प्रणय कुमार
लोकतांत्रिक मूल्यों एवं मानवाधिकारों की रक्षा का दंभ भरने वाले अमेरिका और पश्चिमी जगत के यथार्थ से हम अनभिज्ञ नहीं. ट्रंप-बाइडेन विवाद और हाल ही में संपन्न मतदान एवं मतगणना के मध्य हुई हिंसा ने सबसे बड़े और मज़बूत लोकतंत्र के दावे की कलई खोलकर रख दी है. संपूर्ण विश्व ने तथाकथित भव्यता और श्रेष्ठता के पीछे के स्याह-अंधेरे सच को देखा और जाना. दुनिया भर में अपनी चौधराहट जताने-दिखाने वाले आज स्वयं सवालों के घेरे में हैं.
इसके विपरीत भारत का लोकतंत्र तमाम बाधाओं-चुनौतियों से गुजरता हुआ उत्तरोत्तर मज़बूत एवं परिपक्व हुआ है. हमारे देश में कभी सत्ता-हस्तांतरण को लेकर विवाद तो दूर, मतभेद तक खुलकर सामने नहीं आए. एकाध शासकों ने यदि अधिकारों के दुरुपयोग की चेष्टा भी की तो उन्हें जनसाधारण की तीव्र प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा, उस जनसाधारण का जिसे पश्चिमी जगत ने सदैव हेय दृष्टि से देखा और प्रचारित किया.
दरअसल, लोकतंत्र महज एक शासन-प्रणाली ही नहीं, जीवन-व्यवहार, दर्शन और संस्कार है. यह दर्शन और संस्कार भारत की चित्ति है, प्रवृत्ति है, प्रकृति है, संस्कृति है. हम यों ही नहीं संसार के सबसे प्राचीन व परिपक्व गणतंत्रात्मक देशों में से एक हैं. लोकतंत्र हमारी जीवन-शैली है. और उसके पीछे हमारा सुदीर्घ-सुविचारित लोक-अनुभव, तर्कशुद्ध चिंतन और सत्याधारित जीवन-दृष्टि है. हमने विचार-स्वातंत्र्य को सर्वोपरि रखा. भिन्न मत प्रकट करने के कारण हमने न तो कभी किसी को फांसी पर लटकाया, न कारागार की काल-कोठरी में कैद किया. मतभेद को मुखरित करते हुए भी विवाद-संवाद-सहमति के अलग-अलग सोपानों को तय करते हुए हम मनभेद से बचते रहे. लोकमंगल की कामना व साधना केवल हमारी कला, साहित्य, संस्कृति का ही ध्येय नहीं रहा, अपितु यह हमारे शासन-तंत्र का भी परोक्ष-प्रत्यक्ष लक्ष्य रहा. शासन की बागडोर संभालने वाले भी लोकमंगल के इस भाव से न्यूनाधिक प्रेरित-प्रभावित रहे. हमारी सामूहिक प्रवृत्ति भी लोकाभिमुख रही है. हम निजी उपलब्धियों को भी लोकमंगल पर परखते रहे हैं. और इसीलिए यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि भारत लोकतांत्रिक मूल्यों का वास्तविक जनक और संवाहक है. पर, क्या इस गौरव-बोध में हम अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लें? नहीं, बल्कि यहां हमारी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है. एक नागरिक, समाज और राष्ट्र के रूप में, प्रजा और उनके प्रतिनिधि के रूप में. प्रजा और हमारे चुने हुए प्रतिनिधि दो विपरीत ध्रुव पर खड़े विरोधी घटक नहीं हैं. बल्कि दोनों परस्पर पूरक हैं. एक-दूसरे से जुड़े हैं. एक में दूसरे का हित समाहित है. जिम्मेदारी और जवाबदेही दोनों को जोड़ने वाले अटूट सूत्र हैं.
भारतीय संविधान के लागू होने से एक दिन पूर्व यानि 25 जनवरी, 1950 को भारत निर्वाचन आयोग का गठन हुआ था. हमारी निर्वाचन-प्रक्रिया दिन-प्रतिदिन सुगम, सुलभ, मज़बूत, पारदर्शी और सर्वसमावेशी हुई है. निर्वाचन आयोग ने इसमें उल्लेखनीय, अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक भूमिका निभाई है. एक समाज और राष्ट्र के रूप में हमें अपनी संस्थाओं पर गर्व होना चाहिए और उसकी गरिमा को किसी भी सूरत में ठेस पहुंचाने से यथासंभव बचना चाहिए. हम भले ही किसी दल के कार्यकर्त्ता हों, किसी दल के हार-जीत से हमें खुशी या दुःख की अनुभूति होती हो, पर हम सबकी कुछ सामूहिक उपलब्धियां हैं. उन सामूहिक उपलब्धियों के प्रति गौरव-बोध विकसित कर हम राष्ट्र के सामूहिक मनोबल को ऊँचा उठा सकते हैं. सम्यक, संतुलित एवं सामूहिक सौंदर्यबोध, सुरुचिबोध और शक्तिबोध विकसित कर ही हम राष्ट्र के सुनहरे भविष्य की नींव रख सकते हैं. इनके अभाव में स्वावलंबी और स्वाभिमानी भारत की संकल्पना साकार नहीं हो सकती.
प्रत्येक वर्ष 25 जनवरी को राष्ट्रीय मतदाता दिवस भी मनाया जाता है. भारत जैसे विशाल एवं विविधता भरे लोकतांत्रिक देश में यह दिवस विशेष महत्त्व रखता है. सहभागी लोकतंत्र में यह किसी उत्सव से कम नहीं. जागरूक एवं परिपक्व मतदाता ही योग्य, कुशल एवं जिम्मेदार प्रतिनिधियों का चयन कर सकते हैं. इस दिवस को यदि विद्यालय-महाविद्यालय-विश्वविद्यालय में उत्सव की तरह मनाया जाए, जिलों-प्रखंडों-पंचायतों में जागरूकता अभियान की तरह चलाया जाए तो निश्चय ही यह लोकतंत्र एवं लोकतांत्रिक मूल्यों को मज़बूती प्रदान करने में सहायक सिद्ध होगा. हमें इस दिवस का उपयोग मतदाताओं को उनके अधिकारों एवं कर्तव्यों का समग्र बोध कराने के लिए करना चाहिए. भारत युवा मतदाताओं का देश है. यदि वे अधिक-से-अधिक संख्या में मतदान करें तो कोई कारण नहीं कि देश की तस्वीर और तक़दीर नहीं बदले! कोई कारण नहीं कि उनके सपनों का देश न बने! क्या यह अच्छा और सुखद नहीं होगा कि इस दिन प्रत्येक नागरिक चुनाव-प्रक्रिया में अधिक-से-अधिक भागीदारी और हर हाल में मतदान की शपथ ले क्योंकि चुनाव यदि लोकतंत्र का महोत्सव है तो मतदान हमारी नैतिक एवं नागरिक जिम्मेदारी. बल्कि मतदान ही हर नागरिक का मूल्य निर्धारित करता है. उसके अभाव में क्या हम स्वयं को डंके की चोट पर राष्ट्र का नागरिक, जिम्मेदार नागरिक कह सकते हैं? लिंग-जाति-क्षेत्र-मज़हब से परे देश के उज्ज्वल भविष्य एवं सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखकर किया गया मतदान समय की मांग है. और राष्ट्रीय मतदाता दिवस पर देश के हर नागरिक को यह संकल्प अपने-आप से दोहराना चाहिए.