ने संस्कृति और संस्कृत को बढ़ावा दिया है. उनकी मानें तो सांस्कृतिक मूल्य पंथनिरपेक्ष नहीं हैं. ताजा खतरा अंतरराष्ट्रीय ख्याति के दर्शन ग्रंथ गीता से है. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने की आवश्यकता बताई है. कथित पंथनिरपेक्षी विलापरत हैं. उनके अनुसार गीता की महत्ता से संविधान के ‘धर्मनिरपेक्ष चरित्र’ को खतरा है. विज्ञान और दर्शन पंथिक नहीं होते. अद्यतन निष्कर्षो के अनुसार संपूर्ण अस्तित्व एक नियमबद्ध संरचना है. अस्तित्व लयबद्ध और छंदबद्ध सतत् प्रवाही गीत है. ‘यूनीवर्स’ का अर्थ लयबद्ध कविता ही है. भारतीय अनुभूति में गीत नहीं गीता. श्रीमद्भगवद्गीता. वामपंथी चिंतक डीडी कौशांबी गीता के प्रशंसक नहीं थे. लिखा है-क्या कोई संस्कृत कृति नहीं थी जिसने भारतीय चरित्र को उसी प्रकार आकारित किया है जैसे सर्वोतीज के ‘डान क्विजोत’ ने स्पेनी विद्वानों को. एक पुस्तक जो काफी हद तक इसी कोटि की है, वह है भगवद्गीता. मा‌र्क्सवादी चिंतक डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा-”सबसे प्रभावशाली अंश वे हैं जहां योग का वर्णन है-दुख में उव्दिग्नता नहीं, सुख में प्रीति नहीं. रोमन साम्राज्य के समय ऐसी धारणायें भारत से इटली पहुंचीं. पुनर्जागरणकाल में वे इटली से इंग्लैंड पहुंचीं. इनका एक स्रोत गीता थी. दार्शनिक स्तर पर गीता का अंतरराष्ट्रीय महत्व है.”

विज्ञान और दर्शन अपने मूल स्वभाव में ही पंथनिरपेक्षी हैं. गीता दर्शन ग्रंथ है. गांधीजी पंथनिरपेक्ष थे. ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने लिखा, जब निराशा मेरे सामने आ खड़ी होती है, मुझको प्रकाश की कोई किरण नहीं दिखाई पड़ती तब मैं गीता की शरण लेता हूं. डॉ. रामविलास शर्मा जैसे मा‌र्क्सवादी और गांधी जैसे सैकड़ों पंथनिरपेक्ष महानुभाव गीता की प्रशंसा कर चुके हैं, लेकिन भारतीय कम्युनिस्ट नेता डी. राजा ने राज्यसभा में गीता को पंथनिरपेक्ष चरित्र के विरुद्ध बताया. दिग्विजय सिंह सहित अन्य माननीय भी इसी शोक में सम्मिलित थे. सेक्युलरवाद यूरोपीय उधारी है. लेकिन अनेक यूरोपीय विद्वान भी गीता पर मोहित थे. एडविन अर्नाल्ड ने गीता पर ‘सेलेशियल सांग’ नामक अंग्रेजी ग्रंथ लिखा था. उन्होंने लेखन का उद्देश्य बताया कि भारत के इस लोकप्रिय काव्यमय दार्शनिक ग्रंथ के बिना अंग्रेजी साहित्य निश्चय ही अधूरा रहेगा. गीता पंथिक विश्वासी आस्था ग्रंथ नहीं है. गीता में सभी दार्शनिक विचार हैं. यहां अनीश्वरवादी लोकायत है. प्रकृतिवादी सांख्य है. योग का वैज्ञानिक दर्शन है. कर्मयोग, सांख्य योग, भक्तियोग और ज्ञान भी योग हैं. सांसारिक यश-प्रतिष्ठा का भौतिकवाद है और पाइथागोरस से ज्यादा परिपुष्ट, सुकरात और प्लेटो जैसी ज्ञान प्रणाली है. आधुनिक दार्शनिक कांट के विचार की भी अनुगूंज है.

दिक्काल या टाइम-स्पेस वैज्ञानिक धारणायें हैं. गीता के विश्वरूपक में दिक्काल एक साथ हैं. विराट रूप पृथ्वी से अंतरिक्ष तक व्याप्त है. अर्जुन ने पूछा, आप इस भयावह रूप वाले हैं कौन? उत्तर मिला, मैं काल हूं-कालोअस्मि. आस्था ग्रंथों में मानने पर ही जोर होता है. लेकिन गीता में जानने पर जोर है, मानने पर नहीं. गीता प्रवचन की समाप्ति (18.63) पर श्रीकृष्ण ने कहा, मैंने यह ज्ञान बताया है. यह सब रहस्यों से बड़ा है. इस पर विचार करो. फिर जो चाहो सो करो. निष्कर्षत: क्या ऐसा प्रबोधन विश्व के किसी अन्य ग्रंथ में मिलता है? भारत का धर्म पंथ नहीं है. पंथ आस्था है और धर्म मूल गुणसूत्र. जीवन यात्रा में धर्म का उपयोग है. ज्ञान के अंतिम चरण में धर्म का कोई उपयोग नहीं बचता. सिर्फ एक अस्तित्व का ही बोध बचता है. अर्जुन ने श्रीकृष्ण को बताया कि मेरा मोह नष्ट हो गया. अंधकार छंट गया. कृष्ण ने कहा कि अब सब धर्म छोड़ दो. एक अस्तित्व की ही शरण लो. धर्म सहायक उपकरण है. गीता में अंतिम बोध के तल पर धर्म के अतिक्रमण का भी आवाहन है.

अवसाद और विषाद मानसिक रुग्णतायें हैं. प्रसाद आनंदमगन अनुभूति है. अवसाद आधुनिक मनुष्यता की बीमारी है. अवसाद और विषाद के रोगी स्वयं को ही कर्ता मानते हैं. वे प्रकृति की शक्तियों के प्रभाव पर ध्यान नहीं देते. कथित पंथनिरपेक्षी इसीलिये अवसादग्रस्त हैं. वे प्रकृति, संस्कृति और भारतीय अनुभूति से पृथक हैं. शेक्सपियर के नाटकों के नायक बहुधा विषादग्रस्त होते हैं. गीता का दर्शन भी अर्जुन के विषाद से ही प्रारंभ होता है. गीताकार ने इस अंश को ‘विषाद योग’ कहा है. विषाद से प्रारंभ गीता प्रसाद पर समाप्त होती है. अर्जुन कहते हैं, आपके प्रबोधन प्रसाद से मोह गया. ज्ञान मिला. प्रसाद है क्या? गीताकार ने शुरुआत में ही इसका अर्थ स्पष्ट कर दिया है कि विषय चिंतन से वासनायें बढ़ती हैं, कामनाओं की बढ़त से क्रोध आता है. क्रोध से अविवेक आता है. अविवेक से स्मृति नष्ट होती है. स्मृतिनाश से बुद्धिनाश होती है. बुद्धिनाश से सब कुछ नष्ट हो जाता है, लेकिन अनुशासित व्यक्ति इंद्रियों को वश में रखते हुए राग-व्देष रहित होकर प्रसाद प्राप्त करता है. ए. हक्सले ने ठीक लिखा है कि गीता शाश्वत दर्शन के सुस्पष्ट सबरंगपूर्ण सारांशों में एक है. भारतीयों के लिये ही नहीं संपूर्ण मानव जाति के लिये इसका स्थायी मूल्य है. गीता-प्रसाद बुद्धि लब्धि है और बुद्धि विवेक से पंथनिरपेक्षता को कोई खतरा नहीं है. गीता बहुधा बहस का विषय बनती है. ऐसा होना भी चाहिये. दर्शन और विज्ञान के निष्कर्ष अंतिम नहीं होते. एक न्यायमूर्ति ने कहा था कि वे तानाशाह होते तो गीता को पाठ्यक्रम में शामिल कर देते. इलाहाबाद उच्च न्यायायल के एक न्यायमूर्ति ने गीता को धर्मग्रंथ घोषित करने का आदेश भी दे दिया था. रूस में भी कुछ समय पहले गीता अध्ययन का विषय न्यायिक कार्यवाही में था. क्या पंथिक आस्था वाले किसी ग्रंथ पर ऐसी बहस हो सकती है? गीता कर्मयोग का विज्ञान है और कर्म प्रेरणा का दर्शन. गीता का अध्यात्म भी भौतिकवादी है. अर्जुन ने पूछा कि अध्यात्म क्या है? श्रीकृष्ण ने बताया कि स्वभाव ही अध्यात्म है. यहां अध्यात्म स्वयं का ज्ञान है. विज्ञान की अनेक शाखायें हैं, लेकिन स्वयं के स्वभाव का अध्ययन कठिन है. स्वयं ही विषय और स्वयं ही विद्यार्थी. आचार्य काम नहीं आते. स्वभाव महत्वपूर्ण है.

मा‌र्क्सवादी कौशांबी ने गीता के मराठी अनुवाद ‘ज्ञानेश्वरी’ को इतालवी के ‘दिवाइना कामेदिया’ जैसा प्रभावी बताया है. लिखा है कि भारत के राष्ट्रीय आंदोलन को आध्यात्मिक आधार देने के लिये तिलक और गांधी ने गीता से निष्कर्ष निकाले थे. गीता का ईश्वर सामान्यतया हस्तक्षेप नहीं करता. आधुनिक दर्शन में इसे तटस्थ ईश्वरवाद या डीइच्म कहते हैं. आर्मस्ट्रांग (गॉड एंड सोल, पृष्ठ 44) ने लिखा है, वह संसार यंत्र को देखता रहता है आवश्यकतानुसार हस्तक्षेप करता है. गीता का यदा यदाहि धर्मस्य. ऐसा ही विचार है. ईश्वर कर्मफल नहीं देता. प्रकृति की अनुकूलता में कार्यसिद्धि है और प्रतिकूलता में व्यवधान. मूलभूत प्रश्न है कि क्या ज्ञान, बुद्धि और कर्म पर विश्वास भी अंधविश्वास है? गीता का समूचा दर्शन वैज्ञानिक दृष्टिकोण और कार्यकारण आधारित दार्शनिक विवेचन है. बावजूद इसके पंथनिरपेक्षी विलाप में हैं तो इसका कारण साफ है कि वे विज्ञान और दर्शन की भारतीय परंपरा के ही विरोधी हैं. गीता को विज्ञान की तरह पढ़ने और तटस्थ तर्क बुद्धि से समझने की आवश्यकता है. गीता विश्व दर्शन को भारतीय दर्शन का अप्रतिम उपहार है.

(लेखक हृदयनारायण दीक्षित, उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं)

 

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