रवि प्रकाश
देश और तेजी से बदल सकता है, अगर बाबू में कुछ बदलाव हो जाए, बाबुओं की व्यवस्था थोड़ी बदल जाए.
यह बाबुओं की व्यवस्था का प्रभुत्व एकदम ग्राम पंचायत स्तर से दिखाई देने लगता है. गाँव वह मूलभूत संरचना है, जहाँ से सम्पूर्ण राष्ट्र की रचना का सूत्रपात होता है. राष्ट्र को अगर एक प्रासाद मान लिया जाए, तो गाँव उस प्रासाद की नींव है. हम प्रारम्भ भी वहीं से कर सकते हैं. कहाँ किस बाबू ने, किस साहेब ने किस जनता को परेशान किया, इसके दृष्टांत और समाचार हम प्रायः प्रति दिन विभिन्न माध्यमों से सुनते-पढ़ते रहते हैं. हर घटना के आंकड़े हैं. हर बात के उदाहरण हैं. आंकड़े हम प्रस्तुत कर सकते हैं. पर, आंकड़ों से बात बनती नहीं. बाबुओं के चंगुल से फाइलों को निकाल कर टेबल पर रखवाने की जो कसरत होती है, वह गाँव के हर व्यक्ति की क्षमता में नहीं होता. शहरों में भी स्थिति कोई बहुत भिन्न नहीं है. देश के नागरिक का आवेदन छत से लटके पंखे की हवा से उड़ कर इधर-उधर न हो जाए, इसलिए उसे कुछ कागजी भार से दबाना पड़ता है, यह चुटकुला आम है. एक और चुटकुला अक्सर सुनायी देता है कि 12 बजे तक लेट नहीं, 3 बजे के बाद भेंट नहीं. बिहार के गाँवों में “सर जे कहबई से हो जतई (आप जैसा कहेंगे आपकी इच्छा पूरी कर दी जाएगी) से लेकर दिल्ली में “बाबूजी आपकी सेवा कर दूंगा” तक लोग चटखारे लेकर अनेक प्रकार की कहानियाँ सुनाते हैं.
बाबुओं के पास नियम होते हैं, विधान होते हैं, परिपत्र होते हैं, आदेश और निर्देश होते हैं. सामने खड़े व्यक्ति से आवेदन और हस्ताक्षर लेकर अभिलेखों से उसका मिलान किया जा सकता है. वह व्यक्ति जीवित है, इसका प्रमाण बाबू स्वयं सत्यापित कर सकता है. लेकिन साक्षात खड़ा देश का वरिष्ठ नागरिक जब तक अपने जीवित होने का कागज़ प्रस्तुत नहीं करता, वह जीवित नहीं माना जाता है. बाबू को विवेक के प्रयोग की अनुमति नहीं है. बाबू पूछ बैठता है, “क्या सबूत है कि आप जीवित हैं?” और यह चुटकुला नहीं होता. यह सत्य घटना है. ऐसे बाबुओं की भरमार है हमारी व्यवस्था में. बाबुओं के चक्कर में अनेक बार याचक नागरिक का शरीर पिस जाता है, उसका मस्तिष्क घिस जाता है. क्या-क्या बखान किया जाए. बातें वहीं की वहीं रह जातीं हैं. आंकड़ों से काम नहीं चलता. दंड से चीजें नहीं सुधरतीं. एक दण्डित बाबू निकल जाता है, नया बाबू नयी चालाकियों से उसका अनुगामी बन जाता है. सिलसिला चलता रहता है. मन मथाता रहता है – बाबू बदलें तो देश बदले.
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कैसे बदलेंगे बाबू लोग? मेरे विचार से कर्त्तव्य बोध का जागरण करना आवश्यक है. कर्तव्य बोध के अनुसरण में प्रेम की बड़ी भूमिका होती है. हमारी संस्कृति ने हमारे सामने उत्तम लक्ष्य-प्राप्ति में प्रेम की भूमिका के अनेक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किये हैं. श्रवण कुमार के माता-पिता की आँखें देख नहीं पाती थीं. तथापि वे तीर्थाटन के अभिलाषी थे. श्रवण कुमार के पास साधन न थे. बस एक शरीर था उसके पास. उस शरीर में प्राण बसते थे. उस प्राण में माता-पिता के लिए प्रेम था. इस प्रेम ने उसे कर्त्तव्यबोध के सर्वोच्च आसन का संबल प्रदान किया. उसने भार बनाया, माता-पिता को बिठाया और कंधे पर उनका बोझ उठाये निकल पडा. इससे सुन्दर और क्या कल्पना हो सकती है कर्त्तव्य और प्रेम से सम्बन्ध की !
बाबुओं की प्रवृत्तियों में परिवर्तन देश में व्यवस्था में सकारात्मक प्रगति और राष्ट्र में प्रगतिशील परिवर्तन के लिए आवश्यक है. प्रेम सकारात्मक परिवर्तन का आधार है. प्रेम परिवर्तित करता है – द्वेष को राग में, विराग को अनुराग में, कुंठा को उल्लास में, नैराश्य को उत्साह में, विष को अमृत में. हर नकारात्मकता का सकारात्मकता में परिवर्तन का मूल है प्रेम. प्रेम में प्रहलाद अग्नि-शिखा पर पुष्पित हो जाता है. अथर्ववेद का एक मन्त्र है – “सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः। अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या ।।” (अथर्ववेद, भाग-1, काण्ड-3, सूक्त-30:1). इस मन्त्र में देवता ऋषि को संबोधित करते हैं, “हे मनुष्यो, हम आपके लिए हृदय को प्रेमपूर्ण बनाने वाले तथा सौमनस्य बढ़ाने वाले कर्म करते हैं. आप लोग परस्पर उसी प्रकार व्यवहार करें, जिस प्रकार उत्पन्न हुए बछड़े से गाय स्नेह करती है.” इसी अपेक्षा को अनुभव करते हुए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने लिखा होगा, “पड़ जाता चसका जब मोहक प्रेम-सुधा पीने का, सारा स्वाद बदल जाता है दुनिया में जीने का” (दिनकर की सूक्तियां). मेरा अभिप्राय है कि हज़ारों वर्षों से हमारे ऋषियों-मुनियों ने, दार्शनिकों ने और दुनिया भर के पथ-प्रदर्शकों ने कर्त्तव्य के पथ पर प्रेम के महत्व को रेखांकित किया है. फिर हम गौतम बुद्ध, आदिगुरू शंकराचार्य के सन्देश सुनें; महात्मा गाँधी, चान तेन हेंग, एल्विन टॉफ्लर, डॉ. धमानंद नायके, झेंग यान, श्री रविशंकर, प्रमोद बत्रा, दीपक चोपड़ा, शिव खेडा जैसे विद्वानों की रचनाएं पढ़ें. सभी में प्रेम का ही सन्देश मिलता है.
इसी प्रेम का विस्तार जब व्यक्ति के स्व से बाहर निकल कर विस्तार पाता है, तब वह राष्ट्रप्रेम का स्वरुप ग्रहण कर लेता है और इसके आगे “वसुधैव कुटुम्बकम” का पर्याय बन जाता है. आज हमारे बाबुओं के मन में इस प्रेम का जागरण करना होगा. उन्हें राष्ट्रप्रेम से ओत-प्रोत करना होगा. मन राष्ट्र के प्रति प्रेम के रस से भीग गया तो तन में नयी ऊर्जा का संचार हो जाता है. हर राष्ट्रवासी सगा लगने लगता है. फिर अपने सगे के काम के लिए, उसके विकास के लिए, सार्वजनिक आनंद और भारत माता के आँचल में आसमान के सितारे टाँकने में काहे का विलम्ब – तन जाग गया और मन रम गया विराट की सेवा में और देश चल पड़ा सकारात्मक परिवर्तन की एक अभूतपूर्व, असाधारण यात्रा पर. बस इसी यात्रा का तो संबल बनना है हम सभी को. “नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे….” का समवेत गायन करते हुए अथर्ववेद के ही एक और मन्त्र को चरितार्थ करने के अभियान में लग जाना है – विश्वस्वं मातरमोषधीनां ध्रुवां भूमिं पृथिवीं धर्मणा धृताम शिवां स्योनामनुचरेम विश्वहा।। (भाग-2, काण्ड-12, सूक्त-1/17). अर्थात, जिसमें सभी प्रकार की श्रेष्ठ वनस्पतियाँ और औषधियां पैदा होती हैं, वह पृथ्वी माता विस्तृत और स्थिर हो. विद्या, शूरता, सत्य, स्नेह आदि सद्गुणों से पालित-पोषित कल्याणकारी और सुख-साधनों को देने वाली मातृभूमि की हम सदैव सेवा करें.