अहिंसावादी क्रांतिकारियों की कार्यपद्धति पूर्णतया भिन्न होती है. वे इस बात को नहीं मानते कि यदि ध्येय अच्छा हो तो कोई भी साधन अपनाया जा सकता है. अपनी अंतिम अनिवार्य विजय का उन्हें दृढ़ विश्वास होता है. क्योंकि उनकी धारणा में सत्य की (ईश्वर की) विजय होती है. वे मानते हैं क़ि जो पराजित होने से अस्वीकार कर देते हैं, वे कभी पराजित नहीं हो सकते. सत्य के संघर्ष में असफलता नहीं हो सकती, आंशिक असफलताएं हो सकती हैं.
उनका दृढ़ विश्वास होता है क़ि किसी व्यक्ति पर उसकी स्वैच्छिक सहमति के बिना लम्बे समय तक शासन नहीं किया जा सकता. वे व्यक्ति का हिंसा द्वारा उसका शारीरिक विनाश नहीं, परन्तु प्रायश्चित द्वारा शनै:शनै शुद्धिकरण चाहते हैं. अहिंसक क्रांति के पूर्व अनिवार्यतः क्रन्तिकारी जनजागरण होता है, जिसे श्री अरविन्द “पैसिव रेजिस्टेंस” (सहन प्रतिरोध) कहते हैं. लोकमान्य तिलक की चतुर्सूत्री और महात्मा गांधी के सत्याग्रह, आदि में संघर्ष के साथ-साथ जनजागरण भी अभिप्रेत था. उनका आधार था जन संघर्ष द्वारा जनजागरण और जनजागरण द्वारा जन संघर्ष. — द. बा. ठेंगड़ी (‘संकेत रेखा’ पृ. 342)
श्रद्धेय दत्तोपंत ठेंगड़ी जैसे मनीषी, साधुचरित पुरुषोत्तम राष्ट्र जीवन में विरले ही होते हैं. सादा जीवन, गहन अध्ययन और चिंतन, विचारों की स्पष्टता, दृढ़ विश्वास और लक्ष्य प्राप्ति के लिए अदम्य उत्साह, इन सभी सद्गुणों का प्रतीक उनका जीवन एवं कार्य रहे हैं. “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत.” इस स्वामी विवेकानंद के उपदेशात्मक वचनों में एक सूत्रवाक्य का उन्होंने आजीवन पालन किया.
उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल जी ने कहा था….“मेरा ठेंगड़ी जी से पुराना नाता रहा है. मैं भोपाल की बैठक में उपस्थित था, जिसमें “भारतीय मजदूर संघ” बनाने का निर्णय लिया गया था. इस नए संगठन का नाम तय करने के लिए चर्चा के दौरान, ठेंगड़ी जी ने “श्रमजीवी संगठन” इस नाम का सुझाव किया था. परन्तु, संगठन का नाम सरल एवं सार्थक होना चाहिए इस बात को ध्यान में रखते हुए “भारतीय मजदूर संघ” रखा गया. मुझे लगता है कि ट्रेड यूनियनवाद आज संकट का सामना कर रहा है. श्रमिकों के हितों की रक्षा की जानी चाहिए, लेकिन साथ ही साथ देश के हित को भी ध्यान में रखना चाहिए. श्रमिक आंदोलन संकट में है और बदलते परिदृश्य में चीजों को कैसे संतुलित किया जाए, इस पर सकारात्मक विचार किये जाने की आवश्यकता है. ठेंगड़ी जी ने जो कुछ भी लिखा है, उसे हम सभी को पढ़ना चाहिए. मुझे लगता है उनका लेखन एवं विचार लंबे समय तक हमारा मार्गदर्शन करेंगे”.
मैं 2001 में ग्यारहवीं कक्षा की पढ़ाई करते समय गडचिरौली के संघ कार्यालय में रहता था. मराठी में प्रकाशित होने वाली विवेक मासिक नियमित पढ़ता था. उसमें और अन्य पत्रिकाओं में दत्तोपंत जी के लेख और भाषण पढ़ने की कोशिश करता था. उन दिनों स्वदेशी जागरण मंच का काम महारष्ट्र में अच्छी गति पकड़ रहा था. दो-तीन साल पहले ही हमने खुली अर्थ व्यवस्था (भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण) का स्वीकार किया था. देश के सामने डंकेल प्रस्ताव, वैश्विक व्यापार संगठन की शर्तें, आदि विषय खड़े थे. इन विषयों पर उनके लेख, भाषण, शोधपत्र नियमितता से प्रकाशित होते थे. उस आयु में बहुत ज्यादा तो कुछ समझ नहीं पाता था, परन्तु निश्चित रूप से मेरी जिज्ञासा इन अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को लेकर जागृत हुई थी. आगे चलकर मैंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से एम.ए. (अंतरराष्ट्रीय सम्बन्ध) एवं एम.फिल. (अंतरराष्ट्रीय संगठन) में किया. इस तरह से उनके बौद्धिक कार्य का मेरे निजी जीवन में लाभार्थी हूं.
सैद्धांतिक बौद्धिकता एवं वास्तविक कामों में सक्रियता इन क्वचित पाए जाने वाले गुणों का मूर्तरूप श्रद्धेय ठेंगड़ी जी थे. उन्होंने अपने जीवन काल में भारतीय मजदूर संघ, स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय किसान संघ, सामाजिक समरसता मंच, सर्व पंथ समादर मंच, पर्यावरण मंच की केवल स्थापना ही नहीं अपितु उनको भारत वर्ष के हर कोने तक पहुँचाने का कार्य किया. उन्हीं के कार्य, प्रेरणा एवं अथक मार्गदर्शन के कारण यह संगठन न केवल राष्ट्र प्रवर्तन के वाहक बने, वे सभी राष्ट्र के समर्थ प्रहरी भी बने. इसी के साथ अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय अधिवक्ता परिषद, अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत एवं भारतीय विचार केंद्र इन सगठनों के संस्थापक सदस्य भी रहे.
उनका व्यक्तित्व इतने तक ही समिति नहीं रहा. वास्तव में स्वामी विवेकानंद, श्री अरविन्द, श्री गुरूजी एवं दीनदयाल उपाध्याय जी जैसे राष्ट्र ऋषियों की चिंतन की श्रृंखला में बसने वाले महान चिंतक भी थे. उन्होंने लगभग 200 से अधिक छोटी-बड़ी पुस्तकें लिखीं, सैकड़ों प्रतिवेदन प्रकाशित किये तथा हजारों की संख्या में आलेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए.
संघ प्रचारक होने के नाते कुशल संगठक होना उनके स्वाभाव की विशेषता रही. उनके जीवन का लम्बा समय केरल और पश्चिम बंगाल में बीता. वे जहां भी गए, वहां के कार्यकर्ताओं एवं नागरिकों को अपने ही में से एक प्रतीत हुए. मराठी, हिंदी, अंग्रेजी के साथ-साथ मलयालम एवं बंगाली भाषा पर भी उनका प्रभुत्व था. उन पर लिखे संस्मरण पढ़ने पर पता चलता है कि वे अजात शत्रु थे. वे विपरीत विचारों के कार्यकर्त्ता एवं लोगों के साथ भी सहजता के साथ संवाद करते थे. भारत की सनातन विचार परंपरा के साथ अन्य ज्ञान परम्पराओं के गहन अध्येता एवं चिंतक तो वे थे ही, पर कार्ल मार्क्स से लेकर उमर ख़य्याम की रुबाइयों तक पुराने एवं अद्यावत साहित्य का अध्ययन भी उन्होंने किया था. राज्यसभा में सांसद के नाते भी उन्होंने भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में सकारात्मक राजनीती की अमिट छाप छोड़ी.
उनके लेख और भाषणों को संकलित कर प्रकाशित “तीसरा विकल्प” पुस्तक पढ़ी है. उसमें न्याय व्यवस्था, संविधान, स्वदेशी के विविध आयाम, अर्थशास्त्र की हिन्दू संकल्पना, औद्योगिक नीतियाँ, आधुनिकीकरण और उसमें डूबते-उतरते अर्थसंकल्प, पर्यावरण, तकनीकी परिवर्तन के साथ स्वयंरोजगार की कल्पना आदि विषयों का गहन चिंतन हैं. श्रद्धेय दत्तोपंत जी केवल समस्याओं को उजागर कर ठिठकते नहीं, बल्कि उन समस्याओं का समाधान और उस दिशा में संभानाओं पर भी अधिकरवानी से विषय विवेचन करते.
एक महान चिंतक, सक्षम नेता, उत्कृष्ट संगठक, इन दुर्लभ विषेशताओं से सम्पन्न राष्ट्रऋषि की आज १७वीं पुण्यतिथि है. उनके विचार एवं कार्य से प्रेरणा लेकर उनके दिखाए पथ पर मार्गक्रमण करना ही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी.