दिल्ली की ही भ्रामक नीति के कारण विकराल हुई थी समस्या
जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल जगमोहन ने अप्रैल-मई 1989 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी को राज्य की तेजी से बिगड़ती स्थिति से अवगत करवाया था. उनका कहना था कि यह लगभग वहां पहुंच गई है, जहां से लौटना असंभव है. उन दिनों बड़े पैमाने पर हिंसा, लूटपाट, गोलीबारी, हड़ताल और हत्याओं का तांता सा लग गया था. पूर्व राज्यपाल का अनुभव ऐसा था, जैसे सब कुछ टूटकर बिखर रहा है. इसके बावजूद भी दिल्ली में बैठे सत्ताधारी नेताओं के पास संकेत समझने की शक्ति और दूरदृष्टि दोनों नहीं थी. नतीजतन जम्मू-कश्मीर, जिसका इतिहास भारतीय सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्यों से सम्बंधित था, वह कट्टरता, तानाशाही, आतंकवाद और अलगाव से जबरन भर दिया गया.
इस त्रासदी की जिम्मेदार राज्य की छल-कपट से भरी और भ्रांतियों से फैली राजनीति है. इसके शिकार श्रीनगर के नेता ही नहीं, बल्कि दिल्ली में भी बैठे लोग थे. जगमोहन इस समस्या के समाधान पर लिखते हैं कि भारतीय नेताओं को हवाई बातें छोड़कर वास्तविकता पर ध्यान देना चाहिए. साथ ही पुराने विचारों के चक्र से निकलकर नए ध्येय पर ध्यान देना होगा. इसके अलावा घुटने–टेक नीति के दुष्परिणाम समझ कर दो राष्ट्रों के सिद्धांत से चिपके रहने की आदत को भी मिटाना पड़ेगा. हालांकि, यह कुछ साधारण बातें समझने में हमें 17 लोकसभाओं का इंतजार करना पड़ गया. समय इतना निकल गया था कि सबकुछ ठीक करने के लिए दृढ़ और प्रभावी कदम उठाने आवश्यक थे.
हम सभी जानते हैं कि अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी हो गया है. कश्मीर घाटी अपने सामान्य जन-जीवन की ओर वापस लौट रही है. आज प्रधानमंत्री और गृहमंत्री सहित केंद्रीय मंत्रिमंडल का राज्य के प्रति रवैया मजबूत है. नजरिए में ढुलमुल नहीं, बल्कि स्थिरता है. केंद्र सरकार के लक्ष्य स्पष्ट और राज्यपाल का दृष्टिकोण भी सकारात्मक है. पिछले दिनों की सामान्य खबरों को ध्यान में रखकर कहा जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर और लद्दाख का भविष्य सुरक्षित हाथों में है.
एक पुरानी कहावत है कि अधजल गगरी छलकत जाए यानि अधूरा ज्ञान जिसे होता है, वह विद्वान होने का ज्यादा दिखावा करता है. मुझे यहां किसी का नाम लेने कि जरूरत नहीं जो ऐसा पिछले दो महीनों से कर रहे हैं. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से सोशल मीडिया और न्यूयॉर्क के प्रतिष्ठित अखबारों के माध्यम से झूठ फैलाया जा रहा है. उनको यह पता है अथवा नहीं, लेकिन एक जमाने में कश्मीर घाटी में राजनैतिक फायदे के लिए नागरिकों को बरगलाया जाता था और ऐसा हर दिन होता था.
इसे एक उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है. पाकिस्तान के तानाशाह जनरल जिया उल हक की मौत पर कश्मीर घाटी में व्यापक हिंसा हुई थी. शिया और सुन्नी समुदाय दोनों एक-दूसरे पर हमले कर रहे थे. घाटी की मस्जिदों में जनरल जिया के लिए दुआएं मांगी जाती और बाहर आकर भीड़ हिंसात्मक घटनाओं को अंजाम देती. इस अशांति के सन्दर्भ में कई सवाल उठाए जा सकते हैं. पाकिस्तान के तानाशाह की मौत श्रीनगर, बारामूला और अन्य हिस्सों में हिंसा का अवसर कैसे बन गई, जबकि पाकिस्तान में कोई दंगा-फसाद नहीं हुआ. अब सोचने वाली बात है कि कुछ साल पहले जुल्फिकार अली भुट्टो की राजनैतिक हत्या पर इसी कश्मीर घाटी में जनरल जिया के खिलाफ प्रदर्शन हुए थे.
यह तो पक्का है कि कश्मीर घाटी के नेताओं का कोई राजनैतिक विचार नहीं है. उन्होंने सामान्य नागरिकों को सच्चाई के करीब जाने नहीं दिया. पहले भारत विरोधी नारे लगवाए और फिर पाकिस्तान के लिए प्रोत्साहित किया गया. श्रीनगर का पूरा समय काला दिवस, दमन दिवस, शहीद दिवस और किसी हड़ताल में बीत रहा था. यह कौन लोग थे जो ऐसा करते थे, उसका भी एक जिक्र साल 1988 में मिलता है.
उस साल श्रीनगर उच्च न्यायलय में महात्मा गांधी की प्रतिमा स्थापित की जानी थी और भारत के मुख्य न्यायाधीश आर.एस. पाठक को मूर्ति का लोकार्पण करना था. लेकिन कुछ मुसलमान अधिवक्ताओं की आपत्ति से मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ने समारोह स्थगित कर दिया. इस आन्दोलन की अगुवाई उच्च न्यायालय का एक वकील मोहमम्द शफी बट्ट कर रहा था. बाद में वह श्रीनगर से नेशनल कांफ्रेंस का लोकसभा प्रत्याशी भी बना.
ऐसे नेता कश्मीर के अतीत में मौजूद थे. इस नेशनल कांफ्रेंस के सबसे बड़े नेता शेख अब्दुल्ला थे. साल 1953 में उन्हें गिरफ्तार किया गया तो कांग्रेस ने वहां अपना वजूद बना लिया. इस पर शेख ने फतवा जारी कर कांग्रेस को काफिर और नास्तिक घोषित किया. उन्होंने यहां तक कह दिया कि कांग्रेस के किसी मुसलमान सदस्य की मौत पर उसके जनाजे में शामिल होना पाप है. वे कांग्रेस के लोगों को गाली देते और राज्य की जमीन में दफ़नाने के योग्य तक नहीं समझते थे. यह राज्य की राजनीति के सबसे दुर्भाग्यपूर्ण चेहरों में से एक था. फिर भी कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेस एक-दूसरे को बिना शर्त समर्थन देते रहे और उनके विचारों में समानता किसी से छुपी नहीं है. यही वह छल-कपट और भ्रम की राजनीति थी, जिसकी चर्चा मैंने ऊपर की है.
सत्ता में बने रहने की भूख ने कश्मीर घाटी को असामान्य हालातों में पहुंचा दिया था. यह लोग अपने आपको ही धोखा देते रहे. उम्मीद है कि निकट भविष्य में यह सब एकदम खत्म हो जाएगा. जम्मू-कश्मीर को अब कानूनी तकनीक के माध्यम से न्याय मिल चुका है. पहले जब यह राज्य धार्मिक रंग से नहीं, बल्कि प्राकृतिक खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध था – यह अधिकार भी इसे वापस मिल जाएगा. एक आखिरी खास बात यह भी है कि कश्मीर घाटी की संकीर्ण स्थानीय राजनीति का वर्चस्व अब पहले जैसा नहीं रहने वाला है.
देवेश खंडेलवाल