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“स्वाधीनता का अमृत महोत्सव” गुमनाम वीरांगना डॉ. राधाबाई

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डॉ. आनंद सिंह राणा

“इतिहास के पन्नों से ओझल अद्भुत एवं अद्वितीय वीरांगना डॉ. राधाबाई महान् स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और समाज सुधारक हैं, जिन्होंने चिकित्सा शास्त्र में डिग्री तो नहीं ली लेकिन उन्हें डॉ. की जन उपाधि मिली”. दुर्भाग्य देखिये कि स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में वीरांगना का अधिक उल्लेख नहीं मिलता, न ही कभी रेखांकित किया गया..

वे महिला स्वतंत्रता सेनानी तथा समाज सुधारकों में से एक थीं. गाँधी जी के सभी आंदोलनों में आगे रहीं. कौमी एकता, स्वदेशी, नारी-जागरण, अस्पृश्यता निवारण, शराबबंदी, आदि सभी आन्दोलनों में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही. समाज में प्रचलित कई कुप्रथाओं को समाप्त करने में भी राधाबाई का योगदान अविस्मरणीय है.

राधाबाई का जन्म नागपुर, महाराष्ट्र में सन् 1875 ई. में हुआ था. उनका विवाह बहुत कम आयु में ही हो गया था. जब वे मात्र नौ (9) वर्ष की थीं, तभी विधवा हो गईं. पड़ोसन के घर में उन्हें प्यारी-सी सखी मिली, जिसके साथ वे रहने लगीं. उसी के साथ हिन्दी सीखने लगीं और साथ ही दाई का काम भी करने लगीं थीं. लेकिन पड़ोसन सखी भी एक दिन चल बसी. उसके बेटा-बेटी राधाबाई के भाई-बहन बने रहे. किसी को पता भी नहीं चलता था कि वे दूसरे परिवार की हैं.

सन् 1918 में राधाबाई रायपुर आईं और नगरपालिका में दाई का काम करने लगीं. इतने प्रेम और लगन से अपना काम करतीं कि सबके लिए माँ बन गई थीं. जन उपाधि के रूप में राधाबाई डॉ. कहलाने लगी थीं. उनके सेवाभाव को देखकर नगरपालिका ने उनके लिए टाँगे-घोड़े का प्रबंध किया था.

सन् 1920 में जब गाँधी जी पहली बार रायपुर आये, तो डॉ. राधाबाई उनसे बहुत प्रभावित हुईं. सन् 1930 से 1942 तक हर एक सत्याग्रह में वे भाग लेती रहीं. न जाने कितनी ही बार वे जेल भी गईं. जेल के अधिकारी भी उनका आदर करते थे.

अस्पृश्यता के विरोध में राधाबाई ने महत्त्वपूर्ण काम किया था. वे सफ़ाई कामगारों की बस्ती में जाती थीं और बस्ती की सफ़ाई किया करती थीं. उनके बच्चों को बड़े प्रेम से नहलाती थीं. उन बच्चों को पढ़ाती. डॉ. राधाबाई धर्म-भेद नहीं मानती थीं. सभी धर्म के लोग उनके घर में आते थे.

समाज सुधार

जब महात्मा गाँधी 1920 में पहली बार रायपुर आये, उस वक्त धमतरी तहसील के कन्डेल नाम के गाँव में किसान सत्याग्रह चल रहा था. गाँधी जी का प्रभाव छत्तीसगढ़ में व्यापक रूप से पड़ा था. डॉ. राधाबाई तब से गाँधी जी द्वारा संचालित सभी आन्दोलनों में आगे रहीं. उस समय रोज़ प्रभात फेरी निकाली जाती थी. खादी बेचने में, चरखा चलाने में महिलाएं आगे रहती थीं.

एकादशी महात्म्य सुनने के लिये आई महिलाएँ देशहित के बारे में चर्चा करने लगती थीं. डॉ. राधाबाई वहीं चरखा सिखाने बैठ जाती थीं. सब मिलकर गातीं – “मेरे चरखे का टूटे न तार, चरखा चालू रहे.” ऐसा करते हुए वे अलग-अलग जगह घूमतीं. उनका मकान जो मोमिनपारा मस्जिद के सामने था, वहाँ और भी बहनें एकत्रित होती थीं – पार्वती बाई, रोहिणी बाई, कृष्ण बाई, सीता बाई, राजकुँवर बाई आदि.

चरखा कातने के बाद वे प्रभातफेरी निकालतीं. सत्याग्रह की तैयारी करतीं, सफाई टोली निकालतीं, पर्दा प्रथा रोकने की कोशिश करतीं, सदर बाज़ार का जगन्नाथ मन्दिर बनता सत्याग्रह स्थल.

‘किसबिन नाचा’ का अंत – डॉ. राधाबाई का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण काम था, “वेश्यावृत्ति में लगी बहनों को मुक्ति दिलाना”. उस समय छत्तीसगढ़ के गाँवों और शहरों में सामंतों के यहाँ वेश्याओं का नाच हुआ करता था, जिसमें ‘देवदासी प्रथा’ और ‘मेड़नी प्रथा’ प्रमुख थी, इसे छत्तीसगढ़ी भाषा में “किसबिन नाचा” कहा जाता था. छत्तीसगढ़ के कई स्थानों पर यदा-कदा आज भी यह प्रथा जारी है.

“किसबिन नाचा” करने वालों की अलग एक जाति ही बन गई थी. ये लोग अपने ही परिवार की कुँवारी लड़कियों को ‘किसबिन नाचा’ के लिये अर्पित करने लगे थे. डॉ. राधाबाई के साथ सभी ने इस प्रथा का विरोध किया और इस प्रथा को खत्म किया. खरोरा नाम के एक गाँव में इस प्रथा की समाप्ति सबसे पहले हुई थी. यहाँ के लोग खेती-बाड़ी करने लगे थे. यह अनोखा परिवर्तन राधाबाई के कारण ही सम्भव हुआ था. 02 जनवरी, 1950 को डॉ. राधाबाई 75 वर्ष की आयु में चली बसीं. उनका मकान एक अनाथालय को दे दिया गया.

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