डॉ. पवन तिवारी
संगठन मंत्री, विद्या भारती पूर्वोत्तर क्षेत्र
देश को सर्वोपरि मानने वाले तथा मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने जीवन की परवाह किये बिना गंभीर बीमारी की हालत में भी मुगल आक्रान्ताओं से लोहा लेकर उन्हें नाकों चने चबाने के लिए मजबूर कर उल्टे पाँव भागने को विवश करने वाले ऐसे शूरवीर का नाम है लाचित बरफुकन. उनकी कुशल रणनीति के कारण ही असम मुगल अत्याचारों से मुक्त रहा.
लाचित बरफूकन का जन्म 24 नवंबर, 1622 को आहोम साम्राज्य के एक अधिकारी मोमाई तामुली बरबरुआ और माता कुंती मरान के घर हुआ था. उनका पूरा नाम ‘चाउ लाचित फुकनलुंग’ था. लाचित बचपन से ही कुशाग्रबुद्धि का छात्र था. बड़े होने पर लाचित को आहोम साम्राज्य के राजा चक्रध्वज सिंह की शाही घुड़साल के अधीक्षक और महत्वपूर्ण शिमलूगढ़ किले के प्रमुख के रूप में नियुक्त किया गया. बहादुर और समझदार लाचित जल्दी ही आहोम साम्राज्य के ‘बरफूकन’ (सेनापति) बन गए. पूर्वोत्तर भारत के हिन्दू साम्राज्य आहोम की सेना की संरचना बहुत ही व्यवस्थित थी. 20 सैनिकों के मुखिया को ‘बोरा’, 100 सैनिकों के मुखिया को ‘शइकीया’, ‘हजारिका’ 1,000 सैनिकों का और ‘राजखोवा’ 3,000 सैनिकों का मुखिया होता था. इस प्रकार फुकन 6,000 सैनिकों का संचालन करता था. लाचित बरफुकन इन सभी के प्रमुख थे.
चित्र – दिल्ली में लाचित बरफुकन की 400वीं जयंती पर आयोजित समारोह में केंद्रीय गृहमंत्री
सेनापति का पदभार संभालते ही उन्होंने आहोम सेना को संगठित करने का कार्य शुरु कर दिया. प्रथम चार वर्षों में लाचित ने अपना पूरा ध्यान आहोम सेना के नव-संगठन और अस्त्र-शस्त्रों को इकट्ठा करने में लगाया. इसके लिए उन्होंने नए सैनिकों की भर्ती की, जल सेना के लिए नौकाओं का निर्माण कराया, हथियारों की आपूर्ति, तोपों का निर्माण और किलों के लिए मजबूत रक्षा प्रबंधन इत्यादि का दायित्व अपने ऊपर लिया. उन्होंने यह सब इतनी चतुराई और समझदारी से किया कि इन सब तैयारियों की मुगलों को भनक तक नहीं लगने दी.
लाचित की युद्धकला एवं दूरदर्शिता का दिग्दर्शन मात्र अंतिम युद्ध में ही नहीं हुआ, अपितु उन्होंने 1667 में गुवाहाटी के ईटाखुली किला, जो फिरोज खान नामक फौजदार के हाथ में था, मुगलों से स्वतंत्र कराने में कुशल युद्धनीति का परिचय दिया. लाचित ने योजना बनाई. जिसके अनुसार 10-12 सिपाहियों ने रात के अंधेरे का फायदा उठाते हुए चुपके से किले में प्रवेश कर लिया और मुगल सेना की तोपों में पानी डाल दिया. अगली सुबह ही लाचित ने ईटाखुली किले पर आक्रमण कर उसे जीत लिया.
जब औरंगजेब को इसके बारे में पता चला, तब वह गुस्से से तिलमिला उठा. उसने अपने सेनापति रामसिंह को 70,000 सैनिकों की बड़ी सेना के साथ आहोम से दो दो हाथ करने के लिए असम भेजा. उधर, लाचित ने अपने किलों की सुरक्षा मजबूत करने के लिए सभी आवश्यक तैयारियां प्रारंभ कर दी.
गुवाहाटी के पास सराईघाट नामक स्थान है. वहाँ से दुश्मन सेना अन्दर आ सकती थी. लाचित ने वहाँ रातोंरात मिट्टी से मजबूत तटबंध के निर्माण का आदेश दिया. तटबंध को स्थानीय भाषा में ‘गड़’ कहा जाता है. जिसका उत्तरदायित्व लाचित ने अपने मामा को दिया था. इस निर्माणकार्य में उनके मामा ने लापरवाही की थी. इस कारण लाचित ने – “देशतकै मोमाई डाङर नहय” (देश से बड़ा मामा नहीं है) यह कहते हुए उनका सर धड़ से अलग कर दिया. इसलिए इसे ‘मोमाई कटा गड़’ भी कहा जाता है. इस तटबंध के अवशेष आज भी देखने को मिलते हैं.
सन् 1671 में आहोम सेना और मुगलों के बीच ऐतिहासिक लड़ाई हुई. रामसिंह को अपने गुप्तचरों से पता चला कि आन्धारुबालि नामक स्थान पर रक्षा इंतजामों को भेदा जा सकता है और गुवाहाटी को फिर से हथियाया जा सकता है. उसने इस अवसर का फायदा उठाने के उद्देश्य से मुगल नौसेना खड़ी कर दी. उसके पास 40 जहाज थे, जो 16 तोपों और छोटी नौकाओं को ले जाने में समर्थ थे.
भारतवर्ष के इतिहास में यह पहला महत्वपूर्ण युद्ध था, जो पूर्णतया नदी में लड़ा गया. ब्रह्मपुत्र नदी की दोनों तरफ मुगल और आहोम सेना डटी हुई थी. मुगलों के मुकाबले आहोम सेना की संख्या कम थी. मगर लाचित ने मुगल सिपाहियों के ऊपर दबाव बनाने की तरकीब निकाली. उन्होंने प्रातः काल अपने सिपाहियों को बार बार नहाने के लिए नदी में जाने का आदेश दिया. जिससे नदी में नहाने वाले सिपाहियों का घण्टों तांता लगा रहा. मुगल सैनिकों को लगा आहोम सैनिकों की संख्या बहुत बड़ी है. शाम को नदी के किनारे दूर-दूर तक अनगिनत मशालें एक साथ जलाई गयीं. जिसे देखकर मुगल सैनिक और डर गये.
लाचित ने नौसैनिक युद्ध में भी नई तकनीकों का प्रयोग किया. इस युद्ध में लाचित ने अनेक आधुनिक प्रयुक्तियों का उपयोग किया. यथा – पनगढ़ बनाने की प्रयुक्ति. युद्ध के दौरान ही बनाया गया नौका-पुल छोटे किले की तरह काम आया. आहोम की छोटी नौकाएँ अत्यंत तीव्र और घातक सिद्ध हुईं. इन सभी आधुनिक प्रयुक्तियों ने लाचित की आहोम सेना को मुगल सेना से अधिक सबल और प्रभावी बना दिया. दो दिशाओं से हुए प्रहार से मुगल सेना में हड़कंप मच गया. मुगल सेना के पाँव उखड़ गये और वह मानस नदी के पार भाग खड़ी हुई.
दुर्भाग्यवश लाचित इस समय अत्यन्त अस्वस्थ हो गए. उनका चलना-फिरना भी अत्यंत कठिन हो गया. उन्होंने अपनी चारपाई को नौका में लगवाया और चारपाई पर लेटे-लेटे ही अपनी सेना का संचालन किया. इस प्रकार उन्होंने असाधारण नेतृत्व क्षमता और अदम्य साहस का परिचय दिया. सराईघाट की इस प्रसिद्ध लड़ाई में मुगलों के लगभग 4,000 सैनिक मारे गये.
लाचित ने युद्ध तो जीत लिया पर अपनी बीमारी को मात नहीं दे सके. आखिर सन् 1672 में उनका देहांत हो गया. भारतीय इतिहास लिखने वालों ने इस वीर की भले ही उपेक्षा की हो, पर असम के इतिहास और लोकगीतों में यह चरित्र मराठा वीर छत्रपति शिवाजी और मेवाड़ के महाराणा प्रताप की तरह अमर है.
लाचित बरफुकन और आहोम सेना की वीरता एवम् पराक्रम के बारे में मुगल सेनापति रामसिंह ने भी प्रशंसा करते हुए लिखा है – “यहाँ के लोग घुड़सवारी, नौकाचालन, मिट्टी काटना, युद्ध, खेती, व्यापार आदि सभी कार्यों में निपुण हैं. ऐसे कर्मठ लोगों के रहते इस देश को कोई भी नहीं जीत सकता.”
सराईघाट की इस अभूतपूर्व विजय ने असम के आर्थिक विकास और सांस्कृतिक समृद्धि की आधारशिला रखी. आगे चलकर असम में अनेक भव्य मंदिरों आदि का निर्माण हुआ. यदि सराईघाट के युद्ध में मुगलों की विजय होती, तो वह असमवासी हिन्दुओं के लिए सांस्कृतिक विनाश और पराधीनता लेकर आती. मरणोपरांत भी लाचित असम के लोगों और आहोम सेना के हृदय में अग्नि की ज्वाला बनकर धधकते रहे. उनके प्राणों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया.
लाचित द्वारा संगठित सेना ने 1682 में मुगलों से एक और निर्णायक युद्ध लड़ा. इसमें उसने अपने ईटाखुली किले से मुगलों को खदेड़ दिया. इसके बाद मुगल फिर कभी असम की ओर नहीं आए.
लाचित को सम्मान देने के लिए राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के सर्वश्रेष्ठ कैडेट को ‘लाचित बरफुकन स्वर्ण पदक’ से सम्मानित किया जाता है. बरफुकन की स्मृति को चिरस्थायित्व प्रदान करने के लिए जोरहाट जिले के हुलुंगापार में समाधि बनाई गई है.
जब तक ब्रह्मपुत्र का अविश्रान्त प्रवाह रहेगा तब तक हम भारतवासी उनके पराक्रम की गौरवगाथा का स्मरण करते रहेंगे.