अध्यात्म साधना और शक्ति उपासना का संगम है दशमेश पिता का महाकाव्य
नरेंद्र सहगल
‘आज्ञा भई अकाल की – तबै चलायो पंथ’ की उद्घोषणा करने वाले दशमेश पिता गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज एक ऐसे देवपुरुष थे, जिनमें एक साथ धर्मयोद्धा, राष्ट्रवादी संत, सनातन भारतीय संस्कृति के भाष्यकार, अद्भुत संगठनकर्ता, समाज सुधारक और साहित्यकार के दर्शन किए जाते हैं. उनकी सभी गतिविधियां अकाल पुरुख के आदेशानुसार संपन्न हुईं और सृष्टि-संचालक परमात्मा को ही समर्पित रहीं.
भारतीय समाज की आत्मा उसका प्राचीन साहित्य है. वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत, एवं गीता इस प्रकार के भंडार को विदेशी आतताइयों ने समूल नष्ट करने के भरपूर प्रयास किए थे. तक्षशिला, नालंदा इत्यादि विश्वविद्यालयों के पुस्तकालय कई-कई महीने धू-धू कर जलते रहे.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने पुनः इसी साहित्य के साथ भारतीय समाज को जोड़ने के लिए एक ऐसा कवि मण्डल संगठित किया, जिसने इस सनातन साहित्य का हिन्दी एवं कुछ अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया. अपनी भाषा में साहित्य को पाकर समस्त भारतीयों ने एक बार फिर दशमेश पिता के रूप में श्रीराम, श्रीकृष्ण और आदि शक्ति माँ दुर्गा के दर्शन किए.
यद्यपि दशम् गुरु ने भक्ति एवं शक्ति को आधार बनाकर ही महान साहित्य का निर्माण किया, परंतु उनके द्वारा रचा गया वीररस का साहित्य तत्कालीन अधर्मी मुगल शासन के पतन का आधार बन गया. यही उस समय की परिस्थितियों की आवश्यकता थी. रणक्षेत्र के विजयी योद्धा गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन पर संस्कृत के वीररस प्रधान साहित्य का विशेष प्रभाव रहा.
रामायण, महाभारत, पुराण इत्यादि ग्रंथों में वर्णित देवताओं और असुरों के युद्ध, देवी दुर्गा द्वारा राक्षसों का संहार, श्रीराम द्वारा राक्षस राज रावण का अंत, श्रीकृष्ण द्वारा कंस रूपी अत्याचारी शासक का वध इत्यादि अध्ययन ने गुरु को गोबिंद राय से गोबिंद सिंह जी बना दिया. यह सनातन साहित्य तथा विधर्मी शासकों के अत्याचार ही वास्तव में खालसा पंथ के निर्माण में प्रेरक सिद्ध हुए.
दशम गुरु द्वारा रचित वीरतापूर्ण रचनाओं ने देशभक्ति और राष्ट्रीयता की प्रचंड लहर चलाई. परिणाम स्वरूप खालसा पंथ के संत सिपाहियों ने कृपाण के जोर से अत्याचारी मुगलिया सल्तनत के परखच्चे उड़ा दिए. आइए, उस वीरतापूर्ण साहित्य का संक्षिप्त परिचय प्राप्त करें, जो आज भी अधिकांश भारतीयों के दिलों में धड़कता है. इसे ‘खालसा’ का दीक्षामंत्र भी कहा जा सकता है.
दशम श्रीगुरु द्वारा रचित चण्डी दी वार, चौबीस अवतार, रामावतार, कृष्णावतार, ज्ञान-प्रबोध और अकाल स्तुति इत्यादि में उनके शत्रु संहारक वीर योद्धा के स्वरूप को समझा जा सकता है. अकाल स्तुति में उन्होंने चण्डी की वंदना इस प्रकार की है…
दुरजन दल दंडन असुर विहंडन, दुष्ट निकंदण आदि ब्रिते.
चहरासुर मारण पतित उधारण, नरक निवारण गुढ़ गते.
उछै अखंडे तेज प्रचंडे, खंड उदंडे अलख मते.
जै जै होसी मइखासुर मरदिनि, संभकमरदिन छत्र छिते.
दशमेश पिता का अधिकांश जीवन रणक्षेत्र में ही बीता. इसलिए उनके साहित्य में युद्ध का वर्णन अधिक है. अपनी कालजयी रचनाओं चण्डी चरित्र, रामावतार एवं कृष्णावतार में उन्होंने अधर्म के विरुद्ध धर्मयुद्ध को ही विशेष स्थान दिया है. उस समय के भीरु, कुंठित और हीन भावना से ग्रस्त समाज में सैन्य भाव भरने का यही एकमेव मार्ग था.
गुरु जी द्वारा रचित उनकी आत्मकथा बचित्र नाटक में स्वयं उनके द्वारा किए गए युद्धों का प्रेरणादायक एवं सजीव वर्णन है. यह सारे युद्ध विधर्मी शासन के विरुद्ध लड़े गए थे. इस संदर्भ में खालसा पंथ के संस्थापक को एक महान स्वतंत्रता सेनानी कहने में कोई भी अतिश्योक्ति नहीं होगी. अपनी आत्मकथा को बचित्र नाटक की संज्ञा देकर उन्होंने अपने संघर्षमय जीवन का परिचय दिया है.
दुष्टों का नाश करने वाले इस अनुपम योद्धा का जन्म पटना (बिहार) में हुआ, पंजाब में शैशवकाल बीता और युद्ध क्षेत्र उत्तर भारत बना और दक्षिण भारत में जाकर जोति-जोत समा गए. वास्तव में खालसा पंथ की सिरजना करने वाले इस धर्मयोद्धा का कर्मक्षेत्र लगभग सारा भारत ही था और भारत की स्वतंत्रता के लिए ही उन्होंने अपने पिता, पुत्रों और स्वयं को बलिदान पथ पर अग्रसर कर किया.
बचित्र नाटक में वर्णित सभी युद्ध कथाओं में शस्त्र संचालन और रण कुशलता का सहज ही आभास होता है. डॉक्टर जय भगवान गोयल अपनी पुस्तक ‘गुरु गोबिंद सिंह जी का वीर काव्य’ के पृष्ठ 5 पर लिखते हैं –
“इस रचना (बचित्र नाटक) का उद्देश्य केवल मात्र आत्माभिव्यक्ति अथवा आत्मप्रकाश नहीं है, आत्म विज्ञापन तो बिल्कुल भी नहीं. बलिदानी के पुत्र और बलिदानी पुत्रों के पिता शिरोमणि योद्धा गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस काव्य ग्रंथ की रचना भी असहाय एवं निराश भारतीय जनता में जातीय स्वाभिमान, राष्ट्रप्रेम और धर्मरक्षा के लिए उच्च भावों को जाग्रत करने एवं उत्तेजित करने के महान उद्देश्य से ही की है.”
दशमेश पिता द्वारा रचित काव्य ग्रंथ ‘चण्डी चरित्र’ में देवताओं एवं असुरों के मध्य हुए युद्धों का सजीव वर्णन है. जैसा कि पिछले लेखों में कहा गया है कि गुरु जी ने सभी युद्ध स्वयं के राज्य स्थापित करने के लिए नहीं किए और ना ही किसी को नीचा दिखाने के लिए. यह युद्ध वास्तव में धर्मयुद्ध थे जो धर्म की स्थापना के लिए ही थे.
अधर्म, असत्य और मजहबी तानाशाही को समाप्त करने के लिए रणक्षेत्र को अपना कर्मक्षेत्र बनाने वाले दशमेश पिता अपनी रचना चण्डी चरित्र में कहते हैं –
देहि शिवा वर मोहि इहै शुभ करमन तैं कबहु न डरौं.
न डरौं अरिसौं जब जाई लरौं निसचै कर अपनी जीत करों..
अरु सिक्ख हौं अपुने ही मन को इह लालच हउ गुण तउ उच्चरौं.
जब आव की आउध निधान बने अति ही रन में तब जूझ मरों..
“वस्तुत: गुरु गोबिंद सिंह जी की शक्ति-भावना उनकी युग चेतना, राष्ट्रीय जागरण, संस्कृति की चेतनता और वीरभावना की परिचायक है और सिक्ख पंथ की आध्यात्मिक चिंतनधारा के सर्वथा अनुकूल है. इसी तरह दशम गुरु द्वारा रचित ‘चौबीस अवतार’ में भारत की सनातन संस्कृति की विशालता को पूर्ण दर्शाया गया है. ब्रह्मा, विष्णु, महेश के सभी अवतारों का विस्तार पूर्वक व्याख्यान किया गया है. इन सभी व्याख्यानों में युद्ध कथाओं का वर्णन विशेषरूप से किया गया है.”
अपनी रामावतार रचना में गुरु जी ने श्रीराम के शत्रु-संहारक रूप को प्रमुखता से कहा है. डॉ. महीप सिंह ने अपनी ‘गुरु गोबिंद सिंह और उनकी कविता’ में लिखा है – “तुलसी के राम मर्यादा पुरुषोत्तम है, केशव के राम वैभवशाली राजा हैं, परंतु गुरु गोबिंद सिंह जी के राम वीर और योद्धा हैं. जहां दूसरे राम काव्यों में युद्ध वर्णन को गौण स्थान दिया गया है, वहीं रामावतार का संपूर्ण वातावरण ही युद्धमय है.
इसी तरह ‘कृष्णावतार’ में भी दशम गुरु ने भारतीयों में आत्म गौरव एवं शक्ति का संचार करने का सफल प्रयास किया है. अधर्म के मार्ग पर चलने वाले निरंकुश राजाओं के साथ हुए युद्धों का वर्णन दशमेश पिता की विशेष रूचि थी. अपनी ‘शस्त्र नाम माला’ काव्य रचना में गुरु ने विभिन्न प्रकार के अस्त्रों-शस्त्रों की स्तुति की है. उल्लेखनीय है कि उन्होंने शस्त्रों को ही अपने इष्ट देव माना है.
“अस कृपाण खंडो तुपक अरु तीर.
सैफ सरोही सैहथी यहै हमारे पीर..”
जिस तरह द्वापर युग में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्धक्षेत्र-कुरुक्षेत्र में दोनों सेनाओं के मध्य में लड़खड़ाते अर्जुन को गीता का उपदेश देकर अधर्मियों का संहार करने के लिए प्रेरित किया था, उसी प्रकार दशम पातशाह ने अपनी विशाल और विस्तृत काव्य रचना दशम ग्रंथ में समाज को अत्याचारी शासकों का प्रतिकार करने के लिए हथियार उठाने का आह्वान किया है. डॉ. जय भगवान गोयल लिखते हैं – “तत्कालीन पीड़ित, पराधीन और शक्तिहीन समाज को प्राचीन भारतीय ग्रंथों के वीर प्रसंगों और ईश्वरीय शक्ति का आश्रय लेकर उसे संघर्ष के लिए सन्नद करना दशम् ग्रंथ के रचयिता का मूल उद्देश्य है.”
खालसा पंथ के संस्थापक युद्ध शिरोमणि गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपनी सभी वीररस प्रधान काव्य रचनाओं में शक्ति-उपासना को युगधर्म माना है. और अंतिम श्वास तक इसी युगधर्म के प्रति समर्पित रहे. उनके द्वारा रची गई अंतिम रचना ‘जफरनामा’ है. यह एक पत्र है जो उन्होंने औरंगजेब को लिखा था. इसमें दशम गुरु ने इस अत्याचारी शासक को उसका अस्तित्व मिटा देने की चेतावनी दी है. इस पत्र की शैली भी युद्ध-परक है.
कुछ इतिहासकारों के अनुसार इस पत्र को पढ़कर औरंगजेब इतना भयभीत हो गया कि उसने गुरु जी से भेंट करने का प्रयास भी किया था. परंतु संभावित मुलाकात से पहले ही औरंगजेब की मृत्यु हो गई. दशमेश पिता के शब्दबाणों को वे पापी राजा सह नहीं सका.
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा लिखित सारे साहित्य को सनातन भारतीय संस्कृति, गौरवशाली इतिहास, आध्यात्मिक धारा, भक्ति और शक्ति के स्वर्णिम पृष्ठ कहा जा सकता है. ‘दशम ग्रंथ’ इसी धरोहर का अमर कोष है.
दशम गुरु द्वारा रचित वीररस प्रधान साहित्य उनके इस सिंहनाद का प्रकटीकरण है — “राज करेगा खालसा – आकी रहे न कोय” अर्थात पापियों का विनाश होगा और खालसा (पवित्र) के राज की स्थापना होगी.
………..क्रमशः
(वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक)