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अमृत महोत्सव – चतुर्भुज रूप धारण करने वाले वीरवर कल्ला

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दुख भंजक वीर कल्ला जी राठौड़ मेड़ता निवासी थे. कल्ला जी का जन्म युगाब्द ४६४६ (विक्रमी 1609) की दुर्गाष्टमी को हुआ था. कल्ला जी मेड़ता के राव जयमल के छोटे भाई आस सिंह के पुत्र थे. भक्तिमती मीराबाई उनकी बुआ थी. कल्ला जी का बचपन मेड़ता में ही बीता. वहीं उन्होंने युद्ध शास्त्र की शिक्षा प्राप्त की और तरुणाई की अवस्था तक आते-आते हर तरह के अस्त्र-शस्त्र को चलाने में प्रवीण हो गए. कल्ला जी अपनी कुलदेवी नागनैछा जी के बड़े भक्त थे. उनकी आराधना करते हुए उन्होंने योगाभ्यास भी किया. इसी के साथ औषधी – विज्ञान की शिक्षा प्राप्त कर वे कुशल चिकित्सक हो गए थे. उनके गुरु श्री योगी भैरवनाथ थे.

मुगल आक्रमणकारी अकबर ने जब मेड़ता पर हमला किया तो कई दिनों तक राव जयमल, आस सिंह तथा कल्ला जी ने विदेशी हमलावरों को सामना किया. उस समय मेवाड़ संपूर्ण भारत के स्वतंत्रता प्रेमियों का केंद्र बना हुआ था. अत: अकबर की घेराबंदी से निकलकर मेवाड़ की शक्ति बढ़ाने के उद्देश्य से राव जयमल परिवार सहित चित्तौड़ पहुंच गए. चित्तौड़ के महाराणा वीरों का सम्मान करना जानते थे. राव जयमल का स्वागत करते हुए उन्हें बदनोर की जागीर दी. कुंवर कल्ला को भी उन्होंने रणढालपुर की जागीर प्रदान की. महाराणा उदय सिंह की पैनी दृष्टि ने कला की योग्यता को पहचान लिया और इसलिए उन्हें गुजरात की सीमा से लगे क्षेत्र का प्रमुख तय किया.

बप्पा रावल के समय से ही भील मेवाड़ के रक्षा – कवच के रूप में काम कर रहे थे, किंतु रणढालपुर का भील समुदाय असंतुष्ट होकर उपद्रव करने लगा था. वीरवर कल्ला जी ने बड़ी कुशलता से समझा-बुझाकर पुन: भीलों को अनुकूल बनाया. इसके बाद उन्होंने मेवाड़ की सीमाओं की सुदृढ़ मोर्चाबंदी की. उनके रहते हुए गुजरात के सुल्तान की मेवाड़ की और आंख उठाने की भी हिम्मत नहीं हुई.

24 फरवरी 1568, विदेशी आक्रमणकारी अकबर की सेना को चित्तौड़ के रणबांकुरों से दो-दो हाथ करने में पसीना आ रहा था. लंबे समय तक युद्ध करते-करते मेवाड़ी सैनिकों की संख्या भी बहुत कम रह गई थी. सेनापति जयमल राठौड़ पैरों में गोली लगने से घायल थे. उनकी युद्ध करने की बड़ी तीव्र इच्छा थी, किंतु उठा नहीं जा रहा था. वह अपने स्थान पर लेटे हुए अकुला रहे थे. यह सब कल्ला जी राठौड़ से देखा नहीं गया. उन्होंने जयमल के दोनों हाथों में तलवारें दीं और उन्हें अपने कंधे पर बिठा लिया. उसके बाद राठौड़ कल्ला ने स्वयं भी दोनों हाथों में तलवारें ले लीं. चारों तलवारें बिजली की तरह चलने लगी और मुगलों के शव जमीन पर लेटने लगे. हाथी पर सवार अकबर ने दूर से देखा तो चकरा गया. एक मनुष्य के दो सिर और चार हाथ ! उसने भारत के देवी देवताओं के किस्से सुन रखे थे. या खुदा – यह भी कोई दो सिर और चार हाथ वाला देव है क्या ? उसने घबराते में मन में सोचा.

जयमल और कल्ला ने उस दिन अद्भुत वीरता दिखाई थी. जिस तरफ भी वह निकल जाते, दुश्मनों का सफाया हो जाता. बहुत देर तक युद्ध करने के बाद जयमल बुरी तरह घायल हो गए. कल्ला भी अपने काका को बहुत देर तक कंधों पर बिठाए रखने के कारण थक गए थे. मौका देखकर उन्होंने जयमल को नीचे उतारा और योग – बल से उनकी चिकित्सा करने लगे. तभी एक शत्रु सैनिक ने पीछे से वार कर उनका मस्तक काट दिया. माथा कट जाने के बाद भी उनका कबंद बहुत देर तक मुगलों से युद्ध करता रहा. मातृभूमि की रक्षा के लिए हुए कल्ला जी के इस बलिदान ने उनकी कीर्ति में चार चांद लगा दिए.

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