नई दिल्ली. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों से प्रेरित संगठनों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् का विशेष स्थान है. अन्य संगठनों में जहां सभी आयु वर्ग के लोग होते हैं, वहां विद्यार्थी परिषद् शुद्ध युवाओं का संगठन है. परिषद के काम को हिमाचल प्रदेश में सुदृढ़ आधार देने वाले सुनील उपाध्याय जी का जन्म 15 मार्च, 1959 को जम्मू-कश्मीर के कठुआ जिले में हुआ था. वे विद्या प्रकाश जी एवं पद्मावती देवी जी की छठी सन्तान थे. बचपन से ही उनमें नेतृत्व करने की अपार क्षमता थी. वर्ष 1975 में जब देश में आपातकाल लगा, तो वे कक्षा दस के छात्र थे. कुछ ही दिनों बाद उनके बड़े भाई का विवाह भी होने वाला था. इसके बावजूद उन्होंने संगठन की योजना से सत्याग्रह किया और नौ माह तक जेल में रहे.
बीए में पढ़ते समय कठुआ स्थित बिड़ला समूह की एक कपड़ा मिल में मजदूरों ने हड़ताल की. मालिकों ने जब मजदूरों का दमन शुरू किया, तो सुनील अपने साथियों के साथ उस हड़ताल में कूद गये और मालिकों को झुकने के लिए मजबूर कर दिया. उस समय उनके जिम्मे जम्मू-कश्मीर का विद्यार्थी परिषद् का कार्य था. उन्होंने वहां भी अनेक छात्र आन्दोलनों का नेतृत्व किया.
सुनील उपाध्याय जी के मन में इस बात को लेकर बहुत बेचैनी थी कि पावन देवभूमि हिमालय में कम्युनिस्ट अपने पैर फैला रहे हैं. उन्होंने अपनी पीड़ा वरिष्ठ अधिकारियों के सम्मुख रखी. जिसके पश्चात सुनील जी को हिमाचल प्रदेश जाकर विद्यार्थी परिषद के काम को मजबूत करने की जिम्मेवारी दी गई.
सुनील जी को चुनौतीपूर्ण काम करना पसंद था. अतः वे तुरन्त तैयार हो गये और इसके बाद वे अन्तिम सांस तक हिमाचल में ही काम करते रहे. वर्ष 1979-80 में हिमाचल प्रदेश में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद सर्वाधिक शक्तिशाली संगठन बन कर उभरा. इसका श्रेय निःसन्देह सुनील उपाध्याय के परिश्रम, समर्पण और कार्य कुशलता को जाता है. वर्ष 1981 में हिमाचल विश्वविद्यालय के प्रबन्धकों ने वामपन्थियों से मिलकर एमबीए की परीक्षा में धांधली की. विद्यार्थी परिषद ने इसका कड़ा विरोध किया. जब प्रशासन के कान पर जूं नहीं रेंगी, तो सुनील उपाध्याय अपने कुछ साथियों के साथ आमरण अनशन पर बैठ गये. आठ दिन बाद प्रशासन को झुकना पड़ा. इसी प्रकार छात्रावासों की कमी के विरुद्ध हुए आन्दोलन में भी उन्हें सफलता मिली. इससे विद्यार्थी परिषद का डंका पूरे विश्वविद्यालय में बजने लगा और वर्ष 1982 के चुनावों में परिषद को अच्छी सफलता मिली.
पर, इस धुआंधार परिश्रम का सुनील जी के स्वास्थ्य पर बहुत खराब असर हुआ. रात में सफर, दिन में काम, भोजन की भी कोई उचित व्यवस्था नहीं. ऐसे में परिषद के वर्ष 1985 में पटना में हुए अधिवेशन में उनके मुंह से खून निकलने लगा. जांच से पता लगा कि उनके फेफड़े खराब हो चुके हैं. उन्हें तुरन्त दिल्ली और फिर वहां से मुम्बई भेजा गया. आठ महीने तक मुम्बई के अस्पताल में जीवन और मृत्यु से वे संघर्ष करते रहे. बीमारी में भी उनके मन में केवल यही विचार था कि हिमाचल प्रदेश में विद्यार्थी परिषद के काम को सबल कैसे बनाया जा सकता है. वे अपनी सेवा में लगे कार्यकर्ताओं से इसी बारे में बोलते रहते थे. मृत्यु के इतने निकट आकर भी उन्हें मृत्यु से भय नहीं था.
12 नवम्बर, 1985 (दीपावली) की प्रातः चार बजे उनका जीवन दीप सदा के लिए बुझ गया, पर हिमाचल प्रदेश में विद्यार्थी परिषद के दीप को वे सदा के लिए आलोकित कर गये.