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पर्व-संस्कृति : आस्था, विश्वास और विवेक

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जयराम शुक्ल

कार्तिक माह पावन व मनभावन होता है. शरद के स्वागत का यह महीना पूजन, आराधन व भक्तिभाव से परिपूर्ण रहता है. यह सिलसिला दीपावली-डिहठोन (देव प्रबोधनी एकादशी) तक चलेगा. सूर्यदेव के उत्तरायण होने के साथ मकर संक्रांति, फिर वसंत पंचमी से पुनः प्रारंभ पर्वों के रूप में आनंद का बंदोबस्त हमारे पुरखे कर गए. अकाल- महामारी कोई भी बाधाएं आएं, यह सिलसिला रुकता नहीं अपितु हमारे आस्था व विश्वास को और भी मजबूत करता है.

हर त्यौहार मनुष्य की जिजीविषा बढ़ा देता है. ये न होते तो सचमुच जिंदगी कितनी नीरस होती. अब इन त्यौहारों के पीछे छिपे अर्थ भी कोई बताने वाला हो. हर भक्त के मन में यह सवाल उठना चाहिए कि वह नौदुर्गा क्यों मनाए, व्रत उपवास क्यों करे.? इनका तार्किक उत्तर वैसे ही खोजना चाहिए जैसे विवेकानंद रामकृष्ण से सवाल जवाब करके खोजते थे. विवेकानंद यही सिखाकर गए कि किसी चीज पर आंख मूंदकर विश्वास नहीं करना चाहिए, भले ही उसे कोई कितना अभीष्ट बताए.

आंख मूंदकर विश्वास करना ही अंधविश्वास है. जितने भी साधु, संत, महंत अब व्यभिचार और नानाप्रकार के कुकर्मों में पकड़े जा रहे हैं, वे सबके सब अंधविश्वास के खाते की कमाई से ही पल रहे हैं.. कोई जीते जी स्वर्ग का रास्ता बता रहा था, कोई धंधा और धन दूना करने का झांसा दे रहा था. यहां तक कि पुत्र प्राप्ति की इच्छा के लिए भी लोग क्लीनिक न जाकर इनके पास जाते हैं, धन-धर्म दोनों लुटा बैठते हैं. एक-दो नहीं करोड़ों की संख्या में लोग इन ढोंगियों के चक्कर में अभी भी फंसे हुए हैं.

एक महान ठग हुआ नटवरलाल, 75 वर्ष की उमर तक ठगी की. एक बार उसने जिला जज के नाम से एक घड़ी के दुकानदार को ठग लिया. जज इतना पावरफुल पद कि दुकानदार झांसे में आ गया. कुछ दिन बाद उसे पुलिस ने पकड़ा. तस्दीक के लिए मेरे शहर ले आए, जहां मैं अखबार में काम करता था. मेरी जिज्ञासा नटवरलाल लाल से मिलाने ले गई. वह सभ्य सुसंस्कृत लग रहा था. ठगों की यही सबसे बड़ी खूबी होती है कि सूरत शक्ल, हाव-भाव से कोई जान नहीं सकता कि ये ठग भी सकता है. यही हुनर ठगने में काम आता है.

अब जब हनुमान जी जैसे परम ज्ञानी कालनेमि के झांसे में आ गए तो साधारण आदमी की बिसात क्या.? हनुमान जी भगवान् के नाम पर कालनेमि के झांसे में फंस तो गए पर उनके विवेक ने जल्दी ही उबार लिया. उन्हें एक मगरी ने टोक दिया – क्या बिना जाने बूझे उस साधु के चक्कर में फंसे हो. अरे आपका तो सीधा प्रभु से कनेक्शन है, ये आपसे बड़ा साधु थोड़े न है. हनुमान जी ने उस मगरी की बात को सुना और विश्वास किया कि वाकई हमसे बड़ा भक्त कौन हो सकता है और फिर कालनेमि का पर्दाफाश कर दिया. कभी-कभी छोटा जीव भी बड़ी सीख दे जाता है, इसलिए वह भी आदर का पात्र है.

हम किसी के झांसे में तभी फंसते हैं, जब हमारा आत्मविश्वास लड़खड़ा जाता है. विखंडित आत्मविश्वास के लोग ढोंगियों के चक्कर में वैसे ही फंसते हैं, जैसे फ्लाई कैचर में मक्खी. मेरे एक मित्र कहा करते हैं कि जब तक दुनिया में एक भी मूर्ख जिंदा है, कोई ठग भूखे नहीं मर सकता और जब तक एक भी अंधविश्वासी है, तब तक कोई ढोंगी. हर मनुष्य सामने वाले जैसा है. उसी के बराबर. ईश्वर समदर्शी है. वह सबको बराबर नेमतें देता है. यह मनुष्य पर निर्भर करता है कि वह उसका प्रयोग कैसे करता है. मानवीय गुण वृत्तियों के प्रयोग के ऊंच-नीच में ही कोई लूटता है, कोई लुटता है. इसलिए जरूरी है कि हम स्वयं मनुष्य होने की कीमत और ताकत को पहचानें.

इसलिए जरूरी है कि आपके मन में प्रश्न रहे, शंका रहे, जिज्ञासा रहे. इन्हीं मूलभूत गुणों की वजह से नरेन्द्र विवेकानंद बने. हम भक्तिभाव से मां की आराधना कर रहे हैं. यह जानें कि माता भगवती के मूल में क्या है. हम तीनों देवियों की बात करते हैं. शक्तिस्वरूपा मां दुर्गा, ऐश्वर्य की देवी मां लक्ष्मी, विद्या की देवी मां सरस्वती. इसी तरह जगद्जननी माता सीता धरती की पुत्री. सभी की सभी अयोनिजा. इनके जन्म में भी संकेत व सूत्र छिपे हैं. सबकी सब प्रकृति की बेटियां. वैज्ञानिक नजरिए से देखें तो सभी पंचमहाभूत की कारक. आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो ब्रह्म और प्रकृति का द्वैत, जिससे सृष्टि रची गई. इसलिए आप देखते हैं – देश में जितने भी शक्तिपीठ, उपशक्तिपीठ हैं सबके सब पहाड़ों में. इसीलिए मां पहाड़ांवाली है. पहाड़ प्रकृति के शौर्य ध्वज हैं. शेर वन्यजीवों की शक्ति का प्रतीक. उस पर तो सवा शेर ही सवारी करेगा, इसलिए वह मां का वाहन. अब जब पहाड़ ही न बचें, जंगल कट जाएं, वन्यजीवों का नाश हो जाए तो फिर क्यों दुर्गा मैय्या की पूजा. सब व्यर्थ. दुर्गा मैय्या प्रकृति की देवी हैं. पर्यावरण की अधिष्ठात्री हैं.

मुझे याद है, मेरे शहर में दुर्गा प्रतिमाओं के विराजने का चलन सन् 85 के बाद आया है. और देखते देखते गांव भी इसी में रम गए. पहले मंदिर या मढिया में पूजा हो जाती थी. जहां यह नहीं, वहां नीम के पेड़ के नीचे देवी दाई की पूजा कर ली. 30-40 साल पहले क्या भक्ति भाव नहीं था, कि भक्त नहीं थे? ये सोचना चाहिए. भंडारे शुरू हो जाएंगे. सड़क पर पन्नियां, प्लास्टिक के पत्तल और कूड़े का अंबार. यही नदियों में बहकर जाएगा. नदियां भी तो देवी मां हैं. एक देवी को प्रसन्न किया, दूसरे को नाराज तो हिसाब बराबर. भक्ति का फल शून्य. फिर सब देवीतुल्या नदियों से बहकर मलबा पहुंचेगा समुद्र में. समुद्र मां लक्ष्मी का वास. वो नाराज हो गईं तो सब भक्तिभाव जप-तप गुड़गोबर. सो इसलिए देवियों की पूजा असल में प्रकृति के स्वरूप की पूजा है. प्रकृति के स्वरूप के प्रतिकूल कुछ किया तो उसे मां स्वीकार नहीं करने वाली. आराधन, पूजन के मर्म और अर्थ को हम क्यों न इस दृष्टि से देखें और अपने-अपने विवेक सम्मत तर्क का भी उपयोग करें, जिसकी सीख स्वामी विवेकानंद हमें दे गए हैं.

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