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महिला सशक्तिकरण की अपनी परम्परा से परिचय

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समय की एकरेखीय समझ ने आधुनिकता जैसी अवधारणाओं को जन्म दिया है। समय की गति को एकरेखीय मान लेने से प्रायः एक भ्रान्त निष्कर्ष पर पहुंचने की संभावना रहती है। वह यह कि मानव इतिहास में अनेक घटनाक्रम पहली बार हो रहे हैं, जबकि इतिहास पर दृष्टि डालें तो वह समय की चक्रीय गति से संचालित होता हुआ अधिक दिखाई पड़ता है। जिन्हें आज नवीन घटनाक्रम कहते हैं, वह अलग स्वरूप में पहले भी घट चुके होते हैं।

महिला सशक्तिकरण के घटनाक्रम को भारतीय संदर्भों में देखने पर यह तथ्य अधिक स्पष्ट होकर सामने आता है। प्रायः महिला सशक्तिकरण की चर्चा इस मनोभाव से की जाती है कि यह नवीन घटनाक्रम है और तथाकथित आधुनिकता की लहर के बाद इस परिघटना ने जन्म लिया है। इस सशक्तिकरण का प्रमुख मानक महिलाओं का सार्वजनिक और कामकाजी जीवन में प्रवेश माना जाता है। भारतीय संदर्भों में देखें तो महिलाएं केवल सार्वजनिक और कामकाजी जीवन में विभिन्न रूपों में सक्रिय ही नहीं रही है, बल्कि शासक के रूप में अधिष्ठित होकर सम्पूर्ण व्यवस्था को नियंत्रित करती रही हैं।

इससे बड़ी बात यह है कि पिछली कई सदियों से चल रहे सभ्यतागत और राष्ट्रीय संघर्ष में महिलाओं ने आक्रांताओं को पीछे धकेलकर अपनी रणनीतिक समझ का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया है। विकसित भारत का स्वप्न देख रहे और अपने स्वतंत्रता संग्राम का मूल्यांकन कर रहे भारत के लिए यह बहुत आवश्यक हो जाता है कि वह महिला सशक्तिकरण की भारतीय परम्परा से परिचय प्राप्त कर नवलक्ष्यों के संधान के लिए प्रेरित हो सके।

अर्पणा चित्रांश की नवीन पुस्तक ’स्वाधीनता संग्राम में महिलाएं’ इस महती आवश्यकता की पूर्ति करती है। अर्पणा की यह पुस्तक महिला विमर्श और महिला सशक्तिकरण के समसामयिक विमर्श के समक्ष एक सहज प्रश्नचिन्ह बनकर उभरती है। प्रश्न यह उठता है कि आज जब बाहर जाकर कार्य करने, नौकरी करने को महिला सशक्तिकरण का पर्याय माना जाता है, तब एक भू-भाग पर शासन करते हुए छल और क्रूरता का अपनी रणनीतिक समझ से प्रत्युत्तर देने वाली महिलाओं को सशक्तिकरण का शीर्ष क्यों नहीं माना जाना चाहिए? और यह भी कि महिलाओं की भूमिका को नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिशों में इन महिलाओं को प्रतीकों के रूप में क्यों न स्थापित किया जाए?

पुस्तक में स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाली कुल 74 महिलाओं के व्यक्तित्व और योगदान को रेखांकित करने की कोशिश की गई है। विभिन्न कालखण्डों में विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध संघर्ष करने वाली महिलाओं के योगदान का लेखा-जोखा पुस्तक को संग्रहणीय बना देता है। यह हिंदी पाठकों के लिए संभवतः पहली पुस्तक होगी, जिसमें रानी अबक्का, रानी चेन्नाभैरदेवी के साथ ऊदा देवी पासी और नीरा आर्य जैसी महिलाओं के बारे में एक ही जगह प्रामाणिक जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।
पुस्तक की प्रस्तावना में लेखिका ने लिखा है कि महिलाओं के योगदान का उल्लेख किए बिना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास अधूरा रहेगा। पुस्तक में इसी भाव के साथ जानकारी दी गई है और मूल्यांकन भी किया गया है। लेकिन पुस्तक की महत्ता केवल इसलिए ही नहीं है कि यह स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय महिलाओं के संघर्ष से परिचय कराती है, बल्कि यह प्रकारांतर से महिला सशक्तिकरण के विमर्श को एक भारतीय आधार पर उपलब्ध कराती है। इसलिए यह पुस्तक इतिहास में रुचि रखने वाले पाठकों के साथ समसामयिक महिला विमर्श में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए भी पठनीय पुस्तक बन जाती है।

 

पुस्तक का नाम – स्वाधीनता संग्राम में महिलाएं

लेखिका – अर्पणा चित्रांश

प्रकाशक – सुरुचि प्रकाशन

मूल्य – 175 रुपये ( पेपरबैक)

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