भारत की सुरक्षा नीति का मूल्यांकन और विश्लेषण करने का यह सर्वथा उचित समय है . जब राष्ट्रीय सुरक्षा-सिद्धांत को स्वातंत्र्यवीर सावरकर और सुभाषचंद्र बोस की दृष्टि के आधार पर देखा जाना चाहिये, साथ में भारत को ये भी स्वीकार करना होगा कि गांधी जी के महत्व्पूर्ण योगदान के बावजूद उनकी सम्पूर्ण अहिंसा और हिन्दुओं की कीमत पर हिन्दू-मुस्लिम एकता की विचारधारा ने राष्ट्र को भयंकर नुकसान पहुंचाया है और आज भी हमें भ्रमित कर रहा है.
उदय माहुरकर
एक राष्ट्र की नियति में एक समय ऐसा आता है, जब उसे परम सत्य को स्वीकार करना चाहिए, चाहे वह कितना भी कड़वा क्यों न हो. संभव है कि यह स्वीकारोक्ति हमारे भविष्य को सुरक्षित करने में कारगर हो. दूसरे शब्दों में, कोई भी राष्ट्र अपनी पिछली गलतियों का सामना किए बिना आगे नहीं बढ़ सकता. जो राष्ट्र अपनी भूलों से सबक लेने में विफल होते हैं, वे इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिए जाते हैं. ऐसे समय जब चीन के बार-बार पीठ पर वार करने, जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान के लगातार आतंकी हमले और एक आंतरिक सुरक्षा स्थिति, जिसमें पैन-इस्लामिक और कम्युनिस्टों की संयुक्त कार्रवाई भारत-राष्ट्र को अस्थिर कर रही है, तब क्या भारत के लिए अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टि में गियर बदलने का समय आ चुका है ? शायद हाँ!
भारत 1962 से भ्रामक ड्रैगन की प्रकृति से अवगत है. यह मानना पड़ेगा कि प्रधानमंत्री मोदी के आने के बाद भारत ने चीन को रोकने के काफी प्रयास किये, और एक हद तक भारत को चीन के समक्ष एक समान भागीदार के रूप में स्थापित भी किया. इसके साथ ही भारत ने गलवान घाटी में शालीनता के साथ अपना दृढ़ व्यवहार प्रस्तुत किया. मोदी ने जापान और वियतनाम जैसी चीन विरोधी शक्तियों से दोस्ती करने, म्यांमार जैसी चीन समर्थक शक्तियों को भारत समर्थक बनाने और दक्षिण चीन सागर में चीनी आक्रमण का विरोध करने के साथ ही कोविड महामारी से संबंधित मुद्दों पर चीन विरोधी रुख अपनाने का बड़ा काम भी किया है. कोई भी इस बात से इंकार नहीं कर सकता है कि 3400 किलोमीटर लंबी भारत-चीन सीमा पर सैन्य और नागरिक बुनियादी ढाँचे के निर्माण की विशाल-योजना चीनी घुसपैठ के लिए उकसावे में से एक थी.
हमें यह भी स्वीकारना होगा, खासकर गलवान घाटी की घटना के बाद दलाईलामा को चीन के बारे में बोलने से रोकने की नीति हमारी रणनीतिक कमजोरी साबित हुई है. जब संयुक्त राष्ट्र द्वारा मौलाना मसूद अजहर को आतंकवादी निरुपित करने का चीन विरोध कर रहा था, तब हमें शिनजियांग में उइगर मुसलमानों और तिब्बत के साथ-साथ चीनी अत्याचारों को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं करके भारत ने बड़ी गलती की.
राष्ट्रीय सुरक्षा भूलों की श्रृंखला –
आइए, राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में इतिहास पर नजर दौड़ाते हैं. राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर जवाहरलाल नेहरू की गलतियां 1962 के भारत-चीन युद्ध में भारी पड़ीं. नेहरू के पंचशील सिद्धांत, जिसके कारण भारत को भारी कीमत चुकानी पड़ी. वह गांधीजी की अहिंसा और नेहरू की कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रति प्रेम का मिश्रण था. 1954 में जब नेहरू पंचशील सिद्धांत लेकर आए तब भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के महान दूरदर्शी वीर सावरकर ने चेतावनी दी थी. सावरकर ने कहा था कि चीन द्वारा तिब्बत को हड़पने के बाद अगर नेहरु पंचशील जैसी लुभावनी बातें चीन के साथ करते हैं तो जमीन हड़पने की चीनी भूख को बढ़ावा मिलेगा और उनको थोड़ा भी अचम्भा नहीं होगा, अगर चीन भविष्य में भारत की भूमि हड़पने का प्रयत्न करे. यह भाविष्वाणी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक गुरु गोलवरकर ने भी की थी. दोनों की भविष्वाणियां 8 साल बाद 1962 में सच सिद्ध हुईं, जब चीन ने आक्रमण कर भारत की बहुत बड़ी भूमि पर कब्जा कर भारत को मध्य-एशिया से अलग-थलग कर दिया.
इसके अतिरिक्त भी भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा पर गांधीवाद की काली छाया के कई उदाहरण हैं. 1978 के आसपास गांधीवादी विचारधारा के प्रभाव में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई जैसे ईमानदार नेता ने तत्कालीन पाकिस्तान के तानाशाह जनरल जियाउल हक के समक्ष यह आत्मघाती खुलासा किया कि भारत का पाकिस्तान में जासूसी नेटवर्क था और भारत को पाकिस्तान के कहुटा परमाणु रिएक्टर की जानकारी थी. इसके बाद, जनरल जियाउल हक ने पाकिस्तान में भारत की गुप्तचर व्यवस्थाओं को नष्ट कर दिया, जिसे भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने कार्यकाल के दौरान स्थापित किया था. जियाउल हक ने भारत के जासूसों को मरवा दिया, जबकि कुछ अन्य भागने में सफल रहे. दिलचस्प बात यह है कि श्रीमती इंदिरा गांधी के मजबूत राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टिकोण और एक सशक्त प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के आगमन के बावजूद, भारतीय सुरक्षा नीति गांधीवादी छाया से मुक्त नहीं हो सकी है.
1971 के युद्ध में पाकिस्तान को दो टुकड़ों में तोड़ने के बाद भी हम पीओके के मुद्दे को सुलझाने में नाकाम रहे, जब भारत के पास पाकिसान के 93,000 जवान बंदी थे. और तो और, भारत ने 1971 के युद्ध में जीते हुए सिंध प्रांत के जीते हुए क्षेत्र भी शिमला करार में वापस कर दिए. इससे पहले लाल बहादुर शास्त्री ने भी ताशकंद समझौते के तहत 1965 के युद्ध में जीते हुए पाक क्षेत्रों को वापस दे दिया था.
आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर भी भारत ने गांधी-नीति के प्रभाव में कई गलतियाँ की हैं, विशेषकर इस्लामिक कट्टरपंथी अति बहाबी तत्वों से निपटने में. उदाहरण के तौर पर 2014 में मोदी सरकार आने के बाद भारत ने तबलीगी जमात के 10 हजार विदेशी प्रचारकों को भारत में आने और वहाबी प्रचार करने की अनुमति दी. यह सब इसके बावजूद हुआ, जबकि भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र को इस बात की पूरी जानकारी थी कि तबलीगी जमात विश्व का सबसे बड़ा वहाबी आन्दोलन है, जो दुनिया के 150 से अधिक देशों में फैला हुआ है और इस्लामिक उम्मा (विश्व इस्लामिक भाईचारे) का प्रचार करता है जो राष्ट्रवाद के विचार के विरुद्ध है. यह स्थिति एक राष्ट्रवादी सरकार के राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टिकोण में कमी का प्रमाण है.
याद रहे कि मोदी और शाह ने इस्लामिक कट्टरपंथियों की योजनाओं पर एक के बाद एक अनेक प्रहार किये. पहले आसाम और उत्तरप्रदेश के चुनाव जीते, जहां इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा यह माना जाता था कि भाजपा ये दोनों प्रदेश कभी भी जीत नहीं पाएगी. फिर इन दोनों ने जम्मू-कश्मीर को धारा-370 से मुक्त किया. कट्टरपंथियों को तीसरा बड़ा झटका तब लगा, जब मोदी सरकार ने राम-मंदिर मुद्दे को न्यायायिक समाधान देने में अहम् भूमिका निभाई. इसके बाद ही शाहीनबाग़ का षड्यंत्र, जो मोदी और शाह को घेरने की एक चाल थी, इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा रचा गया. राम मंदिर की 500 साल पुरानी समस्या का समाधान. और धारा 370 को हटाना राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर मोदी सरकार की प्रतिबद्धता का प्रमाण था. यह आज की राजनीतिक परिस्थितियों की दृष्टि से अकल्पनीय था. इन निर्णयों ने मोदी और शाह को भारतीय इतिहास के स्वर्णाक्षरों में दर्ज कर दिया है. सावरकर-बोस दृष्टि के अभाव के कारण भाजपा सरकार ने शाहीनबाग़ मुद्दे को बहुत हल्के तरीके से लिया. जहां नरमपंथी मुसलमानों को साथ रखते हुए कट्टरपंथी और अतिवादी मुसलामानों को शाहीनबाग मुद्दे पर घेरा जा सकता था, वहां भाजपा ने दिल्ली चुनाव को हिन्दू-मुस्लिम मुद्दा बना कर जीतने का प्रयास किया. इसके कारण नरमपंथी और कट्टरपंथी दोनों एकजुट हो गए. यह सावरकर-बोस के राष्ट्रीय सुरक्षा-सिद्धांत के पूर्णत: विरुद्ध था.
हालांकि, राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर भारत पिछले कई दशकों की तुलना में कहीं बेहतर स्थिति में है, लेकिन यह तथ्य पिछली सरकारों की तरह बना हुआ है कि मोदी सरकार भी पाकिस्तान या चीन पर भारत के खिलाफ अपराधों के लिए पर्याप्त नुकसान निर्धारित करने में विफल रही है. शत्रु देशों से हुई नुकसान की भरपाई कराने के मामले में इस्रायल का उदाहरण सटीक है. भले ही भारत ने पुलवामा हादसे का पाकिस्तान से बदला लिया हो, लेकिन सब प्रयासों के बावजूद पाकिस्तान आतंकी देश घोषित नहीं हो सका है. जम्मू-कश्मीर में पाक प्रायोजित आतंकी हमले जारी हैं. स्पष्ट रूप से, भारत की सुरक्षा दृष्टि में कुछ गड़बड़ है और आंतरिक और बाहरी दोनों तरह से इसे ठीक करने की तत्काल आवश्यकता है.
गांधी जी की विचारधारा : राष्ट्रीय सुरक्षा में अवरोध
आखिर भारत को कमजोर सुरक्षा नीति से बाहर निकालने का रास्ता क्या है? यह स्पष्ट है कि गांधी जी के योगदान ने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत को बहुत अधिक श्रेय दिलाया है. राष्ट्रीय मंच पर उनके समाज सेवा के मॉडल और स्वदेशी, ग्राम स्वराज की उनकी दृष्टि जो गांवों को आत्मनिर्भर बनाने की बात करती है, दलितोद्धार और स्वच्छता का उनका प्रयास आज भी अनुकरणीय है. लेकिन यह भी उतना ही सच है कि सम्पूर्ण अहिंसा और हिन्दुओं की कीमत पर हिन्दू-मुस्लिम एकता की उनकी विचारधारा ने मुस्लिम लीग को विभाजन के लिए प्रेरित किया. इतना ही नहीं, बल्कि गांधीवाद के इर्द-गिर्द बुने गए विभिन्न नारों के नाम पर स्वतंत्र भारत में पैन-इस्लामिक तत्वों ने अपने स्वयं के एजेंडे को आगे बढ़ाया. यही कारण है कि शाहीनबाग सहित पूरे भारत में और यहां तक कि विदेशों में शाहीनबाग़ के नाम पर हुए हर प्रदर्शन में पहली तस्वीर गांधी जी की होती थी. इसलिए यह स्पष्ट है कि हिन्दू-मुस्लिम एकता का गांधी मॉडल बहुसंख्यक समुदाय को ब्लैकमेल करने का एक औजार ही है……क्रमशः