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तपस्या स्वर्ण जयंती समारोह
कोच्चि (केरल)। तपस्या कला-साहित्यवेदी (कला और साहित्य का मंच) का स्वर्ण जयंती समारोह आयोजित हुआ। इसका उद्घाटन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने किया। उन्होंने कहा कि साहित्य और कला समाज को संस्कृति और श्रेष्ठ विचार प्रदान करते हैं। भारत का दर्शन है – आत्मनो मोक्षार्थं, जगत हिताय च। सत्य, दया, पवित्रता और तप (ध्यान), ये चारों ही धर्म की मूल संरचना का गठन करते हैं। धर्म ही सफल एवं सार्थक सामाजिक जीवन का आधार है।
हमें उन चार कारकों के आधार पर सामाजिक जीवन के पुनर्निर्माण की जिम्मेदारी लेनी होगी। हमें ये गुण हर व्यक्ति में पैदा करने होंगे। वसुधैव कुटुंबकम् वह महान विचारधारा है, जिसका भारत ने हमेशा समर्थन किया है और यह हमारी परंपरा है। इसी विचारधारा के आधार पर हमें अपने राष्ट्रीय जीवन को एक ‘आदर्श’ के रूप में प्रस्तुत करना होगा। इसकी पूर्ति कला एवं साहित्य से हो सकती है।
सरसंघचालक जी ने कहा कि पूरी दुनिया भारत की ओर आशा से देख रही है। हमें उन आशाओं को पूरा करना है। ‘तपस्या’ पर उस मिशन के लिए कला और साहित्य को सुसज्जित करने की जिम्मेदारी है। इसके लिए ‘तपस्या’ को अपने कार्यकर्ताओं को तैयार करना होगा। ‘तपस्या’ केरल में जो करती है, वही संस्कार भारती पूरे देश में करती है। उन्होंने ‘तपस्या’ की 50 साल की लंबी गतिविधियों के लिए सराहना की।
समारोह की अध्यक्ष आशा मेनन ने कहा कि संगीत, साहित्य और ध्यान से रहित एक पीढ़ी आ रही है। यदि युवा हतोत्साहित होंगे तो देश का भविष्य उज्ज्वल नहीं होगा। अन्य देश अपने बच्चों को राष्ट्रीय भावना और देशभक्ति के साथ तैयार करते हैं, लेकिन हमारी युवा पीढ़ी ऐसी दयनीय स्थिति में पहुंच जाती है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। संस्कार भारती के राष्ट्रीय अध्यक्ष मैसूर मंजूनाथ ने परंपरा को आगे बढ़ाने में कलाकारों और लेखकों के महत्व को रेखांकित किया।
इस अवसर पर लक्ष्मीदास ने दिवंगत वयोवृद्ध संघ प्रचारक पद्म विभूषण पी. परमेश्वरजी द्वारा लिखित कविता प्रस्तुत की। तपस्या के महासचिव के.टी. रामचंद्रन ने धन्यवाद ज्ञापित किया। ‘तपस्या’ की शुरुआत 1975-76 में आपातकाल के दौरान हुईं। तब से यह संगठन कला और साहित्य के क्षेत्र में अनुकरणीय गतिविधियां चला रहा है। राज्य के सभी प्रकार के कलाकारों और लेखकों ने शुरुआत से ही ‘तपस्या’ के मंच की शोभा बढ़ाई है।