धर्मशाला.
संतों से बैर रखने वाली मानसिकता को भारतीय परम्परा ने एक खास नाम दे रखा है. वह संज्ञा क्या है, उसे बताने की जरूरत नहीं. सभी परिचित ही हैं. गोस्वामी जी ने तो संतों से किसी तरह की सेवा लेने वालों को भी उसी संज्ञा से सम्बोधित किया है –
मानहिं मात पिता नहीं देवा. संतन से करवावहिं सेवा..
जिनके यह आचरन भवानी. ते जानहु निसिचर सम प्रानी..
जाहिर है भारत में हमेशा से ही संत बैर की मानकिसता को निकृष्टतम सोच के रूप में परिभाषित किया जाता रहा है. जिस सभ्यता में संत सात्विकता की सबसे बड़ी पूंजी माने गए हों, उनके रक्षण को सबसे बड़ा धर्म माना गया हो, वहां की मीडिया यदि उनकी हत्या पर लीपापोती करने की कोशिश करे तो इसे किस रूप में लिया जाए, क्या नाम दिया जाए ?
भारतीय मीडिया का एक वर्ग हमेशा से ही संतों का अस्पृश्य की तरह लेता रहा है. इसका बड़ा उदाहरण 2007 में आया था. जब स्वामी लक्ष्मणानंद जी की हत्या के बाद निंदा तो दूर उनकी हत्या को जायज ठहराने के लिए मीडिया-अभियान चलाया गया था. उससे आमजन बहुत क्षुब्ध हुआ था. तब इस अभियान के पीछे नक्सल-चर्च गठजोड़ की बात कही गई थी. स्वामी लक्ष्मणानंद ने अपने बूते ओडिशा के कंधमाल और उसके आस-पास के क्षेत्रों में मतांतरण को पूरी तरह से रोक दिया था.
ठीक इसी तरह, महाराष्ट्र में एक चालक सहित दो साधुओं की बर्बर और अमानवीय हत्या के बाद मीडिया का एक वर्ग जिस तरह से तथ्यों के साथ खिलवाड़ कर रहा है, उनकी हत्या को मामूली साबित करने की कोशिश कर है, उससे आम भारतीय हैरत में हैं. हद तो यह है कि उनकी हत्या को जायज दिखाने के लिए झूठे कारण भी ढूंढे गए.
कुछ प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं के शीर्षकों का विश्लेषण भर कर लें तो यह साबित हो जाता है कि खबरें किस करद संतों के विद्वेष से प्रेरित होकर लिखी गई हैं. ’द न्यू इंडियन एक्सप्रेस’ ने इसी खबर को दो शीर्षकों के साथ चलाया. पहले शीर्षक में तीन चोरों के मारे जाने का समाचार है तो दूसरे शीर्षक में केवल तीन की संख्या देकर ही हाथ झाड़ लिया गया है. ’द वीक’ ने भी संतों को चोर मानते हुए खबर चलायी है.
’एनडीटीवी’ ने भी 3 आदमियों के लिंचिग की खबर चलायी है. उनकी पहचान बताने की जहमत नहीं उठायी गई है. खबर में यह बताया गया है कि एक 70 वर्षीय वृद्ध की भी पीट-पीटकर हत्या कर दी गई है. लेकिन कल्पवृक्ष गिरी जी का नाम बहुत चतुराई से छिपा लिया गया है. ’आउटलुक’ ने तो इसे ट्रिपल लिंचिंग केस भर बताकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली है. टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपनी खबर में लिंचिंग की बात को चोर होने की गलतफहमी से जोड़ा है. स्क्रॉल ने भी अपनी खबर का साधुओं के चोर होने की शंका से जोड़कर प्रस्तुत किया है. द वायर औ द हिंदू की खबर भी इसी तर्ज पर लिखी गई है.
साधुओं को चोर साबित करने की व्यग्रता मीडिया के एक वर्ग में किस कारण थी. मीडिया का यह वही वर्ग है, जिसने इक्का-दुक्का घट रहे कुछ अन्य प्रकरणों को संदर्भ में हिंदुस्तान को लिंचिस्तान बताने का उत्साह दिखाया था. चर्चित तबरेज केस में मीडिया की मुख्यधारा ने उसके चोर होने की बात पूरी तरह गायब कर दी थी, जबकि उसे चोरी करते हुए ही पकड़ा गया था.
मीडिया ने जोर-शोर से तबरेज की पांथिक पहचान को उछाला. इस प्रकरण को इस तरह परोसा गया मानो पूरे देश में हिन्दू जत्थे बनाकर मुसलामानों की लिंचिंग कर रहे हैं. दूसरी तरफ पालघर प्रकरण में उसी मीडिया ने जबरदस्ती चोर और चोरी का एंगल जोड़कर संदेह का लाभ देने की कोशिश की. चोर में मुसलमान और साधू में चोर ढूंढने की मीडिया की इस मानसिकता को क्या नाम दें. आखिर मीडिया का एक बड़ा वर्ग अपने देश की परम्पराओं और पहचानों से इतना क्यों चिढ़ता है? अपनी विश्वसनीयता को दांव पर लगाकर वह एक खास समुदाय को हमेशा ’विक्टिम’ और दूसरे को ’बर्बर’ साबित करने के एजेंडे के पीछे कौन से हित कार्य कर रहे हैं?
पालघर-प्रकरण में संतों की हत्या से तो लोग उद्वेलित हुए ही, उससे भी अधिक आक्रोश मीडिया-कवरेज में स्पष्ट तौर पर दिख रहे दोहरेपन के कारण पैदा हुआ है. भगवा और उसको धारण करने वाले संतों के प्रति मीडिया के एक वर्ग का यह दोहरापन यूं ही बरकरार रहा तो भारतीय समाज अपनी परम्परागत संज्ञा से ही उनको परिभाषित करेगा और उसी के अनुरूप व्यवहार भी. इससे पहले की यह निशाचरी प्रवृत्ति और जड़ जमाए, संवेदनशील और पेशेवर पत्रकारों की संतों की हत्या में भी संदेह का लाभ देने वाली मानसिकता से एक मुठभेड़ आवश्यक हो गई है.