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सनातन धर्म-संस्कृति के संवाहक

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इन वनवासियों ने कभी विष्णु पुराण में उत्तरम यत समुदस्यवाला श्लोक नहीं पढ़ा होगा, उन्होंने ऋग्वेद के हिरण्यगर्भ सूक्त को नहीं सुना होगा, उनके कान में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का उद्घोष जननी जन्मभूमिश्च……शायद कभी नहीं पड़ी होगी, तो फिर किस प्रेरणा से बिरसा मुंडा, रानी मां गाईदिन्ल्यू भारत के स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े थे? क्या ये केवल उनका हिन्दू मन नहीं था, जिसने उनको भारत माता की उपासना करने को प्रेरित कर दिया था, बलिदान देने के लिए आगे कर दिया था.

भारत के जंगलों में, बीहड़ों और सूदूर वनांचलों में रहने वाले लाखों-करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिनके पास आज तक कोई हिन्दू संन्यासी नहीं पहुंचे, कोई कथावाचक नहीं पहुंचे, उनके कानों ने आज तक वेद या अन्य शास्त्र तो दूर जनभाषा में रची प्रार्थनाएं भी नहीं सुनी, लेकिन इसके बाबजूद वो उन तमाम जीवन मूल्यों को जीते हैं, जिनका आदेश वेदों में है. जिसकी अपेक्षा वेदों ने अपनी सबसे बौद्धिक कृति यानि मनुष्यों से की है.

वो शास्त्रों को जानने वाले नहीं हैं, पर मानते हैं कि कोई दिव्य और परम शक्ति है जो इस ब्रह्माण्ड को नियंत्रित कर रही है. इसलिए उस परम-शक्ति के प्रति कृतज्ञता जताने और उस तक पहुँचने की कोशिश करते हुए अपनी भाषा में कुछ मन्त्र/बोल बना लिए हैं, कुछ उपासना विधियाँ बना ली हैं.

तो क्या वो हिन्दू नहीं हैं? केवल इसलिए कि वो समाज में मान्य शास्त्रों, विधियों, मंत्रों या परंपराओं से इतर चल रहे हैं? क्या ईश्वर उनकी प्रार्थनाएं इसलिए ठुकरा देता होगा कि वो स्तुतियां वेदों और सूक्तों से निःसृत नहीं है, शास्त्र अनुशासन से भिन्न हैं?

“हिन्दू धर्म यदि वायु, अग्नि, इंद्र आदि प्राकृतिक शक्तियों की उपासना को मान्यता देता है, यदि ये धर्म वृक्षों से, जंगलों से, जलाशयों से प्रेम करने और धरती को मां मानने की शिक्षा देता है, तो फिर ये वनवासी तो हमसे बेहतर और कहीं अधिक हिन्दू हैं, क्योंकि उनसे बड़ा प्रकृति पूजक और प्रकृति प्रेमी और कौन है?”

कई वनवासी समाज ऐसे हैं जो कुछ विशेष दिवसों को धरती मां के रज:श्राव का दिन मानते हुए उस अवधि में अपने खेतों में हल नहीं चलाते. ऐसा करने वालों ने ‘समुद्र वसने देवि पर्वत स्तन मंडिते…..’ या फिर अथर्वेद का भूमि सूक्त नहीं पढ़ा होगा, लेकिन धरती मां के प्रति वो हमसे अधिक श्रद्धा और मातृ भाव रखते हैं.

इन वनवासियों ने कभी विष्णु पुराण में ‘उत्तरम् यत समुद्रस्य’ वाला श्लोक नहीं पढ़ा होगा, उन्होंने ऋग्वेद के हिरण्यगर्भ सूक्त को नहीं सुना होगा, उनके कान में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का उद्घोष ‘जननी जन्मभूमिश्च……’ शायद कभी नहीं पड़ी होगी, तो फिर किस प्रेरणा से बिरसा मुंडा, रानी मां गाईदिन्ल्यू भारत के स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े थे? क्या ये केवल उनका हिन्दू मन नहीं था, जिसने उनको भारत माता की उपासना करने को प्रेरित कर दिया था, बलिदान देने के लिए आगे कर दिया था.

वास्तविकता यही है कि वनवासी समाज जिसे आज हम जनजाति समाज के रूप में जानते हैं, वह सनातन संस्कृति का संवाहक है. वही सनातन संस्कृति का मूल है. भारत की मूल संस्कृति नगरीय या ग्रामीण नहीं, बल्कि अरण्य रही है, और वनवासी/जनजाति समाज इसी अरण्य संस्कृति का आज भी पालन कर रहा है. आज भी वह वनों में रहकर अपने आराध्यों, पूर्वजों, प्रकृति और ग्राम देवी-देवताओं की उपासना कर रहा है.

हिन्दू धर्म की विराटता ईश्वर के विराट स्वरूप के समान है. हिन्दू धर्म “एको अहं बहुस्याम: ….” का प्रत्यक्ष प्रकटीकरण है. इसे कोई भी अपनी सीमित बुद्धि से नहीं समझ सकता, क्योंकि सीमित बुद्धि के साथ असीमित को नहीं समझा जा सकता और हिन्दुत्व के विराट स्वरूप को सामान्य चक्षु से देखा भी नहीं जा सकता, उसके लिए दिव्य दृष्टि चाहिए.

ये दिव्य दृष्टि विकसित कीजिए. हिन्दुत्व विश्व में अपने आप स्थापित हो जाएगा.

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