– प्रभाकर शुक्ला, मुंबई
पुरानी कहावत है कि जहां गुड़ होता है, वहीं चीटियां आती हैं. फ़िल्मी दुनिया पर भी यही बात लागू होती है. नाम, पैसा, शोहरत, ऊंची सोसाइटी में पहुँच और बहुत कुछ मिल जाता है, अगर आप इस दुनिया में नाम बनाने में सफल हो गए. अक्षय कुमार ने स्वयं बताया कि जब पहली बार मॉडलिंग की और दो घंटे की शूटिंग के उन्हें १० हज़ार रुपये मिले तो उसी समय उन्होंने एक्टर बनने का फैसला किया क्योंकि इतनी कम मेहनत और कम समय में इतना पैसा इस क्षेत्र में ही मिल सकता है. सच भी है कि पिछले साल उनकी कमाई फ़ोर्ब्स पत्रिका के अनुसार ३६५ करोड़ रही, लगभग १ करोड़ प्रतिदिन. ऐसे ही बहुत सारे सितारे हैं जो करोड़ों रुपये रोज़ का लेते हैं, बाकी सब सुविधाएँ अलग से. यही कारण है कि लगभग हर बड़ा स्टार अपने बेटा या बेटी को इस क्षेत्र में लाना चाहता है, भले ही वह लायक हो या न हो.
अगर किस्मत अच्छी हुई तो बड़ा स्टार बन जाएगा, नहीं तो दो चार फ्लॉप फिल्में करने के बाद भी ५-१० लाख रुपये फीता काटने, उद्घाटन करने या शादी ब्याह में शामिल होने के मिल ही जाएंगे. कोई पढ़ाई की ज़रुरत नहीं, कोई नौकरी करने की ज़रुरत नहीं. बस घर बैठे शक़्ल दिखाओ पैसे कमाओ. कुछ और करने का मन करे तो अवार्ड फंक्शन, रियलिटी शो या फिर बिग बॉस टाइप के शो हैं टाइम पास करने के लिए.
आप खुद ही अंदाजा लगा लीजिये ऐसे बहुत सारे चेहरे आपको टीवी, स्टेज पर या सोशल मीडिया पर यह सब करते मिल जाएंगे. अब आप कितने भी टैलेंटेड एक्टर हों, आपको शायद काम भी न मिले. लेकिन यह तथाकथित स्टार जिनमें से ज्यादातर ८वीं और दसवीं फेल, अंडर ग्रेजुएट हैं और जिनका सामान्य ज्ञान राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री में भेद भी नहीं जानता. वो हमें और आपको दुनिया के हर विषय पर ज्ञान बांटते हैं और शेखी बघारते हैं. बस यहीं से शुरू होता है – एकाधिकारवाद और वंशवाद/भाई-भतीजावाद (नेपोटिस्म) फ़िल्मी दुनिया का, यानि सुनहरे परदे की काली सच्चाई.
यह कोई नयी बात नहीं है. वंशवाद/भाई भतीजावाद (नेपोटिस्म) आपको दुनिया के हर क्षेत्र में मिलेगा. लेकिन फ़िल्मी दुनिया में यह सबको ज्यादा नज़र आता है क्योंकि यह हमेशा मीडिया की नज़र में रहता है, इस पर गॉसिप लिखे जाते हैं. कई चैनल, अखबार और वेबसाइट इसके भरोसे ही चलते हैं. जैसे कि फलां स्टार के बेटे ने आज पोट्टी नहीं की, या फलानी हेरोइन का किस-किस के साथ चक्कर चल रहा है या इस हीरो हेरोइन के ऐसे कपड़े पहनते ही फैशन का भूचाल आ गया.
हमें ‘इस्लामोफोबिया’ नहीं, ‘देशद्रोहीफोबिया’ और ‘गद्दारोफोबिया’
लगभग १०० साल पहले, जब भारतीय फिल्म जगत की शुरुआत हुई तब से मूक, बोलने वाली, काली सफ़ेद, रंगीन और सिनेमास्कोप से ७० एम एम तक का एक लंबा सफर है. पहले फिल्में धार्मिक विषयों पर बननी शुरू हुईं. फिर सामाजिक, ऐतिहासिक, पारिवारिक, रहस्य रोमांच, मार-धाड़, संगीतमय और सत्य घटनाओं से होती हुई आज यहां तक पहुंचीं. लेकिन आज भी सफल लोगों की गिनती कम और असफल ज्यादा मिलेंगे. कारण वही वंशवाद, एकाधिकारवाद, लालच और धोखाधड़ी. एक सफल आदमी को देख कर हज़ारों लोग वैसी ही सफलता पाने के लिए दौड़े चले आते हैं, उनमे से कुछ रुक पाते हैं, कुछ हवा में उड़ जाते हैं, कुछ आसमान छू जाते हैं, कुछ मौत को गले लगा लेते हैं. इस दुनिया में बहुत सफल लोगों को भी सब कुछ लुटा कर सड़क पर आते देखा है और लोगों को फुटपाथ से महलों में जाते भी देखा है. इसी का नाम माया नगरी है. यह दुनिया फंतासी भी है, छलावा भी है, भूल भुलैया भी है और जुआ भी है. दांव चल गया तो राजा नहीं तो रंक.
प्रारंभिक दिन
जब भारत में “राजा हरिश्चंद्र” (१९१३) से इस विधा की शुरुआत दादा साहेब फाल्के ने की तो उन्होंने भी अपना सब कुछ दांव पर लगा कर एक जूनून की तरह इस विधा को जिया, पाला पोसा और लोगों में इसके प्रति लगाव पैदा किया. बहुत से लोग इस क्षेत्र में आए, उन्होंने इसकी बुनियाद मजबूत की. स्टूडियो बनाए, लोगों को रोजगार दिया, धार्मिक और ऐतिहासिक फ़िल्में बनाई और लोगों तक पहुंचाईं, जिसने आज़ादी की लड़ाई से लेकर सामाजिक जनजागरण में काफी सहयोग दिया.
इनमें ज्यादातर मराठी, बंगाली और पारसी निर्माता, निर्देशक रहे जैसे वी. शांताराम, हिमांशु रॉय, बिमल रॉय, अर्देशिर ईरानी, शशधर मुख़र्जी, सोहराब मोदी और भी बहुत सारे गुणी प्रतिभावान लोग. जिन्होंने इस क्षेत्र में जूनून की हद तक काम किया और बहुत सारे प्रतिभावान लोगों को मौका भी दिया. क्या कभी बॉम्बे टॉकीज़ में काम करने वाला एक लैब तकनीशियन हीरो बनने की सोच सकता था, लेकिन हिमांशु रॉय ने कुमुद लाल गांगुली को अशोक कुमार जैसा नायाब हीरो बनाया. ऐसे बहुत से किस्से मिलेंगे, जहां लोग सफलता की ऊंचाई पर पहुंचे, सिर्फ अपनी प्रतिभा के दम पर.
लेकिन पारखी नज़रें भी ऐसी थीं कि कला और कलाकार को पहचान लेती थीं. उस समय गुजराती, मारवाड़ी, सिंधी और पारसी व्यापारी स्टूडियो से लेकर फिल्मों में पैसे लगाते थे और मुनाफा कमाते थे. लेकिन रचनात्मक और कला के विषय में हस्तक्षेप नहीं करते थे………….क्रमशः
(लेखक निर्देशक व सेंसर बोर्ड के पूर्व सदस्य हैं)