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गीता पर संकीर्ण राजनीति

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यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि महान पवित्र ग्रंथ भगवद् गीता भी संकीर्ण राजनीति से बच नहीं पा रही है. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा भगवत गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने की हिमायत करने के बाद विरोधी दलों ने उन पर हमले तेज कर दिये हैं. कुछ दिन पहले एक कार्यक्रम में सुषमा स्वराज ने भगवदद् गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने की बात कहते हुए दलील दी थी कि गीता में हर वर्ग और हर तरह की समस्याओं का समाधान है, लिहाजा इसे राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित किया जाना चाहिये. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को गीता भेंट कर इस दिशा में कदम बढ़ा दिया है.

उनके इस बयान के बाद राजनीतिक क्षेत्र में कोहराम मच गया. विपक्षी दलों ने मोदी सरकार पर आरोप जड़ना  शुरू कर दिया है कि वह आरएसएस के एजेंडे पर काम कर रही है और उसका उद्देश्य भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करना है. उनका तर्क यह भी है कि भारत एक बहुधर्मी और बहुसंस्कृति वाला देश है, ऐसे में किसी एक ग्रंथ को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित नहीं किया जाना चाहिये. इससे लोगों की भावनायें आहत होंगी और वे अपने धर्मग्रंथों को भी राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने की मांग करेंगे. इससे देश व समाज में व्देष की भावना पनपेगी. दरअसल, राजनीतिक दलों द्वारा इसका विरोध राजनीतिक लाभ-हानि के मकसद से जुड़ा हुआ है. अगर कहीं अन्य किसी धर्म के किसी ग्रंथ को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने की मांग उठी तो शायद इस तरह का विरोध नहीं होता. बेहतर होगा राजनीतिक दल गीता को राजनीतिक बहसबाजी का मुद्दा बनाने के बजाय उसकी प्रासंगिकता और सारगर्भित मूल्यों पर चर्चा कर मानव जीवन में उसकी उपयोगिता को समझें.

यह धर्मग्रंथ अरबी, चीनी, डच, फ्रेंच, जर्मन, अंग्रेंजी, इतालवी, जापानी, पुर्तगाली, स्पेनिश और स्वीडिश जैसे विभिन्न भाषाओं में अनूदित हो चुका है और कहीं पर भी इस धर्मग्रंथ को लेकर सवाल खड़ा नहीं किया गया. गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाये जाने की मांग करने वाले लोगों को भी समझना होगा गीता सरकारी तमगे की मोहताज नहीं है. उसकी महत्ता इससे बढ़कर है. ‘लेट कैथोलिक थियोलॉजियन के लेखक थॉमस मर्टन ने इस धर्मग्रंथ की भूरि-भूरि प्रशंसा की है. दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र के विख्यात प्रोफेसर डॉ. गेड्डीज मैकग्रेगर ने भी इस धर्मग्रंथ की उपादेयता को स्वीकार करते हुए कहा है कि यह ग्रंथ भक्ति परंपरा को एक नवीन शक्ति प्रदान करता है. यह समझना होगा कि पाश्चात्य जगत में विश्व साहित्य का कोई भी ग्रंथ इतना अधिक उद्धरित नहीं हुआ है जितना कि भगवत गीता. भगवत गीता ज्ञान का अथाह सागर है, प्रकाशपुंज है, जीवन दर्शन है, शोक और करुणा से निवृत्त होने का उचित मार्ग है.

गीता भारत की महान धार्मिक सभ्यता और उसके मूल्यों को समझने का साहित्यिक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य भी है. आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में गीता का ज्ञान दिया था, क्योंकि उस समय वह अपने बंधु-बांधवों से युद्ध करने से हिचक रहे थे और उन्होंने अपने शस्त्र रख दिये थे. श्रीकृष्ण ने उन्हें नश्वर भौतिक शरीर और नित्य आत्मा के मूलभूत अंतर को समझाया. बिना फल की आशा किये कर्म करते रहने का संदेश दिया. कहा कि आत्मा अजर और अमर है. जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्र ग्रहण करता है, उसी प्रकार आत्मा जीर्ण शरीर को त्यागकर नये शरीर में प्रवेश करती है. इसलिये मनुष्य को फल की चिंता किये बगैर कर्तव्य का पालन करना चाहिये.

सफलता और असफलता के प्रति समान भाव रखकर कार्य करना श्रेयस्कर है. यही कर्मयोग है. श्रीकृष्ण के उपदेश गीता के अमृत वचन हैं. उनके उपदेश से ही अर्जुन का संकल्प जाग्रत हुआ. कुरुक्षेत्र में खड़े बंधु-बांधवों से मोह दूर हुआ. तदोपरांत ही वह अधर्मी और दुर्बल हृदय वाले कौरवों को पराजित करने में सफल हुये. कौरवों की हार महज पांडवों की विजय भर नहीं है. धर्म की अधर्म पर, न्याय की अन्याय पर और सत्य की असत्य पर विजय है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि महान पवित्र ग्रंथ भगवत गीता भी संकीर्ण राजनीति से बच नहीं पा रही है. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज व्दारा भगवद् गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने की मांग करने के बाद विरोधी दलों ने उन पर हमले तेज कर दिये हैं. कुछ दिन पहले एक कार्यक्रम में सुषमा स्वराज ने भगवद् गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने की आनश्यकता बताते हुए दलील दी थी कि गीता में हर वर्ग और हर तरह की समस्याओं का समाधान है, लिहाजा इसे राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित किया जाना चाहिये.

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