प्रमोद भार्गव
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट ने प्रमाणित कर दिया कि वाराणसी के ज्ञानवापी परिसर में स्थित एक हजार साल से भी अधिक पुराने विशाल हिन्दू मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी. हिन्दू मंदिर के अवशेषों के प्रतीक चिन्ह सर्वेक्षण में मिले हैं. इसी संरचना के ऊपर मस्जिद बना दी गई थी. मस्जिद के निर्माण में भी मंदिर के पत्थरों का प्रयोग किया गया. एक स्थान पर महामुक्ति मंडप लिखा होने के साथ हनुमान जी और गणेश जी की खंडित मूर्तियां मिली हैं. ये जानकारी एएसआई की रिपोर्ट से सामने आई है. वाराणसी जिला अदालत के आदेश पर ज्ञानवापी परिसर का आधुनिक वैज्ञानिक माध्यम से सर्वेक्षण करवाया गया था, सर्वेक्षण के बाद 839 पन्नों की तथ्यात्मक रिपोर्ट सार्वजनिक की गई है. यह रिपोर्ट अयोध्या के श्रीराम जन्मभूमि मंदिर जैसी ही है. श्रीराम जन्मभूमि के सर्वेक्षण में पुरातत्वविद केके मोहम्मद भी शामिल थे. सर्वे के बाद मोहम्मद ने कहा था कि अयोध्या, वाराणसी और मथुरा जैसे मंदिर स्थलों को हिन्दुओं को स्वेच्छा से सौंप दें, क्योंकि ये स्थल हिन्दुओं के लिए उतने ही
महत्वपूर्ण हैं, जितने मुसलमानों के लिए मक्का और मदीना.
दरअसल, वाराणसी के न्यायालय द्वारा ज्ञानवापी परिसर के सर्वेक्षण कराने का निर्णय के बाद से ही
मुस्लिम पक्ष इस प्रयास में था कि सर्वे न होने पाए. इस उद्देश्य से मुस्लिम पक्ष ने एक याचिका भी अदालत में दायर की थी, लेकिन यह याचिका खारिज हो गई थी. याचिका में दावा किया था कि ‘विशेष उपासना स्थल कानून 1991‘ के तहत आजादी के बाद जो भी धर्म स्थल जिस अवस्था में हैं, उसी रूप में रहेंगे. इस सिलसिले में प्राचीन मूर्ति स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भगवान विश्वेश्वर नाथ की ओर से वाद मित्र विजय शंकर रस्तोगी ने न्यायालय में तर्क दिया था कि वर्तमान में विवादित स्थल की धार्मिक स्थिति 15 अगस्त, 1947 को मंदिर की थी अथवा मस्जिद की, इसके निर्धारण के लिए साक्ष्यों की आवश्यकता है.
दरअसल विवादित स्थल विश्वनाथ मंदिर का ही एक भाग है, इसलिए एक अंश की धार्मिक स्थिति का निर्धारण नहीं किया जा सकता, बल्कि ज्ञानवापी परिसर का भौतिक साक्ष्य लिया जाना आवश्यक है. जिसे पुरातात्विक सर्वेक्षण द्वारा जांच कराकर स्पष्ट किया जाए कि इस मस्जिद के नीचे और इसकी दीवारों के अंदरूनी हिस्सों में कोई मंदिर था अथवा नहीं? तथ्यों के आधार पर प्राचीन विश्वनाथ मंदिर के ध्वस्त अवशेष मस्जिद की दीवारों के अंदरूनी और बाहर विद्यमान बताए गए हैं. मंदिर की दीवारों और दरवाजों को चिनकर मस्जिद का वर्तमान ढांचा खड़ा किया गया है. पुराने विश्वनाथ मंदिर के अलावा समूचे परिसर में अनेक देवी-देवताओं के छोटे-छोटे मंदिर थे, जिनमें से कुछ आज भी मौजूद हैं. इन साक्ष्यों के संदर्भ में साक्ष्य और इतिहास पुस्तकें भी प्रस्तुत की गई थीं. भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 के अंतर्गत अधिनियम की धारा 57 (13) के तहत सामान्य इतिहास की पुस्तकों में भी वर्णित ऐतिहासिक तथ्य को साक्ष्य के तौर पर मान्यता प्राप्त है. इस संदर्भ में 1937 में प्रकाशित इतिहासकार डॉ. अनंत सदाशिव अल्तेकर की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ बनारस‘ अदालत में प्रस्तुत भी की गई थी. पुस्तक के अनुसार वर्तमान में जो ज्योतिर्लिंग स्थापित है, उसकी प्राण-प्रतिष्ठा 1780 में महारानी अहिल्याबाई ने कराई थी.
बीती सदी के अंत तक जो भी लोग विश्वनाथ मंदिर के दर्शन करने गए हैं, उन्हें स्पष्ट रूप से दिखाई देता था कि एक टूटे प्राचीन मंदिर के ढांचे पर कथित मस्जिद बनाई जा रही है. मंदिर का चबूतरा और आलीशान सफेद पत्थर के स्तंभ स्पष्ट दिखाई देते थे. इसी परिसर में एक कुआं है, जिसमें वह शिवलिंग हैं, जो तोड़े गए मंदिर में स्थापित था. इस आशय के यहां बोर्ड भी लगे हैं. कूप के ऊपर लोहे का जाल डाल दिया है.
अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर पूजा स्थल विशेष प्रावधान अधिनियम-1991 की वैधता को चुनौती भी दी गई थी. 1991 में केंद्र सरकार द्वारा सभी धर्मस्थलों से जुड़े विवादों में यथास्थिति बनाए रखने की दृष्टि से यह कानून बनाया था. हालांकि, अयोध्या के श्रीराम जन्मस्थल-बाबरी मस्जिद विवाद को इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया था. कानून के अनुसार, 1947 से पहले जो धर्मस्थल जिस स्थिति में थे, उसी स्थिति में रहेंगे. इसी बूते वाराणसी की अंजुमन इंतजामिया का दावा था कि ज्ञानवापी मस्जिद को इसी कानून के तहत सुरक्षा मिलनी चाहिए. अंजुमन भली भांति जानता था कि मंदिर की बुनियाद पर मस्जिद टिकी है. अब सर्वे रिपोर्ट ने इस सच्चाई का खुलासा भी कर
दिया है.
मंदिरों को तोड़े जाने और धर्मांतरण का सिलसिला इस्लामिक शासकों के भारत में आने के साथ ही शुरू हो गया था. इनमें वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर के अलावा मथुरा का कृष्ण जन्मभूमि मंदिर, श्रीराम जन्मभूमि मंदिर, सोमनाथ मंदिर भी हैं. मंदिरों को तोड़कर इस्लामिक ढांचा बना दिया गया. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने 27 हिन्दू व जैन मंदिरों को तोड़कर कुतुबमीनार को वर्तमान रूप दिया. कुतुबमीनार का निर्माण दिल्ली के तोमर राजाओं ने कराया था, ऐसे साक्ष्य डॉ. हरिहर निवास द्विवेदी ने अपनी पुस्तक ‘दिल्ली के तोमर‘ में दिए हैं.
वाराणसी पर मुगल आक्रमण और मंदिरों को तोड़े जाने की ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में बात करें तो जिन इतिहासकारों ने इतिहास घटना और साक्ष्यों के आधार पर लिखा, उन सब ग्रंथों में मुस्लिम शासकों द्वारा वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर को तोड़े जाने के साथ अन्य एक हजार मंदिरों को तोड़ने का उल्लेख भी मिलता है. 1193 में थानेश्वर के युद्ध में पृथ्वीराज के मारे जाने तथा 1194 में काशी तथा कन्नौज के गाहड़वाल के राजा जयचंद को हराने के बाद मोहम्मद गौरी ने अपने सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को बनारस पर हमला करने के लिए भेज दिया. इस युद्ध में हिन्दुओं की हार हुई और किले पर ऐबक ने कब्जा कर लिया. इसके बाद लूट और यहां के मंदिर तोड़ने की शुरूआत हुई. लूट की संपत्ति को 1400 ऊंटों पर लादकर गौरी के पास भेज दिया. इससे खुश होकर गौरी ने कुतुबुद्दीन को दिल्ली का सुल्तान बना दिया और खुद अपने देश लौट गया.
1376 में फिरोजशाह तुगलक के शासनकाल में बनारस में अनेक मस्जिदों का निर्माण हुआ, जो तोड़े गए मंदिरों के अवशेषों से बनाई गईं थीं. यही वह कालखंड था, जिसमें तलवार के बल से हिन्दुओं का बड़ी संख्या में धर्म परिवर्तन कराया गया. हालांकि, इस विषम स्थिति में भी साधु-संत मंदिरों के पुनर्निर्माण के लिए अपने प्राणों की आहुतियां देते रहे.
1436 से 1480 के दौरान उत्तर भारत का शासन लोदी-वंश के हाथ आ गया. इस वंश के दूसरे शासक सिकंदर लोदी ने 1494 में उन सभी मंदिरों को फिर से तोड़ दिया, जिनका पुनर्निर्माण हो गया था. विश्वनाथ मंदिर को तो पूरी तरह खण्डहर में तब्दील कर दिया गया था. इस तोड़-फोड़ का चित्रण संस्कृत के ग्रंथ ‘त्रिस्थली सेतु‘ (1580) और ‘वीरमित्रोदय‘ (1620) में मिलता है.
अकबर के शासनकाल 1585 में टोडरमल ने अपने गुरू पंडितराज भट्टनारायण के आग्रह पर विश्वनाथ मंदिर फिर से बनवाया. किंतु 1669 में क्रूरतम शासक औरंगजेब की आज्ञा से एक बार फिर पुनर्निमित
सभी मंदिरों को तोड़ दिया गया. इसी समय विश्वनाथ मंदिर के स्थान पर ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई. सन् 2000 से पहले तक मंदिर पर बनी इस मस्जिद की पश्चिमी दीवार ज्यों की त्यों दिखती थी, जो मंदिर होने के साक्ष्य खुले रूप में प्रगट करती थी, किंतु इस दीवार को मार्बल के पाटों से ढक दिया गया. औरंगजेब द्वारा तोड़े गए विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्वार बाद में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने कराया था.
बहरहाल, पुरातत्वीय परीक्षण की आंखों द्वारा खोजे गए 32 शिलालेख एवं प्रतीक चिन्हों ने ज्ञानवापी की सच्चाई उजागर कर दी है.