नई दिल्ली. झांसी के आसपास उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश की विशाल सीमाओं में फैली बुन्देलखण्ड की वीर भूमि में तीन जून, 1649 (ज्येष्ठ शुक्ल 3, संवत 1706) को चम्पतराय और लाल कुंवर के घर में छत्रसाल का जन्म हुआ था. चम्पतराय सदा अपने क्षेत्र से मुगलों को खदेड़ने के प्रयास में लगे रहते थे. अतः छत्रसाल पर भी बचपन से इसी प्रकार के संस्कार पड़े. जब छत्रसाल केवल 12 साल के थे, तो वह अपने मित्रों के साथ विन्ध्यवासिनी देवी की पूजा के लिए जा रहे थे. रास्ते में कुछ मुस्लिम सैनिकों ने उनसे मन्दिर का रास्ता जानना चाहा. छत्रसाल ने पूछा कि क्या आप लोग भी देवी मां की पूजा करने जा रहे हैं ? उनमें से एक क्रूरता से हंसते हुए बोला – नहीं, हम तो मन्दिर तोड़ने जा रहे हैं. यह सुनते ही छत्रसाल ने अपनी तलवार उसके पेट में घोंप दी. उसके साथी भी कम नहीं थे. बात ही बात में सबने उन दुष्टों को यमलोक पहुंचा दिया.
बुन्देलखण्ड के अधिकांश राजा और जागीरदार मुगलों के दरबार में हाजिरी बजाते थे. वे अपनी कन्याएं उनके हरम में देकर स्वयं को धन्य समझते थे. उनसे किसी प्रकार की आशा करना व्यर्थ था. एकमात्र शिवाजी ही मुगलों से टक्कर ले रहे थे. छत्रसाल को पता लगा कि औरंगजेब के आदेश पर मिर्जा राजा जयसिंह शिवाजी को पकड़ने जा रहे हैं, तो वे जयसिंह की सेना में भर्ती हो गये और मुगल सेना की कार्यशैली का अच्छा अध्ययन किया.
जब शिवाजी आगरा जेल से निकलकर वापस रायगढ़ पहुंचे, तो छत्रसाल ने उनसे भेंट की. शिवाजी के आदेश पर फिर से बुन्देलखण्ड आकर उन्होंने अनेक जागीरदारों और जनजातियों के प्रमुखों से सम्पर्क बढ़ाया और अपनी सेना में वृद्धि की. अब उन्होंने मुगलों से अनेक किले और शस्त्रास्त्र छीन लिये. यह सुनकर बड़ी संख्या में नवयुवक उनके साथ आ गये.
उधर, औरंगजेब को जब यह पता लगा, तो उसने रोहिल्ला खां और फिर तहव्वर खां को भेजा, पर हर बार उन्हें पराजय ही हाथ लगी. छत्रसाल के दो भाई रतनशाह और अंगद भी वापस अपने भाई के साथ आ गये. अब छत्रसाल ने दक्षिण की ओर से जाने वाले मुगलों के खजाने को लूटना शुरू किया. इस धन से उन्होंने अपनी सैन्य शक्ति में वृद्धि की. एक बार छत्रसाल शिकार के लिए जंगल में घूम रहे थे, तो उनकी स्वामी प्राणनाथ से भेंट हुई. स्वामी जी के मार्गदर्शन में छत्रसाल की गतिविधियां और बढ़ गयीं. विजयादशमी पर स्वामी जी ने छत्रसाल का राजतिलक कर उसे ‘राजाधिराज’ की उपाधि दी.
एक बार मुगलों की शह पर हिरदेशाह, जगतपाल और मोहम्मद खां बंगश ने बुन्देलखण्ड पर तीन ओर से हमला कर दिया. वीर छत्रसाल की अवस्था उस समय 80 वर्ष की थी. उन्हें शिवाजी का वचन याद आया कि संकट के समय में हम तुम्हारी सहायता अवश्य करेंगे. इसे याद कर छत्रसाल ने मराठा सरदार बाजीराव पेशवा को सन्देश भेजा. सन्देश मिलते ही बाजीराव ने तुरन्त ही वहां पहुंचकर मुगल सेना को खदेड़ दिया. इस प्रकार छत्रसाल ने जीवन भर मुगलों को चैन नहीं लेने दिया.
जिन महाकवि भूषण ने छत्रपति शिवाजी की स्तुति में ‘शिवा बावनी’ लिखी, उन्होंने ही ‘छत्रसाल दशक’ में आठ छन्दों में छत्रसाल की वीरता और शौर्य का वर्णन किया है. आज भी बुन्देलखण्ड के घर-घर में लोग अन्य देवी देवताओं के साथ छत्रसाल को याद करते हैं. – छत्रसाल महाबली, करियों भली-भली….