डॉ. आयुष गुप्ता
नवीन राष्ट्रीय शिक्षा नीति, भारतीय दृष्टि एवं आवश्यकताओं के आधार पर तैयार एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है. भारत को मैकाले की लिपिकजनक (Clerical staff provider policy) नीति के प्रभाव से मुक्त करके विश्वगुरु बनाने की ओर अग्रसर कदम है. 10+2 की नीति से 5+3+3+4 की ओर गमन, शिक्षा में व्यापक मार्ग प्रशस्त करता है.
नीति के अन्तर्गत छात्र के मानसिक विकास की विविध अवस्थाओं एवं आवश्यकताओं का समावेश किया गया है. इसमें प्रथम 5 का अर्थ 3 वर्ष से 8 वर्ष की अवस्था, इसके अन्तर्गत छात्र की पूर्व प्राथमिक अर्थात L.K.G. से द्वितीय कक्षा तक के विकास की बात की गयी है. यह अवस्था छात्र के मानसिक विकास की सबसे पूर्वावस्था है, अतः अक्षरज्ञान एवं गणनाओं पर विशेष ध्यान देने पर जोर दिया गया है. अगला स्तर 8 से 11वर्ष की आयु अर्थात् तृतीय से पंचम कक्षा तक का है, इस अवस्था में छात्र को कुछ सामान्य विषय सम्बन्धी ज्ञान की अपेक्षा रहती है. इस अवस्था तक बच्चे का मानसिक विकास प्राकृतिक रूप से होता है, सामान्य समझ विकसित होती है, अतः मानसिक विकास के स्तर की दृष्टि से इस आयु वर्ग में उसे उस माध्यम से शिक्षा देना अधिक औचित्यपूर्ण प्रतीत होता है, जो उसकी समझ पर बोझ न बने. इस दृष्टि से 3 वर्ष से 12 वर्ष की आयु तक छात्र को वह सहज माध्यम अधिक उपयुक्त होता है जो उसे उसके वातावरण से जोड़ सके, अतः मातृभाषा वह सबसे अच्छा माध्यम है, जिसमें शिक्षा दी जा सकती है. तीसरा स्तर है 11 से 14 वर्ष की अवस्था कक्षा 6 से 8 का स्तर, इस स्तर में छात्र मानसिक एवं शारीरिक रूप से अपने जीवन काल में सबसे अधिक सक्रिय एवं स्फूर्त होता है. अतः इस समय में अध्ययन के साथ-साथ कौशल विकास का स्पर्श देना सबसे अधिक उपयुक्त होता है. अतः नई शिक्षा नीति में इस आयु वर्ग में कौशल विकास पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया गया है. शिक्षण अनुप्रयोगात्मक होना चाहिए. केवल पुस्तकीय ज्ञान आधारित अध्ययन सम्पूर्ण नहीं होता. कौशल विकास उसका पूरक है, जो उसे पूर्णता प्रदान करता है.
विद्यालयीन शिक्षा का चतुर्थ और अन्तिम चरण है 14 से 18 वर्ष अर्थात् कक्षा 9 से 12 तक का स्तर. इस स्तर पर कौशल एवं सामान्य पाठ्यक्रम का सम्मिलित रूप स्वीकृत किया गया है. यह इस संकल्पना का प्रमाण है कि विद्यालयीन शिक्षा केवल बोर्ड परीक्षा नहीं, अपितु समग्र व्यक्तित्व विकास है, जो तीन वर्ष की अवस्था से प्रारम्भ होता है. पूर्व-प्राथमिक शिक्षा भी शिक्षा का अत्यन्त महत्वपूर्ण अंग है. संविधान में मौलिक अधिकार, शिक्षा के अधिकार (Right to education) में 6 वर्ष से प्रारम्भ होने का विधान है, उसमें भी बदलाव कर 3 वर्ष करना अधिक औचित्यपूर्ण होगा.
यहां यह ध्यातव्य है कि संवैधानिक दृष्टि से संविधान निर्माताओं ने राज्य के नीति निदेशक तत्वों के प्रति जो दृष्टि रखी थी, यह शिक्षा नीति उस दृष्टि के अनुरूप भी है. अब इस नीति से 3 वर्ष से स्कूली शिक्षा का प्रारम्भ एवं उसका उचित क्रियान्वयन निश्चित तौर पर शिक्षा के अधिकार नामक संवैधानिक अधिकार में 6 के स्थान पर तीन वर्ष होगा. बच्चों के बड़े-बड़े बस्ते का बोझ कम करने में ये 5+3+3+4 का सूत्र सहायता करेगा. विद्यालयीन शिक्षा में 5+3+3+4 सूत्र एक समान एवं पूर्व प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर छात्र के समग्र विकास की भूमिका का निर्माण करता है. छात्रों के विद्यालय छोड़ने की दर को कम करने का प्रावधान, शिक्षण में आर्थिक एवं सामाजिक विभेद रहित शिक्षा की पहुंच उपलब्ध कराने, श्रेष्ठ एवं गुणवान अध्यापक नियुक्ति प्रक्रिया, कक्षा 5 तक मातृभाषा में शिक्षा, कौशल विकास परक शिक्षा आदि विशेषताएं इसे रटन्त विद्या से दूर प्रायोगिक रूप प्रदान करती हैं.
इसी प्रकार महाविद्यालय स्तर पर बहु वैषयिक विश्वविद्यालय (Multi disciplinary Universities), उदारवादी शिक्षा, राष्ट्रीय एवं राज्य शिक्षा आयोग जैसे प्रावधान शिक्षा के उच्च प्रतिमानों को स्थापित करने का एक प्रयास है. सकल घरेलू उत्पाद का शिक्षा में 6% व्यय एवं सार्वजनिक व्यय का लगभग 20% भाग शिक्षा पर व्यय करने का संकल्प एक महत्वपूर्ण एवं प्रशंसनीय निर्णय है. चूँकि शिक्षा नीति एक प्रपत्र है जो संकल्पनात्मक तौर पर किसी नीति के क्रियान्वयन हेतु तैयार किया जाता है.
संकल्पना के बाद किसी नीति का क्रियान्वयन एवं नियम ही इस कसौटी को तय करते हैं कि नीति कितनी प्रभावशाली है. अतः अब यह समय बहुत महत्त्वपूर्ण है कि हम क्रियान्वयन एवं नीति विषयक नियमों में अपने सुझावों को प्रेषित करें ताकि नीति का क्रियान्वयन औचित्यपूर्ण तरीके से हो सके.
(सहायक आचार्य, विश्वविद्यालय संस्कृत विभाग, तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार)