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महान नारी उद्धारक : देवीदास आर्य

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3 जून/जन्म-दिवस

श्री देवीदास आर्य का जन्म 3 जून, 1922 को ग्राम केहर (जिला सक्खर, सिन्ध) में श्री विद्याराम एवं श्रीमती पद्मादेवी हजारानी के घर में हुआ था. 1939 में मुस्लिम दंगों के कारण पढ़ाई अधूरी छोड़कर उन्हें गांव त्यागना पड़ा. निजाम हैदराबाद द्वारा हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध हुए आंदोलन में वे 149 दिन जेल में रहे. इसके बाद मैट्रिक कर उन्होंने आठ साल तक पढ़ाया. 1942 के आंदोलन में भी वे सक्रिय रहे.

1945 में सक्खर में आर्य वीर दल में शामिल होने से उनका नाम देवीदास आर्य प्रसिद्ध हो गया. आर्य समाज और संघ के माध्यम से उन्होंने हजारों नवयुवकों को संगठित किया. इससे वे मुस्लिम गुंडों के आंख की किरकिरी बन गये. 1947 में भारत आते समय भी वे पीछे पड़े रहे. उनके एक मित्र नारायण दास ने अपना टिकट देकर जिदपूर्वक उन्हें कराची में जलयान में बैठा दिया. रात में गुंडों ने हमला कर आर्य जी के भ्रम में नारायण दास को ही मार डाला. अपने शेष जीवन को प्रभु का प्रसाद समझ उन्होंने समाज सेवा को ही जीवन का व्रत बना लिया.

उ.प्र. के कानपुर नगर में आकर उन्होंने शासन से संघर्ष कर विस्थापितों को दुकानें तथा आर्थिक सहायता दिलवायी. 1950 में डी.ए.वी स्कूल की स्थापना कर वे उसके प्राचार्य तथा फिर प्रबन्धक बने. पत्रकारिता में रुचि होने के कारण उन्होंने ‘दीपक’ समाचार पत्र भी निकाला. गोविन्दपुरी रेलवे स्टेशन, आर्य समाज, श्मशान घाट तथा कई संस्थाओं की स्थापना उनके प्रयास से हुई.

आर्य जी जनसंघ की ओर से नगर महापालिका का चुनाव लड़े और उ.प्र. में सर्वाधिक वोट पाने वाले सभासद बने. भ्रष्टाचार के 50 से अधिक मामले उजागर करने पर नगर महापालिका ने उनका सम्मान किया. 1975 के आपातकाल में उन्हें ‘मीसा’ में ठूंस दिया गया. जेल में गलत इलाज से उनका स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया. शासन उन्हें इस शर्त पर छोड़ने को तैयार था कि वे कानपुर में नहीं रहेंगे; पर आर्य जी ने इसे ठुकरा दिया. अपने जीवन में 14 बार उन्होंने जेल यात्रा की; पर शासन से कोई पेंशन आदि नहीं ली.

आर्य जी की सर्वाधिक ख्याति नारी उद्धार हेतु की गई उनकी सेवाओं के कारण हुई.

विभाजन के समय मुस्लिम गुंडों ने जिन कन्याओं से दुर्व्यवहार किया था, युवक उनसे विवाह करने में संकोच करते थे. देवीदास जी ने ऐसी सैकड़ों कन्याओं का विवाह कराया. कानपुर एक बड़ा औद्योगिक नगर होने के साथ ही वेश्यावृत्ति का भी गढ़ था. आर्य जी ने पुलिस के सहयोग से 3,500 से भी अधिक नारियों को असामाजिक तत्वों और वेश्यालयों से मुक्त कराया. वे इनके विवाह की भी व्यवस्था करते थे. 600 विवाह तो उन्होंने स्वयं धर्मपिता बन कर कराये. उन पर कई बार प्राणघातक हमले हुए; पर वे डरे नहीं.

आर्य जी ने 2,000 से अधिक वृद्धों, विधवाओं तथा निराश्रित लोगों को शासन से पेंशन दिलाई. उन्होंने 4,000 से अधिक विधर्मियों को हिन्दू बनाया. इनमें कई पादरी, मौलवी तथा इमाम भी थे. घर से भागी, भगाई या ठुकराई गयी मुस्लिम कन्याओं के विवाह वे प्रयासपूर्वक हिन्दू युवकों से करा देते थे.

700 अन्तरजातीय विवाह कराने वाले आर्य जी ने 300 दम्पतियों के मनभेद मिटाकर उनके गृहस्थ जीवन को नष्ट होने से बचाया. उनकी सेवाओं को देखकर 1983 में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह तथा देश की अनेक संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया. 1988 में उनके नागरिक अभिनंदन में भी श्री जैलसिंह उपस्थित हुए.

25 अक्तूबर, 2001 को इस महान समाज सुधारक का देहांत हुआ.

 

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