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राष्ट्र समर्पित इतिहास पुरुष “ठाकुर राम सिंह”

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चेतराम गर्ग

आदिकाल से भारतीय सभ्यता में समाज के उत्थान और सुखद भविष्य के निर्माण में हमारे ऋषि मुनियों एवं सेवा की भावना लिए महापुरुषों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है. मुनि वृत्ति धारण करने वाले कुशल संगठक और युगपुरुष स्वर्गीय ठाकुर रामसिंह जी भी उनमें से एक हैं. स्वर्गीय ठाकुर राम सिंह जी का जन्म एक साधारण किसान परिवार में हुआ था.

उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए ठाकुर जी लाहौर चले गये. लाहौर के प्रसिद्ध एफ.सी. कालेज में ठाकुर जी एम.ए. इतिहास में प्रथम स्थान प्राप्त कर गोल्ड मेडल हासिल किया. 1941- 42 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देश के युवाओं में जिस राष्ट्र भक्ति का बीजारोपण कर रहा था, उससे श्रद्धेय ठाकुर राम सिंह अछूते न रहे और इन्होंने अपना सर्वस्व राष्ट्र यज्ञ में आहूत कर दिया. सर्वप्रथम वे कांगड़ा के जिला प्रचारक बने. 1949 में उन्हें प्रांत प्रचारक के नाते असम भेजा गया. सन् 1949 से 1971 तक पूरे 22 वर्ष असम प्रांत में रहे. वे कहते थे – संघ का कार्य हिन्दू संगठन का है. किसी जाति, सम्प्रदाय भाषा-भाषी जाति-बिरादरी का नहीं. सन् 1972 में वे पुनः पंजाब प्रान्त में सह प्रांत प्रचारक के दायित्व पर आए. 1972 से लेकर 1988 तक पंजाब प्रांत के प्रचारक, सह क्षेत्र प्रचारक, क्षेत्र प्रचारक अखिल भारतीय कार्यकारी मण्डल के सदस्य के रूप में संगठन कार्य को ऊर्जा देते रहे.

इतिहास कार्य के लिए ठाकुर जी का चयन

बाबासाहब आप्टे स्मारक समिति के अन्तर्गत विस्मृत इतिहास की खोज में जुटे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मा. मोरोपन्त पिंगले जी ने इतिहास पुनर्लेखन जैसे कठिन कार्य का गुरुतर भार ठाकुर राम सिंह जैसे कुशल कार्यकर्ता के हाथ में सौंपा. सन् 1988 में इतिहास का काम आने पर ठाकुर राम सिंह सर्वप्रथम इतिहास लेखन पर जोर न देकर इतिहास लेखन के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने पर दिया. जिला खण्ड स्तर तक समितियां बनाई गईं. देश के हर कोने तक ठाकुर जी पहुंचे और कार्य को नई ऊंचाईयां दीं. धीरे-धीरे इस कार्य ने अखिल भारतीय स्वरूप ले लिया. संगठन के साथ ही समिति के कार्य एवं उद्देश्य निश्चित हुए. उन्होंने विभिन्न प्रकार के प्रकल्प भी हाथ में लिये. दिल्ली में योजना के निमित्त बाबा साहब आपटे भवन बनाया. यह कार्य संचालन का केन्द्र बना.

योजना का प्रथम अधिवेशन

सन् 1980 से इतिहास संकलन योजना का कार्य विधिवत शुरू हो गया था. दस वर्ष की मेहनत के बाद दिसम्बर 1991 में राष्ट्रीय अधिवेशन उज्जैन में सम्पन्न हुआ. इस अधिवेशन में 70 इतिहासकारों ने भाग लिया था. विधिवत “योजना” का संविधान बना. कार्य संचालन की एक समिति बनी. उस समिति के अध्यक्ष श्रद्धेय ठाकुर राम सिंह जी थे. सन् 1992 में आन्ध्र प्रदेश के वारंगल नगर में द्वितीय राष्ट्रीय अधिवेशन में ठाकुर राम सिंह को सर्वसम्मति से योजना का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया और केन्द्र दिल्ली निश्चित हुआ. तीन नवम्बर 1996 को चतुर्थ राष्ट्रीय अधिवेशन के अवसर पर उनके द्वारा दिया गया भाषण महत्त्वपूर्ण है. उन्होंने अपने उद्बोधन में इतिहास पुनर्लेखन के कुछ बिन्दुओं पर प्रकाश डाला था. ये बिन्दु इस प्रकार हैं ;

  1. भारत के वास्तविक इतिहास को समक्ष रखना.
  2. भारत के इतिहास को भारतीय कालगणना के कालक्रम से लिखना.
  3. प्रकृति के इतिहास को समक्ष रखना.
  4. प्रथम मानवोत्पत्ति से लेकर अब तक सटीक घटनाक्रम से इतिहास का लेखन.

भारतीय इतिहास दृष्टि

ठाकुर रामसिंह जी ने विकृत भारतीय इतिहास के जो प्रमाण इतिहासकारों, चिन्तकों एवं समाज के समक्ष रखे उनके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए जा रहे हैं –

– ग्रीक आक्रान्ता सिकन्दर को विश्वविजेता और महान बताने वाले इतिहासकार सिकन्दर के द्विगर्त क्षेत्र से आगे न बढ़ने और डोगरा वीरों द्वारा मारे जाने पर मौन हैं.

– इस्लाम के गाजी सुल्तान मुहम्मद गजनवी के साथ आए इतिहासकार अल्बेरूनी भारत का इतिहास जानने के लिए पर्याप्त सामग्री साथ ले गया. वही इतिहासकार जाते-जाते यह कहता है कि भारत के लोगों को इतिहास लिखने की कला नहीं आती. इतिहासकार अल्बेरूनी की मंशा पर आज भी मौन हैं.

– नालन्दा और विक्रमशिला हिन्दू विश्वविद्यालयों को जलाने वाले मुहम्मद बख्त्यार खिलजी को इतिहासकार गाजी और योद्धा चित्रित करते हैंए परन्तु उसका अन्त करने वाले भारतीय योद्धाओं पर इतिहासकार मौन हैं.

– राजस्थान का इतिहास बताता है कि मेवाड़ के सिसोदियों और जोधपुर के राठौड़ों ने मिलकर जहांगीर को युद्ध में 17 बार हराया था. इतिहासकार इस पर या तो मौन साधे हुए हैं या फिर इन घटनाओं को अधिमान देना ही नहीं चाहते.

– मेवाड़ के शूरवीर राणा राजसिंह ने औरंगजेब को उदयपुर नगर की सुरक्षा दीवार के बाहर पराजित किया था. औरंगजेब का गुणगान तो इतिहासकार करते हैं परन्तु मेवाड़ के शूरवीरों को इतिहास के पन्नों में कोई स्थान नहीं दिया गया.

– मुस्लिम शासकों के अत्याचारों और कत्लेआम को युद्ध कौशल और भारत के योद्धाओं को द्रोही कहना कहां तक तर्कसंगत है. इतिहासकार इन पक्षों पर आज भी चुप्पी साधे हुए हैं.

– मुस्लिम आक्रान्ता एक हाथ में तलवार और एक हाथ में कुरान लेकर भारत की धरती पर आए थे. इतिहासकार इस दृष्टिकोण को नजरन्दाज करते हुए दिखाई देते हैं और महाराणा को क्रूर यातना देने वाले अकबर को “दि ग्रेट” घोषित करने से भी नहीं चूकते.

– एक हजार वर्षीय हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष में हिन्दू प्रतिरोध के शौर्य की उपरोक्त और अन्य कई घटनाओं का इतिहासकारों ने इतिहास में स्थान न देकर उनको छुपाने का कुप्रयास किया है. इतिहास का यह अक्षम्य विकृतिकरण है.

– हिन्दू शौर्य की सत्य घटनाओं और प्रतिरोधों को इतिहासकारों ने अपनी लेखनी में स्थान नहीं दिया जबकि इस्लाम के मौलवियों, मौलानाओं, और कवियों ने सत्य को स्वीकार किया है कि उनकी इस्लामीकरण की वैश्विक योजना हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण असफल हुई. उर्दू का कवि हाली लिखता है कि,

वह दीने हिजाजी का बेबाक बेड़ा.

निशान जिसका अक्से में पहुंचा..

किया पै सफर जिसने सातों समन्दर.

डूबा वह गंगा के दहाने में आकर..

इतिहासकारों ने इतने बड़े सत्य को विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की पाठ्यपुस्तकों तक पहुंचने नहीं दिया.

– भक्ति आन्दोलन के उदय से हिन्दू समाज जाग उठा था और मुगलों के साम्राज्य का अन्त हुआ. इसी बीच दूसरी विदेशी शक्ति अंग्रेजों का भारत भूमि पर पदार्पण होता है. अंग्रेज शत्रु से 4 महत्त्वपूर्ण युद्ध हुए पांचवां युद्ध 1857 की क्रान्ति के रूप में समक्ष आया. अंग्रेज वायसराय लार्ड हार्डिंग तब भारत से भागने के लिए अपना घोड़ा तैयार कर चुका था परन्तु अपने ही देश के कुछ देशद्रोहियों ने अंग्रेजों के साम्राज्य को बचा लिया और लड़ने वाले भारतीय क्रान्तिवीरों को देशद्रोही बना डाला. ये तथ्य इतिहास की पुस्तकों में तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किए गए हैं.

– भारत के इतिहास लेखन के लिए लन्दन में एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना हुई. 18 अप्रैल, 1865 को सोसायटी के अध्यक्ष स्ट्रांगफील्ड की अध्यक्षता में एक सोची समझी रणनीति के तहत आर्यों के मूल स्थान के विषय में मध्य एशिया का सिद्धान्त प्रतिपादित करने का प्रस्ताव पारित हुआ. इतिहास के विकृतीकरण के इस प्रस्ताव ने सारे विश्व में यह भ्रम फैला दिया कि हिन्दुओं के पूर्वज “आर्य” मध्य एशिया से आक्रान्ता के रूप में भारत में आए अतः उनका यह देश नहीं. उसके पश्चात् मुस्लिम भारत में आए, उनका भी यह देश नहीं. तत्पश्चात् अंग्रेज भारत में आए उनका भी यह देश नहीं. ये तीनों विदेशी हैं. अंग्रेजों ने आर्य सभ्यता के प्रमाणिक ग्रन्थ ऋग्वेद तक को ईस्वी सन् के काल के साथ जोड़ने का प्रयास किया. आज वैज्ञानिक शोधों से उपर्युक्त सिद्धान्त निरस्त हो चुके हैं, परन्तु इतिहासकार इन पर आज भी मौन हैं.

– इतिहास के विकृतीकरण की नींव पड़ चुकी थी. इस विकृतीकरण को कार्यान्वित करने के लिए 1885 में इण्डियन नेशलन कांग्रेस ने हिन्दू मुस्लिम इसाई तीनों भाई-भाई के सिद्धान्त को आविष्कृत किया. परिणाम स्वरूप आर्यों को भारत में बाहर से आया हुआ प्रमाणित कर डाला. स्वतन्त्र भारत में आज भी यही सिद्धान्त सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है.

– अंग्रेजों ने एक रणनीति के तहत देश की अखण्डता को नष्ट करने के लिए यह प्रचार किया कि भारत कभी भी एक देश नहीं रहा. यह तो एक उपमहाद्वीप है. इसी कारण इस देश में अनेक जातियां और अनेक राष्ट्र हैं. इतिहासकार इन सब बातों पर भी मौन हैं.

– अंग्रेजों ने वेदों को गडरियों के गीत घोषित कर भारतीय इतिहास के अकाट्य प्रमाणों को काल्पनिक होने का प्रचार आरम्भ किया. अंग्रेजों ने हिन्दू को सम्प्रदाय और यहां के साहित्य एवं इतिहास को साम्प्रदायिक बना डाला.

– वर्तमान में विद्यालयों महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह विलियम जोन्स द्वारा आविष्कृत कालक्रम के आधार पर लिखा गया है. यह कालक्रम है ईसा के जन्म से सम्बन्धित ईसाई अवैज्ञानिक कालगणना के अनुसार निर्धारित कालक्रम. विलियम जोन्स ने इसी कालक्रम को भारतीय कालगणना को निरस्त करने के लिए धारदार हथियार के रूप में प्रयोग में लाया. भारतीय कालगणना को अस्वीकार करते हुए उसने यह घोषणा कर डाली कि सिकन्दर के भारत के आक्रमण की तिथि ई.पू. 327 ही एक मात्र सत्य तिथि है. यहीं से उसने भारत के इतिहास लेखन का मसौदा तैयार किया.

 

(लेखक – निदेशक, ठाकुर जगदेव सिंह स्मृति शोध संस्थान नेरी, हमीरपुर हिमाचल प्रदेश)

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