रमेश शर्मा
यह अब तक का सबसे विशाल गोरक्षा आंदोलन था. दस लाख से अधिक साधु-संत और गोभक्त संसद पर प्रदर्शन करने पहुँचे थे. पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिये लाठियां और गोलियां चलायीं, जिसमें कई साधु तो वहीं काल के गाल में समा गए और सैकड़ों घायल हो गए. तीन पीठाधीश्वर शंकराचार्य भी बुरी तरह घायल हुए. घटना की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेकर तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा ने त्यागपत्र दे दिया था.
सनातन परंपरा में गाय पूजनीय रही है. ऋग्वेद से लेकर श्रीमद्भगवत गीता तक सभी ग्रंथों में गाय की महिमा का वर्णन है. ऐसा कोई पुराण नहीं, जिसमें गाय की महिमा पर कथाएँ न हों. अवतारों में भी एक निमित्त गाय रही है. भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोसेवा की असंख्य कथाएँ हैं. लेकिन आक्रांताओं और विदेशी सत्ताओं की क्रूरता से गाय के प्राणों पर संकट आया. समय समय पर गोरक्षा के लिये संघर्ष का विवरण इतिहास में मिलता है. ऐसा संघर्ष सल्तनतकाल में भी हुआ और अंग्रेजीकाल में भी. सल्तनतकाल और अंग्रेजीकाल में गोवध का तरीका अलग अलग था. सल्तनतकाल में ईद की कुर्बानी और माँस खाने में गाय के वध का विवरण इतिहास में मिलता है. लेकिन अंग्रेजों ने एक कदम आगे गो माँस के व्यापार पर काम किया और ऐसे स्लॉटर हाउस खड़े किये, जिनमें गायों को काट कर उनका माँस निर्यात किया जाने लगा. सल्तनतकाल समाप्त हो गया और अंग्रेजीकाल भी चला गया, पर गोवध न रुका.
स्वाधीनता के बाद समय समय पर संतों ने आवाज उठाई. देश का ऐसा कोई कोना नहीं था, जहाँ से गोरक्षा की आवाज न उठी हो. इस आवाज को एक स्वर दिया स्वामी करपात्री जी महाराज और स्वामी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी ने. सबसे पहले सभी मठों के पीठाधीश्वर शंकराचार्यों से बात हुई. फिर सभी अखाड़ों और अन्य प्रमुख धर्मगुरुओं से भी बात की गई, जिनमें जैन, बौद्ध, सिक्ख, आर्य समाज आदि से गोरक्षा की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करने पर सहमति ली गई. करपात्री जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहित विभिन्न संगठनों से चर्चा की. विभिन्न राजनैतिक दलों और समाज प्रमुखों से बातचीत की. इनमें प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी, गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा, आचार्य विनोबा भावे पंडित दीनदयाल उपाध्याय, डॉ. राम मनोहर लोहिया जैसे व्यक्तित्व शामिल थे. इतनी तैयारी के बाद सर्वदलीय गोरक्षा महाअभियान समिति का गठन किया गया. इसमें काँग्रेस सीधे नहीं जुड़ी थी, लेकिन कुछ सदस्य काँग्रेस पार्टी से भी जुड़े थे. जबकि भारतीय जनसंघ, रामराज्य परिषद, हिन्दू महासभा, राम राज्य परिषद आदि खुलकर साथ थे.
अक्तूबर 1966 में आंदोलन आरंभ हुआ. यह तीन स्तरीय था. पहला अनशन, दूसरा विभिन्न प्राँतों में स्थानीय स्तर पर ज्ञापन देना और तीसरा संसद पर प्रदर्शन. आंदोलन के क्रम में दिल्ली के आर्य समाज भवन में संतों का अनशन आरंभ हुआ और केन्द्रीय गृहमंत्री सहित विभिन्न मंत्रालयों को ज्ञापन प्रेषित किये गए. यह अभियान पूरे देश में लगभग एक माह चला. लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला. अंततः गोपाष्टमी के दिन दिल्ली जाकर संसद भवन पर प्रदर्शन करने का निर्णय लिया गया. 1966 के उस वर्ष यह तिथि सात नवम्बर को थी. इस वर्ष गोपाष्टमी 9 नवम्बर को पड़ रही है. संसद भवन पर होने वाले प्रदर्शन के लिये देशभर में तैयारी हुई. जम्मू, कश्मीर से लेकर केरल तक और गुजरात से लेकर बंगाल तक देश के हर नगर और क्षेत्र में संतों की सभाएँ हुई और गो भक्तों का दिल्ली पहुँचना आरंभ हो गया. कितने ही लोग सप्ताह भर की पदयात्रा करके दिल्ली पहुँचे. कोई सड़क पर सोया, किसी ने माँग कर भोजन किया. लेकिन सब के मन में गोरक्षा की ही लगन थी.
गोपाष्टमी के एक दिन पहले से ही देश भर से साधु संत और अन्य गो भक्त दिल्ली पहुँच गए थे और सात नवम्बर को प्रातः से ही आँदोलनकारी लाल किले से लेकर चाँदनी चौक और चाँदनी चौक से संसद भवन जाने वाले मार्ग पर एकत्रित थे. इस आंदोलन के समन्वयक स्वामी करपात्री जी के साथ चाँदनी चौक आर्य समाज मंदिर में तीन पीठाधीश्वर शंकराचार्य जगन्नाथपुरी, ज्योतिष्पीठ और द्वारकापीठ, वल्लभ संप्रदाय पीठाधिपति, रामानुज संप्रदाय, माधव संप्रदाय, रामानंदाचार्य, आर्य समाज, नाथ संप्रदाय, जैन, बौद्ध व सिक्ख समाज के प्रतिनिधि, निहंग, नागा साधु और गाँधीवादी संत विनोबा भी सहभागी थे. गोरक्षा का संकल्प लेकर लगभग दस लाख से अधिक गोभक्त दिल्ली पहुँचे थे. इनमें लगभग दस हजार से अधिक साध्वियाँ व अन्य महिलाएँ थीं. लाल किला मैदान से नई सड़क, चावड़ी बाजार, पटेल चौक होकर संसद भवन पहुंचने का मार्ग निश्चित हुआ. गोभक्तों के समूह ने जुलूस के रूप में पैदल चलना आरम्भ किया. इस मार्ग पर दिल्लीवासियों ने अपने घरों से फूलों की वर्षा की. लगभग ग्यारह बजे से आंदोलनकारी गोभक्तों का संसद भवन पहुँचना आरंभ हो गया था. दोपहर लगभग एक बजे संसद भवन पर सभा आरंभ हुई और संतों के संबोधन हुए. सभा लगभग दो घंटे चली. सब शाँतिपूर्ण था. लगभग तीन बजे आर्यसमाज के स्वामी रामेश्वरानन्द का संबोधन आरंभ हुआ. स्वामी रामेश्वरानन्द ने कहा कि यह सरकार बहरी है. सरकार को झकझोरना होगा. तभी गोहत्या बन्दी कानून बन सकेगा. इसी बीच कुछ लोगों ने संसद भवन में घुसने का प्रयास किया. रोकने के लिये पुलिस ने पहले लाठी चार्ज किया, फिर गोली चलाई. सड़कें रक्त रंजित हो गईं और घायलों से पट गईं. सरकारी आँकड़ों के अनुसार, इस गोलीकांड में आठ लोगों की मौत हुई थी. जबकि प्रत्यक्षदर्शियों ने मरने वालों की संख्या इससे कई गुना अधिक बताई. लाठीचार्ज में करपात्री जी महाराज और पुरी पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी निरंजन देव तीर्थ भी घायल हुए. जो प्रमुख संत घायल हुए और गिरफ्तार किये गए उनमें पुरी पीठ के वर्तमान पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती भी थे. इस घटना के बाद दिल्ली में कर्फ्यू लगा दिया गया. जो भी संत सड़क पर दिखता, उस पर पुलिस लाठी लेकर टूट पड़ती थी. हजारों संतों को जेल में डाल दिया. तिहाड़ जेल में स्थान न बचा तो अस्थाई जेलें बनाई गईं. उनमें गोभक्तों को निरुद्ध किया गया.
गोभक्तों की उस शाँतिपूर्ण सभा में अचानक हुए उपद्रव के दो अलग अलग कारण बताये गए. सरकार की ओर से माना गया कि स्वामी रामेश्वरानन्द जी ने आंदोलनकारियों से संसद भवन में घुसकर सांसदों को घेरने की बात कही, इसलिये भीड़ उत्तेजित हो गई और संसद का दरवाजा तोड़कर भीतर घुसने का प्रयास किया. जबकि दूसरी ओर आंदोलनकारियों का मानना था कि प्रदर्शन में कुछ असामाजिक तत्व शामिल हो गए थे. वे भीड़ में घुसकर संतों से मारपीट करने लगे, इससे अव्यवस्था फैल गई और किसी ने संसद भवन में घुसने के लिये उकसा दिया. जिससे भारी उपद्रव हो गया.
उन दिनों इंदिरा गाँधी भारत की प्रधानमंत्री थीं और गुलजारी लाल नंदा देश के गृहमंत्री. करपात्री जी महाराज से नंदाजी के व्यक्तिगत संबंध बहुत अच्छे थे. व्यक्तिगत स्तर पर नंदा जी गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने के पक्षधर थे. पर निर्णय न हो सका और उनके गृहमंत्री रहते हुए संतों पर लाठी और गोलियां चलीं तथा अश्रुगैस छोड़ी गई. उन्होंने इस घटना से क्षुब्ध होकर अपने पद से त्यागपत्र दे दिया. दूसरी ओर संतों पर हुए गोलीकांड के विरोध में संतों ने अनशन आरंभ कर दिया. इनमें प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, पुरी के शंकराचार्य निरंजन देव तीर्थ रामचंद्र वीर और जैन संत मुनि सुशील कुमार जैसे सुविख्यात संत शामिल थे. सभी की गिरफ्तारी हुई. प्रभुदत्त ब्रह्मचारी का अनशन 30 जनवरी, 1967 तक चला. 73वें दिन डॉ. राममनोहर लोहिया ने उनका अनशन तुड़वाया. अगले दिन पुरी के शंकराचार्य ने भी अनशन तोड़ा. लेकिन रामचन्द्र वीर अनशन पर डटे रहे, उनका अनशन 166 दिन बाद समाप्त हुआ था.
संतों के गोरक्षा आंदोलन का विवरण मासिक पत्रिका ‘आर्यावर्त’, ‘केसरी’ में प्रकाशित हुआ. बाद में गीता प्रेस गोरखपुर की मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ ने अपने गो विशेषांक में घटना का विस्तार से विवरण दिया.