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जनजाति समाज चाहता है डी-लिस्टिंग

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शीतल पालीवाल

18 जून को जनजाति सुरक्षा मंच ने मेवाड़ सहित पूरे राजस्थान के जनजाति समाज को साथ लेकर उदयपुर में हुंकार भरी. आखिर क्यों, कुशलगढ़, घाटोल, सागवाड़ा, अरनोद, कोटडा, कुंभलगढ़, बागीदौरा जैसे गांव -कस्बों से निकलकर स्त्री, पुरुष, युवा, बुजुर्ग, संपन्न, निर्धन, शिक्षित, अशिक्षित हर वर्ग के लोग हजारों की संख्या में पहुंचे. संविधान में कौन-सी विसंगति है, जिसमें जनजाति समाज संशोधन चाहता है? जनजाति समाज के किन अधिकारों का हनन हुआ है जो यह समाज डी-लिस्टिंग की मांग कर रहा है?

दरअसल, डी-लिस्टिंग के माध्यम से मतान्तरित होकर ईसाई या इस्लाम स्वीकार कर चुके के लोगों को अनुसूचित जनजाति की सूची से हटाया जाना है, यानि जनजाति समाज को मिलने वाले आरक्षण, छात्रवृत्ति जैसे लाभों की सूची से बाहर करना है. ताकि वे दोहरा लाभ ना उठा सकें, और साथ ही जनजाति समाज के अधिकारों का हनन न हो.

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत जनजातीय समाज को कुछ विशेष अधिकार प्रदान किए गए हैं. ये अधिकार जनजातीय समुदाय की विशिष्ट परम्परा के संरक्षण के लिए हैं. जिससे वे अपनी विशिष्ट सभ्यता, परंपरा के आचरण के साथ-साथ शासन से मुलभूत सुविधाएं प्राप्त कर मुख्यधारा में आ सके.

जनजाति समाज अब यह मांग कर रहा है कि अनुच्छेद 342 की विसंगतियों को दूर कर डी-लिस्टिंग को जोड़ा जाए ताकि इन्हें इनके अधिकार का लाभ व सरंक्षण मिल सके.

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग में भेद क्यों?

ऐसा ही मामला अनुसूचित जाति के मामले में भी था, जिसे 341 में संशोधन द्वारा डी-लिस्टिंग को जोड़कर हल किया गया. तो अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए इस प्रकार का संशोधन क्यों नहीं किया जा सकता? अनुच्छेद 342 में संशोधन के सम्बन्ध में सरकारें देरी करती आई हैं और अब भी कर रही हैं.

मतांतरित होने का आशय है कि सीधे तौर पर वह अपनी विशिष्ट संस्कृति, पहचान, पूजा पद्धति छोड़ चुके हैं. जिसके आधार पर उन्हें यह संवैधानिक लाभ प्राप्त हो रहे थे. फिर भी उन्होंने अपना नाम एसटी सूची से नहीं हटवाया है. और इस प्रकार जनजातीय समुदाय को मिलने वाले लाभ का 80% कन्वर्ट हुए लोगों को मिल जाता है. प्रशासन, सरकारी सेवा, चिकित्सा क्षेत्र, शिक्षा जैसे लगभग सभी क्षेत्रों में आनुपातिक रूप से ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा देखने को मिलती है जो इस प्रकार का दोहरा लाभ उठा रहे हैं. झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश व पूर्वोत्तर राज्यों में यह अनुपात और भी अधिक है.

भारतीय संविधान नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है. साथ ही भारत सदैव इस बात का भी पक्षधर रहा है कि ईश्वर प्राप्ति के अनेक मार्ग हो सकते हैं. और लोगों को स्वैच्छा व सुविधा अनुसार पूजा पद्धति चुनने का अधिकार है. ऐसा परंपरा से होता भी आया है. यदि कोई व्यक्ति ईश्वर प्राप्ति के किसी विशेष मार्ग का चयन करता है और इसके लिए वह मतांतरण करना चाहता है तो यह उसकी निजी आस्था का विषय हो सकता है. परंतु भारत में लंबे समय से जबरन व षड्यंत्रपूर्वक मतांतरण के अनेक मामले सामने आए हैं. लालच, भय, धोखे से बहला-फुसला कर मतांतरण करवाया जाता है जो अनैतिक व असंवैधानिक होने के साथ-साथ पूर्ण रूप से अमानवीय भी है.

इस प्रकार की घटनाओं का एक बड़ा कारण यह भी है कि समाज के अग्रणी लोगों से इन्हें उचित स्नेह व सम्मान प्राप्त नहीं होता. अतः यह लोग आसानी से चंगुल में फंस जाते हैं. इस प्रकार के कन्वर्जन से कहीं ना कहीं देश के प्रति उस व्यक्ति की निष्ठा में भी कमी आती है. क्योंकि मतांतरण मूलतः तो भारत में विदेशी साजिश ही है. वर्ष 1897 में स्वामी विवेकानंद ने कहा था – ‘यदि भारत किसी विदेशी धर्म को अपनाता है, तो भारतीय सभ्यता नष्ट हो जाएगी.’ गांधी जी भी धर्मान्तरण के प्रखर अलोचक थे व उन्होंने मतांतरण के विरुद्ध क़ानून बनाने का सुझाव दिया था.

2011 की जनगणना के अनुसार भारत में लगभग 6 करोड़ क्रिश्चियन आबादी है. परंतु वास्तव में यह आंकड़ा 8 करोड़ से ऊपर है. क्योंकि इसमें जनजाति समाज के वे लोग शामिल नहीं किए गए हैं जो मतांतरित हो चुके हैं, लेकिन उन्होंने अपना एसटी स्टेटस नहीं छोड़ा है. इस प्रकार यह क्रिप्टो क्रिश्चियन वर्ग शासन से मिलने वाले अधिकतम लाभ का उपयोग कर लेता है जो वास्तव में जनजाति समाज के लिए है.

दक्षिणी राजस्थान की बात करें तो बांसवाड़ा के जनजाति समाज के लोग बताते हैं कि 2011 की जनगणना के अनुसार बांसवाड़ा में ईसाई आबादी लगभग 20000 है, परंतु वास्तव में यह आंकड़ा एक लाख तक का है, क्योंकि इस जनगणना में क्रिप्टो क्रिश्चियन शामिल नहीं है. जैसा कि नाम से ही स्पष्ट होता है – माइकल डोडियार, जोसेफ गरासिया, जैकी चौहान, एलिजा डामोर …आदि. ये कन्वर्ट होकर ईसाई मत में जा चुके हैं, साथ मतांतरण के दलाल भी बने हुए है. परंतु उन्होंने कानूनी रूप से अपना एसटी स्टेटस नहीं छोड़ा है. और यही दृश्य राजस्थान के अन्य जनजाति बहुल जिलों डूंगरपुर, प्रतापगढ़, चित्तौड़गढ़, सिरोही, बारां, झालावाड़, राजसमंद आदि में भी देखने को मिलता है. धर्म बदले पीढ़ीयां बीत गईं, फिर भी वह अनुसूचित जनजाति को मिलने वाले सारे लाभ ले रहे हैं. ऐसे लोगों को दोहरा लाभ क्यों? कन्वर्ट होने के बाद अनुसूचित जनजाति वर्ग को मिलने वाला लाभ क्यों मिलता रहे? यह प्रश्न लगातार जनजातीय समाज उठा रहा है. और इसी के चलते साठ के दशक में डॉ. कार्तिक उरांव द्वारा उठाया गया डी-लिस्टिंग का विषय अब फिर से तेजी पकड़ रहा है.

डॉ. कार्तिक उरांव

डी-लिस्टिंग को लेकर 1967 में झारखंड (तत्कालीन बिहार) के लोहरदगा से पूर्व सांसद व जनजातीय नेता कार्तिक उरांव ने जबरदस्त मांग उठाई, जिसके बाद 1967 में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति आदेश (संशोधन) विधेयक संसद में प्रस्तुत किया गया. जिसे व्यापक अध्ययन हेतु एक संयुक्त संसदीय समिति को सौंपा गया. समिति ने भी चर्चा के बाद 17 नवंबर, 1969 को लोकसभा में सिफारिश के साथ अपनी रिपोर्ट सौंप दी. इस सिफारिश में विधेयक में आवश्यक बदलाव का सुझाव दिया गया. विधेयक में प्रस्ताव रखा गया कि जिस व्यक्ति ने जनजाति मत और विश्वासों का परित्याग कर दिया है, ईसाई या इस्लाम धर्म अपना लिया है, वो अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं समझा जाएगा. इसके बाद लगातार ईसाई मिशनरीज के दबाव के कारण इंदिरा गांधी सरकार ने एक साल तक इस पर कोई चर्चा नहीं की. सरकार के इस रवैया को देखते हुए 348 सांसदों ने संयुक्त समिति की सिफारिशों को मानने वाला एक हस्ताक्षर युक्त आग्रह पत्र सरकार को भेजा. पर, सरकार ने आगे कदम नहीं बढ़ाया. और आज तक वही स्थिति चली आ रही है. जनजातीय समाज वर्षों से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है. बाबा कार्तिक उरांव वनवासी क्षेत्र के लोकप्रिय नेता थे. विधेयक पारित नहीं होने के बाद उन्होंने ‘बीस बरस की काली रात’ नामक पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने धर्मांतरण के कई पहलुओं को उजागर किया.

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