नई दिल्ली. सेवा भारती द्वारा एनडीएमसी कन्वेंशन हॉल, दिल्ली में “सेवा सहयोगी संगम” कार्यक्रम का आयोजन किया गया. जिसमें माननीय सरकार्यवाह सुरेश भय्याजी जोशी ने कहा कि भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठतम परंपरा दान की है. भारतीय समाज फतवों से नहीं फिक्र से चलता है. मनुष्य पशु से भिन्न है, क्योंकि मनुष्य के पास तर्क और विवेकशील बुद्धि के साथ-साथ समाज, राष्ट्र और अन्य परिवार जनों के सम्बन्ध में सोचने की शक्ति एवं बुद्धि है. उन्होंने सेवा और धर्मोपार्जन के अन्तर का उल्लेख करते हुए कहा कि अपने लिए अर्थोपार्जन सेवा का पर्याय नहीं है. यह विकृत अर्थ है. सेवा नौकरी ( service) का पर्याय नहीं है. सेवा को किसी नाम से मत जोड़ो, मिलने की भावना से सेवा से नहीं हो सकती. अगर, मन में यह भाव है कि सेवा करने से मुझे क्या प्राप्त होगा ? तो यह विकृत मानसिकता है. व्यक्ति का लक्ष्य अपना नाम रोशन करने से ज्यादा सेवा के सही उद्देश्यों पर होना चाहिए. जैसे, अगर प्याऊ में जल नहीं, तो प्याऊ बनवाने वाले का नाम क्यों न कितने भी मोटे अक्षरों में अंकित हो जाए! ऐसी सेवा किसी काम की नहीं. सेवा से दबाव या शक्ति अर्जन की भावना विकृति है. सभी ग्रंथ कहते हैं कि दान बायां हाथ दे तो दाएं हाथ को खबर तक न लगे. नर सेवा, सच्ची नारायण सेवा है. जैसे भूखे को अन्न, बीमार को दवा-चिकित्सा उपलब्ध करवाना ही नारायण सेवा है.
सरकार्यवाह भय्याजी जोशी ने आह्वान किया कि भूखे और बीमार व्यक्ति की सेवा से परम शांति मिलेगी. पुण्य प्राप्त करने की लालसा से सेवा नहीं करनी चाहिए. समाज में भीषण परिस्थितियां हैं, जिसमें निरक्षरता भी है. बच्चा हो या प्रौढ़ लाभ की भाषा सभी समझ लेते हैं. किन्तु, ये पर्याप्त नहीं है. सेवा की श्रेणी में साक्षरता भी आती है. सेवा का एक अन्य दृष्टिकोण है. भारतीय ऋषि-मनीषियों ने कहा है कि मनुष्य मात्र हाड़-मांस का शरीर नहीं है. शरीर से परे भी कुछ है. अगर, किसी भूखे को भोजन स्वाभिमान से दिया, तो ऐसा भोजन भी नाशवान सिद्ध होगा. दरिद्र से दरिद्र, वंचित से वंचित व्यक्ति भी स्वाभिमान से वंचित नहीं है. सेवा का क्षेत्र शरीर तक नहीं है. रामचन्द्र परमहंस जी ने कहा था ‘ दरिद्र देवो भवः ’ अर्थात् गरीब में भगवान है. मानव सेवा ही ईश्वर की सेवा है. विवेकानन्द जी ने इसी भावना को आगे जनमानस तक पहुंचाया. सेवा के लिए किसी को भी अपमान का घूंट नहीं पिलाया जाए. मान या प्रसिद्धि के लिए सेवा नहीं करनी. सेवा देवत्व का भाव जगाने के लिए करनी है. निम्न दर्जे की सेवा नहीं करनी. सुविधाओं से सेवा को मत जोड़ो. प्रभुत्व से सेवा को जोड़कर देखो.
उन्होंने एक अनुभव साझा करते हुए कहा कि एक बार एक बस्ती में जाना हुआ. एक परिचित मुझसे आंख चुराकर, मुंह फेरकर निकल गया. न कहीं अच्छापन अवश्य है. इस घटना के बाद मुझे लगा कि अच्छेपन के विकास के लिए सेवा कार्य होना चाहिए. सेवा के कार्यों का उद्देश्य अन्तःकरण के ईश्वरत्व को प्राप्त करना है. ‘Beggar have no choice’ ऐसा कथन न सोचें, न सोचने दें. शक्ति-सामर्थ्य का प्रयोग दूसरों को शोषित करने के लिए उचित नहीं है. सेवा कार्यों से पिछड़े को अपने समकक्ष लेकर आना है. महिलाओं पर अत्याचार, अभद्र-व्यवहार, बच्चों से मजदूरी करवाना ये सभी शोषण के द्योतक हैं. चूंकि, कोई दुर्बल है. इसलिए उसका शोषण करो, ये कदाचित उचित नहीं है. वृद्धाश्रम में रह रहे वृद्धजन प्रदर्शन की वस्तु नहीं, गर्व का विषय नहीं अपितु मर्म के प्रतीक हैं. यह खोखला प्रदर्शन अनुचित है. सेवा एक ईश्वरीय भाव है. इस ईश्वरत्व कार्य के पीछे न कोई षड्यंत्र है, न योजना, न प्रलोभन. सेवा एक शुद्ध भाव है. आत्मसम्मान की बढ़ोतरी भी सेवा है. सेवा की इसी आकांक्षा को सर्वोपरि मानना चाहिए.