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चीनी अतिक्रमण और भारतीय राजनीति – एक

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    –  रवि प्रकाश   

चीन का चरित्र एक बार फिर सुर्ख़ियों में है. इसके साथ ही सुर्ख़ियों में है भारत की राजनीति का चरित्र. एक ओर जहाँ चीन के चरित्र में षड्यंत्र, प्रपंच, भौगोलिक साम्राज्यवाद और धोखा परिलिक्षित होता है, वहीं भारत की राजनीति के चरित्र में सरकार पर आक्रमण करने के लिए विदेशी आक्रान्ता तक के गुणगान करने की राष्ट्रघाती प्रवृत्ति परिलक्षित होती है. लद्दाख की गलवान घाटी स्थित भारत-चीन सीमा पर जो कुछ अभी हुआ है, उसको लेकर प्रधानमंत्री, नरेन्द्र मोदी के प्रति व्यक्तिगत अंध-विरोध से उत्पन्न भारतीय राजनीति में विपक्ष की ओर से, भारत के पड़ोसी देशों की ओर से, वैश्विक राजनीति में हस्तक्षेप की हैसियत रखने अमेरिका, रूस आदि जैसी बड़ी ताकतों की ओर से तथा अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की ओर से अलग-अलग बातें कहीं जा रहीं हैं. इस बीच प्रधानमन्त्री द्वारा आहूत सर्वदलीय बैठक में प्रधानमन्त्री द्वारा तथा उसके बाद प्रधानमन्त्री कार्यालय के वक्तव्य द्वारा सीमा पर मौजूदा हालात के बारे में स्थिति स्पष्ट की जा चुकी है और देश को सीमाओं की सुरक्षा हर हाल में करने का भरोसा दिलाया गया है. तथापि, बैठक में आक्रामक चीन के विरुद्ध भारत की संप्रभुता और सीमा की हिफाजत के लिए सरकार को पूर्ण समर्थन-सहयोग देने के वादे के बावजूद, बैठक के बात सोशल मीडिया से लेकर राजनैतिक गलियारों तक भिन्न-भिन्न तर्कों-कुतर्कों के माध्यम से सरकार पर हमले हो रहे हैं. यहाँ तक कि कतिपय प्रतिक्रियाओं में चीन की तरफदारी की झलक भी मिलती है. ये सारी घटनाएँ गंभीर बहस की माँग करतीं हैं. यह बहस इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि देश की सबसे पुरानी और वर्तमान में सबसे बड़े विपक्षी दल के शीर्ष नेता द्वारा तथ्यों की उपेक्षा करते हुए और छिपाते हुए गलवान घाटी में सेना के निहत्थे होने को लेकर सवाल खड़े किये गए. भारत-चीन संबंधों के प्रति पूर्ववर्ती सरकारों के रुख और चीन की हरकतों के इतिहास से निर्लिप्त होकर राष्ट्र हित को नजरअंदाज करते हुए, महज सरकार को घेरने के उद्देश्य से खतरनाक बातें की जा रही हैं और इस तरह पूरे देश में भ्रम और असमंजस की भावना पैदा करने की कोशिश की गयी. लेकिन इस बहस की दिशा में बढ़ने से पहले चीन के व्यवहार का एक पुनरावलोकन ज़रूरी है.

भारत अपने वर्तमान स्वरुप में हो, मध्ययुगीन का रहा हो या प्राचीन काल का, इतिहास में पश्चिम और उत्तर से अनेक आक्रान्ता, इस भूभाग में आते रहे. लेकिन इधर से उत्तर या पश्चिम के और आक्रान्ता के रूप में कदम बढ़ाने का इतिहास नहीं है. बेशक, इस भूभाग से प्रेम, शान्ति, सद्भाव और मुक्ति का सन्देश लेकर चारों दिशाओं में लोगों ने प्रयाण किया. वहीं, अगर चीन के लगभग ढाई हज़ार वर्षों का इतिहास टटोलें तो शांग, किन-हान, सुई-टांग, मिंग, क्विंग से लेकर आज के आधुनिक चीन तक, इसके आक्रमणों, युद्धों का लंबा और सिलसिलेवार अध्याय भरे मिलते हैं. हम पाते हैं कि चीन की राजनैतिक संस्कृति अपने स्वभाव में ही छल और धोखे से भरी आक्रमणकारी संस्कृति रही है. चीन के इसी स्वभाव का परिणाम है कि एक कम्युनिस्ट शासित देश होने के बाजवूद, यह सोवियत संघ और वियतनाम के साथ भी युद्ध करने से स्वयं को रोक नहीं पाया. 1937 में जापान से करारी हार के बाद चियांग-काई-शेक ने बाहर से जापान और भीतर से कम्युनिस्टों के दोहरे मोर्चे पर स्थिति संभालने में असमर्थता के कारण कम्युनिस्ट विद्रोहियों के नेता माओ-त्से-तुंग के साथ शान्ति संधि की और समर्थन माँगा. जिसके बाद कम्युनिस्टों को चीन की सैन्य व्यवस्था में घुसपैठ करने का अवसर मिला और माओ-त्से-तुंग ने इस अवसर का भरपूर रणनीतिक प्रयोग करते हुए गृह युद्ध के रास्ते 01 अक्तूबर 1949 को चीनी जनवादी गणराज्य की स्थापना की घोषणा कर दी. सत्ता पर अधिकार स्थापित करने के तुरंत बाद से चीन ने अपनी विस्तारवादी नीति पर अमल आरम्भ कर दिया. यह इतनी तेजी से हुआ कि एक साल बीतते-बीतते चीन ने एक स्वतंत्र राष्ट्र तिब्बत पर कब्जा कर लिया. भारत के सन्दर्भ में भारत-चीन संबंधों का निर्णायक मोड़ इसी के बाद आरम्भ होता है.
यह एक ऐसा मोड़ था, जहाँ खड़े होकर भारत के तत्कालीन गृहमंत्री, सरदार वल्लभ भाई पटेल की दूरदृष्टि और प्रधानमंत्री पंडित जवाहल लाल नेहरु की दृष्टि में जमीन और आसमान का फर्क था. यद्यपि आज कांग्रेस के सांसद राहुल गाँधी भले ही प्रश्न कर रहे हों, लेकिन पंडित नेहरु की दृष्टि पर अमल और सरदार पटेल की दूरदृष्टि की उपेक्षा से भारत को जो नुकसान हुआ, उसी नुकसान में आज के चीनी अतिक्रमण और भविष्य के उपायों के बीज छिपे हैं.

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हुआ कुछ ऐसा कि 1950 में ही तिब्बत के मामले पर चीन के रवैये और चीन में तत्कालीन भारतीय राजदूत की मानसिकता को लेकर पंडित नेहरु को संबोधित अपने पत्र में सरदार पटेल ने संदेह व्यक्त किया था कि चीन हमारे राजदूत के मन में यह विश्वास भरने में सफल हुआ है कि वह (चीन) तिब्बत मामले को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाना चाहता है. असल में चीन के रवैये पर कड़ा रुख अख्तियार करने के बजाय भारत के राजदूत ने भारत की ओर से एक तरह माफी माँगते हुए चीन के समक्ष भारत का पक्ष रखा था. सरदार पटेल ने बड़े स्पष्ट शब्दों में पंडित नेहरु को बताया था कि किस प्रकार चीन एकजुट शक्ति से संपन्न है और उसके मुकाबले हमारी उत्तरी और पूर्वोत्तर सीमा क्षेत्र में भारत की उल्लेखनीय जनसंख्या नस्ली और सांस्कृतिक तौर पर तिब्बती और मंगोलियाई नस्ल से बहुत भिन्न नहीं है. इस प्रकार सरदार पटेल के शब्दों में ऐसे संभावित मुश्किल सीमान्त क्षेत्र पर राजनैतिक विचार करें तो इसमें नेपाल, भूटान, सिक्किम (तब का स्वतन्त्र राष्ट्र), दार्जिलिंग और असम के जनजातीय इलाके आते हैं कि संचार के दृष्टिकोणों से ये कमजोर क्षेत्र में, कोई लगातार रक्षात्मक पंक्ति नहीं है, घुसपैठ की असीमित गुंजाईश है, महज कुछ दर्रों के लिए बहुत सीमित पुलिस सुरक्षा उपलब्ध है. इस पर भी हमारी सीमा-चौकियों पर पर्याप्त संख्या में सुरक्षा बल नहीं है. हालात का विवरण देते हुए गृहमंत्री, सरदार पटेल ने प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को कहा, “मेरी सोच के अनुसार हालात ऐसे हैं कि हम उनके प्रति न तो उदासीन हो सकते हैं, न दुविधा का शिकार हो सकते हैं. हमें यह निश्चित विचार बनाना ही होगा कि हम क्या हासिल करना चाहते हैं और उस पद्धति पर भी गौर करना होगा, जिसके जरिये हम वह सब हासिल करेंगे. हमारे उद्देश्य को तय करने में कोई हिचकिचाहट या सुनिश्चित निर्णय का अभाव निःसंदेह हमें कमजोर करेगा और खतरों को बढ़ाएगा, जो इतना स्पष्ट है.”

मैंने ऊपर सरदार पटेल के लिए “दूरदृष्टि” और पंडित नेहरू के लिए “दृष्टि” शब्द का प्रयोग सोच-समझकर किया है. इस समझ की पुष्टि सरदार पटेल के उपर्युक्त पत्र के बाद पंडित नेहरू द्वारा उठाये गये कदमों से होती है. कारगर उपाय करने के बदले, सैन्य शक्ति बढ़ाने के बदले, पूर्वोत्तर, उत्तर और पश्चिमी सीमाओं को सुरक्षित करने के लिए भूस्थैतिक कदम उठाने के बदले पंडित नेहरू ने दोस्ती और शान्ति-कपोत का सहारा लिया. बात थोड़ी तल्ख़ होगी, लेकिन यह मानने के अनेक कारण है कि सरदार पटेल जहाँ भारत की अखण्डता और सुदृढ़ता के लिए चिंतित थे, वहीं पंडित नेहरू अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में राजनीति विशारद के रूप में स्वयं को स्थापित करने के प्रति अधिक उत्सुक थे. तिब्बत को लेकर चीन-भारत के रिश्तों में घटनाक्रम के अनेक उतार-चढ़ाव की परिणति अंततः 1962 में चीनी आक्रमण के रूप में सामने आई. पटेल ने जिस उदासीनता की और इशारा किया था, वह सच साबित हुआ जैसा कि 1962 के युद्ध में अगली पंक्ति के सहभागी रहे लेफ्टिनेंट कर्नल जे.आर. सैगल ने तथ्य आधारित अपनी विवरणात्मक पुस्तक ‘द अनफॉट वॉर ऑफ़ 1962’ में दुःख व्यक्त किया है कि “युद्धों के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ था कि एक सुसंगठित, प्रशिक्षित और पर्याप्त रूप से सुसज्जित, शत्रु की मारक क्षमता से बेहतर मारक क्षमता से संपन्न और अपने देश की हिफाजत के लिए सुविधाजनक स्थिति में तैनात 15,000 अनुभवी जवानों की फौज बिना युद्ध किये देखते-देखते तिनकों की तरह बिखर गयी और भारत की इज्जत पर एक अमिट दाग लग गया.” पंडित नेहरु के बचकाना भरोसे और मनोगत भाववादी “पंचशील” के सिद्धांत की धज्जियाँ उड़ गईं…………क्रमशः

(लेखक भारत विकास परिषद के पश्चिमी क्षेत्र के रीजनल सेक्रेटरी – सेवा हैं)

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