(सेवा सहयोग के ११ वर्षों में समाज का रुख बदलने वाली ११ प्रेरणादायी कहानियां – भाग एक)
मुंबई (विसंकें). १९९६ से एक शिक्षक के नाते मैं अधिकारिक दृष्टि से स्कूल में ज्वाइन हुआ. सामने के बेंच पर बैठे विद्यार्थियों को भगवान मानकर मैंने अपना काम शुरू किया. मैंने तक़रीबन बीस साल घर के ही पास एक स्कूल में नौकरी की. और बाद में मेरी ट्रांसफर हुई अकोले तालुका के पिंपरकणे केंद्र के बाभूळवंडी स्कूल में. यह स्कूल बड़े-बड़े पर्वतों और जंगल के समीप दुर्गम गाँव में था. परिश्रमी लोगों का गाँव था, पर दिन रात परिश्रम के बाद भी गरीबी वैसी की वैसी ही थी. सभी की हालत एक जैसी.
ऐसे परिवारों से सभी लड़के लड़कियां मेरे स्कूल में पढ़ने आते थे. उनकी आँखों में कल के उज्ज्वल भविष्य के सपने एवं कल्पनाएँ थीं.. उनका यही अविर्भाव था, जिससे प्रभावित होकर मैं उन्हें और मन लगाकर पढ़ाने लगा.
एक दिन में ज्योमेट्री की क्लास ले रहा था. मैंने कहा, चलो हम अब सर्कल बनाते हैं. मैंने बच्चों को कंपास निकालने को कहा. बच्चे चकित होकर एक-दूसरे को देखने लगे. कंपास मतलब? पूछने लगे. मैंने उन्हें कंपास बॉक्स और सर्कल बनाने के कंपास के बारे में जानकारी दी. परंतु वैसा कंपास बॉक्स किसी के पास नहीं था. अंतिमतः पूरा स्कूल छानने पर एक कंपास बॉक्स मिल गया. उसका उपयोग करके सर्कल बनाया गया और सिखाया भी गया. पर, विद्यार्थियों के पास कंपास बॉक्स नहीं यह बात मेरे मन को खाने लगी.
क्या इन बच्चों को कंपास बॉक्स नसीब नहीं होगा? बॉक्स के बिना ये कैसे ज्योमेट्री पढ़ेंगे? आधी-अधूरी सामग्री से पढ़कर क्या उनका विकास हो पाएगा? उसका परिणाम क्या होगा? एक-एक दिन मेरे मन में सवाल बढ़ते ही गए. एक दिन मुझे सेवा सहयोग फाउन्डेशन संस्था की जानकारी मिली. सेवा सहयोग द्वारा दी जाने वाली ‘स्कूल किट’ की जानकारी मिली. मैंने उन्हें संपर्क किया और विद्यार्थियों की समस्या बताई.
वह दिन विद्यार्थियों और स्कूल की दृष्टी से परिवर्तन का दिन था. सभी विद्यार्थियों को नया स्कूल बैग, नोटबुक का सेट और कंपास बॉक्स मिल गया. एक ही नोटबुक में सभी विषयों का लेखन करने वाले बच्चों को प्रत्येक विषय के लिए अलग नोटबुक दी गई. ड्राइंग बुक, कलर बॉक्स और अंग्रेजी डिक्शनरी, ये सब देखकर वे फुले नहीं समा रहे थे. उनकी पढ़ाई में रुचि बढ़ गई और मेरे जैसे शिक्षक को सिखाने के लिए आशा की किरण मिल गयी.
हर साल मिलने वाले इस स्कूल किट के कारण स्कूल में विद्यार्थियों की संख्या भी बढ़ने लगी है. सिर्फ हमारे ही नहीं केंद्र के सभी स्कूल के बच्चों को पिछले कई वर्षों से स्कूल किट मिल रहे है. मैंने देखा है कि, यह स्कूल किट देने के लिए कुछ स्वयंसेवक एकत्रित होते हैं. अपने हाथों से बैग में नोटबुक, कंपास बॉक्स रखते हैं. ये लोग केवल शिक्षा सामग्री नहीं, बल्कि आनंद बांटते हैं. यह आनंद हमें स्कूल किट के रूप में प्राप्त होता है. और वह आनंद हमें उनके चेहरे पर दिखाई देता है.
– रणपिसे बबन सावळेराम
अध्यापक, जिला परिषद शाळा, बाभूळवंडी, अकोले.