नई दिल्ली. मध्यभारत प्रांत की प्रथम पीढ़ी के प्रचारकों में से एक जुगल किशोर जी का जन्म इंदौर के एक सामान्य परिवार में वर्ष 1919 में हुआ था. भाई-बहिनों में सबसे बड़े होने के कारण घर वालों को उनसे कुछ अधिक ही अपेक्षाएं थीं, पर उन्होंने संघकार्य का व्रत अपनाकर आजीवन उसका पालन किया.
जुगल जी किशोरावस्था में संघ के सम्पर्क में आकर शाखा जाने लगे. उन्होंने इंदौर के होल्कर महाविद्यालय से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की थी. घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण वे अन्यु बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर अपनी पढ़ाई करते थे. संघ कार्य की लगन के कारण वर्ष 1940 में वे पढ़ाई अधूरी छोड़कर प्रचारक बन गये. सर्वप्रथम उन्हें मंदसौर भेजा गया. उन दिनों संघ के पास पैसे का अभाव रहता था. अतः यहां भी ट्यूशन पढ़ाकर संघ कार्य करते रहे. मंदसौर के बाद वे उज्जैन, देवास की हाट, पिपल्या व बागली तहसीलों में प्रचारक रहे. इसके बाद मध्यभारत प्रांत का पश्चिम निमाड़ ही मुख्यतः उनका कार्यक्षेत्र बना रहा. बड़वानी को अपना केन्द्र बनाकर उन्होंने पूरे खरगौन जिले के दूरस्थ गांवों में संघ कार्य को फैलाया. उनके कार्यकाल में पहली बार उस जिले में 100 से अधिक शाखाएं हो गयीं.
वर्ष 1950 में संघ पर से प्रतिबन्ध हटने के बाद बड़ी विषम स्थिति थी. बड़ी संख्या में लोग संघ से विमुख हो गये थे. संघ कार्यालयों का सामान पुलिस ने जब्त कर लिया था. न कहीं ठहरने का ठिकाना था और न भोजन का. ऐसे में अपनी कलाई घड़ी बेच कर उन्होंने कार्यालय का किराया चुकाया. संघ के पास पैसा न होने से प्रवास करना भी कठिन होता था, पर जुगल जी ने हिम्मत नहीं हारी. वे पूरे जिले में पैदल प्रवास करने लगे. प्रतिबन्ध काल में उन्होंने कुछ कर्ज लिया था. उसे चुकाने तक उन्होंने नंगे पैर ही प्रवास किया, लेकिन ऐसी सब कठिनाइयों के बीच भी उनका चेहरा सदा प्रफुल्लित ही रहता था.
जुगल जी का स्वभाव बहुत मिलनसार था, पर इसके साथ ही वे बहुत अनुशासनप्रिय तथा कर्म-कठोर भी थे. वे सबको साथ लेकर चलने तथा स्वयं नेपथ्य में रहकर काम करना पसंद करते थे. काम पूर्ण होने पर उसका श्रेय सहयोगी कार्यकर्ताओं को देने की प्रवृत्ति के कारण शीघ्र ही उनके आसपास नये और समर्थ कार्यकर्ताओं की टोली खड़ी हो जाती थी. कुछ समय तक विदिशा जिला प्रचारक और फिर वर्ष 1974 तक वे इंदौर के विभाग प्रचारक रहे. मध्य भारत में विश्व हिन्दू परिषद का काम शुरू होने पर उन्हें प्रांत संगठन मंत्री की जिम्मेदारी दी गयी. इसे उन्होंने अंतिम सांस तक निभाया. आपातकाल में वे भूमिगत हो गये, पर फिर पकड़े जाने से उन्हें 16 महीने कारावास में रहना पड़ा. जेल में भी वे अनेक धार्मिक आयोजन करते रहते थे. इससे कई खूंखार अपराधी तथा जेल के अधिकारी भी उनका सम्मान करने लगे.
जुगल जी स्वदेशी के प्रबल पक्षधर थे. वे सदा खादी या हथकरघे के बने वस्त्र ही पहनते थे. धोती-कुर्ता तथा कंधे पर लटकता झोला ही उनकी पहचान थी. प्रवास में किसी कार्यकर्ता के घर नहाते या कपड़े धोते समय यदि विदेशी कंपनी का साबुन उन्हें दिया जाता, तो वे उसे प्रयोग नहीं करते थे. ऐसे कर्मठ कार्यकर्ता का देहांत भी संघ कार्य करते हुए ही हुआ. 12 जुलाई, 1979 को वे भोपाल में प्रातःकालीन चौक शाखा में जाने के लिए निकर पहन कर निकले. मार्ग में आजाद बाजार के पास सड़क पर उन्हें भीषण हृदयाघात हुआ और तत्काल ही उनका प्राणांत हो गया.
कहते हैं कि अंतिम यात्रा पर हर व्यक्ति अकेला ही जाता है, पर यह भी विधि का विधान ही था कि जीवन भर लोगों से घिरे रहने वाले जुगल जी उस समय सचमुच अकेले ही थे.