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अमृत महोत्सव – ब्रिटिश ईसाईयों के विरुद्ध बस्तर के जनजातियों की भूमकाल क्रांति और उसके नायक वीर गुण्डाधुर

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जब देशभर के क्रांतिकारियों द्वारा ब्रिटिश ईसाइयों के विरुद्ध स्वाधीनता का बिगुल फूंका जा रहा था, उस दौरान क्रांति की लौ केवल महानगरों एवं नगरों तक ही सीमित नहीं थी. क्रांति के इस काल में बस्तर के जनजातियों ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था.

ब्रिटिश ईसाईयों के विरुद्ध बस्तर में भूमकाल क्रांति उठी, और इस क्रांति के नायक थे वीर गुण्डाधुर. बस्तर में जनजातियों को एकजुट कर उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में हिस्सा लिया था. उनके साथ समाज का प्रत्येक वर्ग उठ खड़ा हुआ था और जिस तरह देश में नेताजी सुभाषचंद्र बोस को माताएं अपनी संतानें सौंप रही थीं, ठीक उसी तरह बस्तर में भी लोग अपने बच्चों को गुण्डाधुर के साथ क्रांति में शामिल कर रहे थे.

वर्ष 1909-1910 में हुई इस क्रांति के दौरान उनके नेतृत्व और बलिदान की गाथा का स्मरण करने के लिए प्रत्येक वर्ष 10 फरवरी को भूमकाल दिवस के रूप में मनाया जाता है.

अमर बलिदानी वीर गुण्डाधुर ऐसे महानायक हैं, जिन्होंने स्वाधीनता के 37 वर्ष पूर्व सुदूर वनांचल बस्तर क्षेत्र में जनजातियों के स्वाभिमान, आत्मसम्मान और मातृभूमि के लिए ब्रिटिश ईसाईयों से लोहा लिया था.

दरअसल, इस क्रांति का बीज वर्ष 1891 में पड़ा था, जब ब्रिटिश ईसाईयों ने बस्तर के तत्कालीन राजा रुद्र प्रताप देव के चाचा कालेन्द्र सिंह को दीवान पद से हटा दिया था. इसके बाद ब्रिटिश ईसाईयों के इशारे पर स्थानीय जनजातियों के जल, जंगल और जमीन का दोहन करते हुए जनजातियों और स्थानीय निवासियों का शोषण करना शुरू कर दिया.

इसके बाद कालेन्द्र सिंह ने सूत्रधार की भूमिका निभाते हुए स्थानीय जनजातियों को संगठित किया, जिसमें सभी वर्ग के लोग शामिल थे, और वीर गुण्डाधुर के नेतृत्व में ब्रिटिश ईसाईयों के विरुद्ध सशस्त्र भूमकाल क्रांति की तैयारी शुरू की गई.

इस दौरान गुण्डाधुर द्वारा योजना बनाई गई और “लाल मिर्च लिपटी आम की टहनी”, जिसे ‘डारा मिरी’ कहा जाता था, उसके माध्यम से पूरे क्षेत्र में भूमकाल क्रांति के संदेश का प्रचार किया गया. फरवरी 1910 में पूरे बस्तर क्षेत्र में क्रांति फैल चुकी थी और देखते ही देखते आदोलनकारियों ने जगदलपुर छोड़कर शेष बस्तर के अधिकांश क्षेत्रों में अधिकार हासिल कर लिया. धनुष, भाला और फरसा लिए स्थानीय लोग ब्रिटिश ईसाइयों के बंदूकधारी सिपाहियों को भगाने में लगे हुए थे.

जनजातियों की एकजुटता को देखकर ब्रिटिश ईसाईयों को इस बात का आभास हो गया था कि गुण्डाधुर के कुशल नेतृत्व में लड़ रहे आंदोलनकारियों से लड़ पाना आसान नहीं है.

इसके बाद ब्रिटिश ईसाईयों की सेना की कमान संभाल रहे कैप्टन ने हाथ में मिट्टी लेकर कसम खाई कि वनवासी यह लड़ाई जीत चुके हैं और अब शासन-प्रशासन उनके हिसाब से ही चलेगा.

इसके बाद सभी क्रांतिकारी अलनार में एकत्रित होकर जीत का उत्सव मना रहे थे, तभी ब्रिटिश ईसाईयों ने उन पर रात के समय छिपकर हमला कर दिया. इस हमले में कई नागरिक मारे गए. लेकिन बावजूद इसके ब्रिटिश ईसाई गुण्डाधुर को पकड़ने में असफल रहे.

अंततः ब्रिटिश ईसाईयों को गुण्डाधुर की फाइल इस टिप्पणी के साथ बंद करनी पड़ी – ‘कोई यह बताने में समर्थ नहीं है कि गुण्डाधुर कौन था.’

वर्तमान में भारत अपनी स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है. इस अवसर पर गुमनाम बलिदानी क्रांतिकारियों का स्मरण भू किया जाना चाहिए. उनके बलिदान की कहानी युवा पीढ़ी तक पहुंचनी चाहिए. भूमकाल क्रांति और गुण्डाधुर के बलिदान जैसी अनेक कहानियों को युवा पीढ़ी तक पहुंचाना है.

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