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सरिता, चम्पक, गृहशोभा से हर घर हिन्दूफोबिया पहुंचा रहा दिल्ली प्रेस

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अमेरिका की फूड एवं ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने गोमूत्र से जुड़ी दो दवाइयों को पेटेंट दिया है या पेटेंट बायो इनहैंसर और एंटीबायोटिक के तौर पर दिए गए. इसे एंटीफंगल और एंटी कैंसर एजेंट की मान्यता दी गई है. इन दवाओं का इस्तेमाल लेप्रोसी, बुखार, किडनी की बीमारी और चर्म रोगों के तौर पर किया जा सकता है. इसके बावजूद अगर आप गोमूत्र को किसी बीमारी का इलाज बताएं तो आप हंसी के पात्र बन जाते हैं और गोमूत्र के बारे में अनर्गल बातें कहने से आप कूल कहलाते हैं.

आखिर, ये मानस कैसे बना कि हिन्दू बहुसंख्यक राष्ट्र में हिन्दू संस्कृति और सभ्यता की बात कहना पिछड़ा और प्रगतिवादी विरोधी हो गया. कैसे हिन्दू विरोधी मानसिकता इस देश के घर घर तक पहुंची और हमें पता भी नहीं चला.

यह प्रकिया कोई आज या कल शुरू नहीं हुई, भारत में दिख रहा यह हिन्दुफोबिया वर्षों से की गयी प्रायोजित कंडिशनिंग का परिणाम है. हिन्दुफोबिया का यह बीज हमारे दिमाग में बचपन से डाला जा रहा है, हर घर के अलमारी तक पहुँच गया है. लेकिन हम आज तक इस प्रक्रिया को समझ नहीं पाए. हिन्दू समाज सहिष्णु बना रहा और उसकी सहिष्णुता उसके विनाश का माध्यम बनती जा रही है. भारत के घर घर तक हिन्दुफोबिया को पहुँचाने में दिल्ली प्रेस ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है.

हिन्दुफोबिया और दिल्ली प्रेस

दिल्ली प्रेस की स्थापना 1939 में हुई थी और 1940 में लांच हुई कारवां पत्रिका पहला प्रकाशन था. यह कारवां पत्रिका ही है जो पुलवामा आतंकी हमले के दौरान शहीदों की जाति गिन रहा था. जब पूरा देश पुलवामा का शोक मना रहा था, तब कारवां समाज को बांटने की अपनी साजिश में व्यस्त था. आज दिल्ली प्रेस 10 भाषाओं में 33 पत्रिकाओं का प्रकाशन करता है, जिसमें हर आयु वर्ग और बौद्धिक स्तर के लोगों के लिए कुछ न कुछ है. गृहणियों के लिए गृहशोभा और सरिता है तो बच्चों के लिए चम्पक, कहानी पढ़ने वालों के लिए सरस सलिल है तो खबर पढ़ने वालों के लिए कारवां. आज दिल्ली प्रेस की पत्रिकाएँ हर घर तक पहुँचती हैं और अपने साथ लेकर जाती हैं हिन्दुओं के प्रति घृणा.

सरिता में छपे कई ऐसे लेख हैं, जिनके शीर्षक स्पष्ट रूप से हिंदू-विरोधी हैं, तिरस्कार और नफरत से भरे हैं. जैसे- ‘कांवड़िया, अंधविश्वासी परंपराओं के वाहक’, “(हिन्दू) पंडितों का भ्रम”, “वास्तु (हिंदू) धर्म की एक बुराई”, धर्म की आड़ में सब्ज़बाग, नए टोटकों से ठगी: मिर्ची यज्ञ और गुप्त नवरात्री’ आदि, इन लेखों के शीर्षकों से ही एजेंडा साफ़ दिखने लगता है कि इनके निशाने पर कौन है. सरिता के हिन्दूफोबिया की गाथा नई नहीं है. वर्ष 1957 में, अरविंद कुमार की कविता “राम का अन्तर्द्वंद” को लेकर एक विवाद उत्पन्न हुआ जो सरिता में ही प्रकाशित हुआ था.

बच्चों की पत्रिका चम्पक भी धीमे जहर की तरह राष्ट्रविरोधी विचार बच्चों के मन में भारती है. इस पत्रिका की कहानियों में हिन्दू धर्म को अन्धविश्वास और आडम्बर से भरा बताया जाता है. पंडितों को ठग और शोषण करने वाला दिखाया जाता है. जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने के बाद चम्पक ने कश्मीर केन्द्रित एक अंक प्रकाशित किया था. जिसमें आतंकियों का मानवीय चित्रण करके उन्हें पीड़ित और सरकार को अत्याचारी सिद्ध करने का प्रयास किया गया था. अब जो बच्चा चम्पक की कहानियां पढ़कर बड़ा होगा, उसके लिए बिना सत्य जाने गौमूत्र का मजाक उड़ाना तो कूल ही होगा.

दिल्ली प्रेस का वामपंथी कनेक्शन

ब्रेकिंग इंडिया फोर्सेस में वामपंथी आज भी सबसे आगे आते हैं, दिल्ली प्रेस भी शुरुआत से ही वामपंथी विचारों का गढ़ रहा है. इसके संस्थापक विश्वनाथ का वैचारिक झुकाव किसी से छिपा नहीं है. उनके बाद उनके बेटे पारसनाथ ने जिम्मेदारी संभाली जो आज दिल्ली प्रेस के प्रकाशक और 30 पत्रिकाओं के संपादक हैं. एक व्यक्ति द्वारा 30 पत्रिकाओं का संपादन किया जाना सामान्य नहीं है, ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि प्रोपगेंडा सही तरीके से पहुंचे, उसमें कोई कमी न रह जाए.

मित्रोखिन आर्काइव में प्रकाशित डाक्यूमेंट्स के आधार पर यह स्पष्ट है कि आजादी के बाद सोवियत रूस ने भारत में कम्युनिस्ट प्रोपगेंडा को विस्तार देने के लिए लाखों लेख प्रकाशित करवाए. सैकड़ों पत्रकारों और लेखकों के माध्यम से हिन्दू विरोधी विचारों को बढ़ावा दिया गया. इन सबके साथ दिल्ली प्रेस कदमताल करके चलती रही. यही कारण है कि जब सोवियत रूस कमजोर होने लगा तो फंडिंग की कमी की वजह से 1988 में कारवां को बंद करना पड़ा था, उसके अगले ही साल 1989 में सोवियत रूस टूट गया. 2009 में कारवां को दोबारा शुरू किया गया और कांग्रेस के वरदहस्त के नीचे ये पत्रिका दोबारा राष्ट्रविरोधी विचारों के प्रसार में सक्रिय हो गयी.

विश्व बुक्स का हिन्दू विरोध

दिल्ली प्रेस विश्व बुक्स के बैनर पर किताबों का भी प्रकाशन करती है. अमेज़न पर इस प्रकाशन की कई किताबें बिक्री के लिए उपलब्ध हैं. इनमें से कुछ किताबों के नाम हैं – धर्म एक धोखा, धर्म का शाप, धार्मिक कर्मकांड – पंडों का चक्रव्यूह, द हिस्ट्री ऑफ़ हिन्दूज़ – सागा ऑफ़ डीफिट्स, तुलसीदास – हिन्दू समाज के पथभ्रष्टक, क्या हम हिन्दुओं में नैतिकता है इत्यादि. इन पुस्तकों के नाम से ही स्पष्ट है कि यह कैसे नफरत से भरी हैं, लेकिन इसके बावजूद न तो इनका कोई विरोध है, न ही इन्हें रोकने का कोई उपाय.

हमें ये समझना होगा कि वो मंचों से हिन्दुओं के खिलाफ जहर उगलने वाले हों या स्वस्तिक के निशान पर फ़क हिंदुत्व लिखने वाले, दिल्ली के सड़कों पर आजादी के नारे लगाने वाले या हिन्दू मान्यताओं का उपहास उड़ाने वाले. उनका मानस तैयार करने का काम दिल्ली प्रेस जैसी संस्थाएं ही करती हैं. अगर हम इस देश से हिन्दूफोबिया का अंत चाहते हैं तो इन संस्थाओं की जड़ों में मठ्ठा डालना जरुरी है.

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