नई दिल्ली. कोरोना वैश्विक महामारी समूची दुनिया को बदल रही है, पहाड़ की जवानी और पहाड़ का पानी वापस न लौटने के मुहावरे तथा “सूर्य अस्त और पहाड़ मस्त” जैसी प्रचलित लोकोक्ति भी असत्य सिद्ध हो रहे हैं. मजबूरी में रोटी की तलाश में अपना गांव घाटी छोड़ सात समन्दर पार और देश के महानगरों में गए नौजवानों की घर वापसी में कोरोना के लॉकडाउन की बड़ी भूमिका है.
इन 2-3 महीनों में केवल प्रकृति ही अपने मूल रूप में नहीं लौटी है, बल्कि देवभूमि के लोग भी सारे व्यसनों और बुराइयों से मुक्त होकर “आत्मनिर्भर भारत” के संकल्प को सार्थक करने में जुटे हैं. कहीं ग्रामीणों ने सामूहिक श्रमदान द्वारा लम्बी सड़कें तैयार कर ली हैं, कहीं पानी की लाइन और परम्परागत जलस्रोत को जीवित किया है तो कहीं प्रवासी कामगार के रूप में अपने गाँव लौटे प्रतिभाशाली युवा अपनी विशेषज्ञता के क्षेत्र में ही अन्य लोगों को प्रशिक्षण व सहयोग देकर आत्मनिर्भर होने का मन्त्र दे रहे हैं.
आपदा को अवसर में बदलकर आत्मनिर्भर भारत की सैकड़ों कथाएं बन चुकी हैं, ऐसी ही गौरवमय कथा उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के ग्राम ठांडी निवासी टीकाराम पंवार की है जो आठ साल तक दुबई के एक होटल में शेफ रहे, लॉकडाउन हुआ तो अपने गाँव लौट आए. प्रतिभा तो थी ही, फिर मन में ठान ली कि कुछ विशेष और सबसे अलग ही करना है और वो भी अपने गाँव में रहकर ही. टीकाराम ने बचपन की अपनी पसंदीदा लिंगुड़ा की सब्जी को नहीं भूले थे. भारत में लिंगुड़े का उपयोग सामान्यतः सब्जी बनाने में ही किया जाता है, किन्तु अन्य देशो में लिंगुड़े के अचार व सलाद के रूप में बड़ी मांग रहती है. मन में यह निश्चय कर लिया कि बाहरी देशों की तरह लिंगुड़े की सब्जी बनाने के बजाय अचार बनाने का उद्यम शुरू किया जाए.
यह मार्च से जुलाई के मध्य लगभग 1900 से 2900 मीटर समुद्र तल से ऊपर की ऊचांई पर पाया जाता है. विश्वभर में लिंगुड़ा की लगभग 400 प्रजातियां पाई जाती हैं. समूचे एशिया, ओसियानिया के पर्वतीय इलाकों में नमी वाली जगहों पर पाया जाता है. यह वानस्पतिक सब्जी भारत के हिमालयी राज्यों-हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, असम और सिक्किम के साथ ही चीन, जापान, मलेशिया, फिलीपींस और थाईलैंड में भी भरपूर मात्रा में पाई जाती है.
उत्तराखण्ड में यह लिंगुड़ा, हिमाचल प्रदेश में लिंगरी, असम में धेंकिर शाक, सिक्किम में निंगरु, बंगला में पलोई साग के नाम से तो मलेशिया में इसे पुचुक पाकू और पाकू तांजुंग कहा जाता है तो फिलिपीन्स में ढेकिया और थाईलैंड में इसे फाक खुट कहते हैं. गर्मियों और बरसात के मौसम में लिंगुड़ा यहाँ की नदियों और गाड-गदेरों में प्रचुर मात्रा में होता है.
परम्परागत वैद्यों द्वारा लिंगुड़ा का आयुर्वेदिक औषधि के रूप में प्रयोग होता रहा है और आधुनिक डॉक्टरों का भी मानना है कि लिंगुड़ा शूगर व दिल के मरीजों के लिए रामबाण औषधि है. लिंगुड़ा में फेट्स और वसा बिलकुल नहीं होता और न ही कोलेस्ट्रॉल होता है, इसलिए यह हार्ट के मरीजों के लिए बहुत लाभदायक होता है.
उत्तराखंड में स्थानीय लोग प्राकृतिक रूप से उपजी इस वनस्पति की अधिकांशतः सब्जी ही बनाते हैं तो विदेश से आए विशेषज्ञ टीकाराम की अचार बनाने की योजना उनके गले कैसे उतरती, टीकाराम ने अलग-अलग तरह से रेसेपी के प्रयोग जारी रखे. उनके संकल्प को सिद्धि तक पहुंचाने का कार्य किया ‘जाड़ी’ संस्थान के अध्यक्ष द्वारिका सेमवाल ने. उन्होंने अचार की आपूर्ति और मार्केटिंग सुलभ करवाने का भरोसा दिया. फिर क्या था – अपनी कला में निपुण और प्रधानमंत्री के आत्मनिर्भर भारत के मन्त्र से प्रभावित टीकाराम ने स्वच्छता और गुणवत्ता के साथ रेसिपी तैयार की, जिसकी चर्चा ऐसी फ़ैली कि सात समन्दर पार दुबई से लौटे अपने शेफ से स्थानीय लोग अचार बनाने की विधि, प्रक्रिया और प्रशिक्षण लेने लगे. युवा टीकाराम पंवार की भी यही चाह थी.
इस तरह लॉकडाउन में अपने गाँव लौटकर लिंगुड़े के अचार को न केवल टीकाराम पंवार ने अपनी जीविका का आधार बना दिया, बल्कि पूरे गाँव और इलाके को आत्मनिर्भर होने का रास्ता दिखा दिया.
टीकाराम ने कई लोगों को रोजगार दिया. अब तक लगभग 80 किलो से ज्यादा अचार बना चुके टीकाराम के साथ ही अन्य ग्रामवासी और क्षेत्र के लोग भी अचार बिक्री के सोपान तक पहुँच चुके हैं, बाजार में यह अचार हाथों हाथ बिक रहा है. इस प्रकार टीकाराम लिंगुड़ा का अचार बनाकर आत्मनिर्भर बन गए हैं, उन्होंने कई ग्रामीणों को रोजगार भी दिया है. टीकाराम यहीं रुकने वाले नहीं हैं, वे पहाड़ के दूसरे परम्परागत उत्पादों जो शरीर और स्वास्थ्य के लिए उपयोगी हैं, उनको भी नए रूप में नवोन्मेष के साथ शुरू करने की योजना बना रहे हैं, ताकि गांव में रहकर ही रोजगार के अवसर पैदा किए जा सकें और “लोकल के लिए वोकल’ होकर आत्मनिर्भर भारत का नारा सार्थक हो सके.