नई दिल्ली. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अनूठी संस्था है. इसमें कार्यकर्ता किन परिस्थितियों में प्रचारक बनते हैं और फिर उस व्रत को किस प्रकार आजीवन निभाते हैं, यह समझना आश्चर्यजनक पर बहुत प्रेरणादायी है. हरीश जी ऐसे ही एक प्रचारक थे, जिनका पांच जून, 2009 को 87 वर्ष की आयु में लुधियाना में देहांत हुआ. हरीश जी का जन्म ग्राम दिड़बा, जिला संगरूर, पंजाब में हुआ था. घर की आर्थिक आवश्यकताओं को देखते हुए वे वर्ष 1950-51 में संगरूर कार्यालय में रसोई का काम करने के लिए आये. वहां बाहर के प्रचारक भी प्रवास पर आते थे. संगरूर कार्यालय पर काम करते हुए उन्होंने संघ के प्रचारकों के तपोमय जीवन को देखा. उन्हें ऐसा लगा कि यदि ये लोग प्रचारक बन सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं ? बस, फिर क्या था, उन्होंने वरिष्ठ प्रचारकों से बात की और प्रचारक जीवन स्वीकार करने का संकल्प ले लिया.
अब कार्यालय की व्यवस्था तथा वस्तु भंडार का काम देखने के साथ ही वे संघ साहित्य के प्रचार में भी समय लगाने लगे. उन दिनों पाञ्चजन्य और आर्गेनाइजर के प्रसार पर संघ की ओर से बहुत जोर दिया जाता था, उन्होंने संगरूर में इसके सैकड़ों ग्राहक बनाये और अपनी साइकिल पर घर-घर और दुकान-दुकान जाकर उन्हें पहुंचाने लगे. साहित्य के प्रचार-प्रसार में उनकी रुचि देखकर उन्हें कुछ समय बाद अपेक्षाकृत बड़े स्थान पटियाला भेजा गया. वहां भी अथक परिश्रम कर उन्होंने इन पत्रों की ग्राहक संख्या में विस्तार किया.
वर्ष 1960 में उन्हें दिल्ली, झंडेवाला के केन्द्रीय कार्यालय पर भेज दिया गया. यहां भोजनालय और वस्तु भंडार को उन्होंने बहुत व्यवस्थित रूप दिया. दिल्ली कार्यालय पर देश भर से लोग आते हैं. संघ के अधिकारियों के साथ ही अन्य लोगों का भी आवागमन लगा रहता है. इसलिए भोजनालय को ठीक से चलाने में उन्हें अथक परिश्रम करना पड़ा, पर शरीर की चिन्ता किये बिना उन्हें जो काम सौंपा गया, उसमें निष्ठापूर्वक लगे रहे. यहां वरिष्ठ अधिकारियों से सम्पर्क एवं वार्ता से उनके संकल्प को और दृढ़ता मिली.
लम्बे समय तक दिल्ली कार्यालय पर काम करने से उनका शरीर शिथिल हो गया. अतः उन्हें पठानकोट कार्यालय प्रमुख की जिम्मेदारी देकर भेजा गया. वहां भी वे अपनी शारीरिक अस्वस्थता के बावजूद यथासंभव कार्य करते रहे. जब उनकी अस्वस्थता बहुत बढ़ गयी, तो उन्हें लुधियाना लाया गया, जिससे उन्हें ठीक से विश्राम और चिकित्सा मिल सके. सादा जीवन तथा मितव्ययी स्वभाव वाले हरीश जी अपने लिए किसी से कुछ अपेक्षा नहीं करते थे. लुधियाना कार्यालय पर वॉकर की सहायता से चलते हुए वे प्रातःस्मरण, शाखा आदि में जाते थे. पांच जून की प्रातः भी उन्होंने इन सबमें भाग लिया. दोपहर में उन्हें भीषण हृदयाघात होने पर अस्पताल में भर्ती कराया गया, पर अनेक प्रयत्नों के बाद भी चिकित्सक उन्हें बचा नहीं सके और संकल्प के धनी एक प्रचारक का व्रत पूर्ण हुआ.