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हमारी समृद्ध धरोहर – तंजावूर / १

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प्रशांत पोळ

मंदिरों का शहर. एक समूची समृद्ध संस्कृति का शहर. कलाओं के वैभव का शहर. इसका आकर्षण अनेक वर्षों से था. छत्रपति शिवाजी महाराज के भोसला वंश ने इस शहर पर अनेकों वर्ष राज किया, इसलिए तो था ही, किन्तु उससे भी ज्यादा, चोल राजाओं की राजधानी और मंदिरों के शहर के रूप में था. अनेक वर्षों के बाद, तंजावूर दर्शन का योग आया.

चोल वंश के बिना भारत का इतिहास अपूर्ण है. सैकड़ों वर्षों तक इन महापराक्रमी चोल राजाओं ने भारत के बड़े भूभाग पर राज किया. इस दौरान उन्होंने भारतीय संस्कृति को केंद्र में रखकर अपना शासन – प्रशासन चलाया. हिन्दू धर्म के उन्नयन के लिए जो हो सकता था, वह सब किया. इन सब के साथ अपार संपत्ति, समृद्धि और सुव्यवस्था लायी. सामान्य नागरिक का स्तर ऊंचा किया. चोल राजाओं के शासन काल में हम वैभव के शिखर पर थे. त्रिची के पास चोल वंश के प्रारंभिक काल के राजा करिकलन ने कावेरी नदी पर बांध बांधा. पहली शताब्दी का यह बांध आज भी काम कर रहा है. और यह मात्र बांध (dam) नहीं है, तो पानी का विभाजन करने की रचना है. दो हजार वर्ष पहले ऐसा जल व्यवस्थापन कोई कर सकता है, यह कल्पना के भी बाहर है.

प्रारंभिक चोल राजाओं के प्रभावी जल व्यवस्थापन के कारण यह पूरा क्षेत्र सुजलाम – सुफलाम रहा. (आज भी है). प्राचीन भारतीय संस्कृति का केंद्र ‘मंदिर’ हुआ करते थे. वहां केवल धार्मिक कार्य ही नहीं होते थे, तो शिक्षा, नृत्य-गायन, कला, न्याय आदि का भी वह केंद्र होता था. इस संपन्न क्षेत्र में चोल राजाओं ने, अपने पूर्ववर्ती और समकालीन पल्लव, पांडयन, होयसाला, वाकाटक, कदंब आदि राजवंशों के साथ, अनेक मंदिरों का निर्माण किया. प्रसिद्ध चोल राजा, राजराजा (प्रथम) ने, अपनी राजधानी तंजावूर में कुछ प्रमुख मंदिरों का निर्माण किया, उनमें ‘बृहदेश्वर मंदिर’ प्रमुख है. १३ मंजिलों के विमान (प्राचीन मंदिरों के ऊपरी भाग को ‘विमान’ कहा जाता है) की ऊंचाई ६६ मीटर है. (लगभग बीस मंज़िला इमारत के बराबर). विमान के ऊपर जो स्तूपिका रखी गई है, उसका वजन ८० टन है और वह एक ही पाषाण से बनी है. इस अष्टकोणीय स्तूपिका पर स्वर्णकलश रखा गया है. यह भव्य मंदिर, शायद विश्व का पूर्णतः ग्रेनाइट से बना पहला मंदिर है. इस मंदिर को बनाने में, अनुमान है कि १ लाख ३० हजार टन ग्रेनाइट के पत्थर लगे. ये पत्थर, मंदिर के निकट के क्षेत्र में नहीं पाये जाते हैं. दूर से इन पत्थरों को ढो कर लाना, उन्हें परिपूर्णता के साथ तराशना, बिना किसी मटेरियल के उसे ‘सेल्फ लॉकिंग’ पद्धति से जोड़ना. यह जोड़ भी इतना मजबूत, कि हजार वर्षों से मौसम की मार खा-खा कर भी मंदिर वैसा ही हैं. अभेद्य. और यह सारा निर्माण मात्र सात वर्षों में पूर्ण करना (वर्ष १००३ से १०१०). यह अतर्क्य हैं. केवल अद्भुत..!

इस मंदिर के बारे में एक बात, जो सामने नहीं आती, वह इसके निर्माण में निसर्ग से स्थापित किया गया तादात्म्य. आज से हजार वर्ष पहले, राजराजा चोल ने, इस मंदिर को बांधते हुए, ‘वॉटर हार्वेस्टिंग’ को प्रत्यक्ष में उतारा है. स्तूपिका में वर्षा का पानी जमने की व्यवस्था है. यह पानी नीचे पहुंचाया जाता हैं. नीचे भूमिगत सुरंगों के माध्यम से यह तंजावूर के चार दिशाओं में निर्माण किए गए चार तालाबों में जमा होता है. इसके पीछे की कल्पना है, कि भगवान बृहदेश्वर, अर्थात शंकर जी की जटाओं से निकला पानी, गंगा के रूप में लोगों के काम आए. और वास्तु की रचना तो ऐसी, की इसके गुंबद की परछाई जमीन पर पड़ती ही नहीं. एक मजेदार बात और भी है – इसके गोपुरम में जो खंबे हैं, वो दो पत्थरों से बनाएं गए हैं. किन्तु उन्हें किसी आधार की आवश्यकता नहीं है. इतना बड़ा भार भी वे सहजता से सहन कर लेते हैं (self-sustained). बाद में अनेक वर्षों के बाद, अंग्रेजों के शासन काल में, बाहर के द्वार के रखरखाव की योजना बनी. अंदर के जैसा ही बाहर का द्वार बनाने का अंग्रेजों ने प्रयास किया. लेकिन उन्हें, उन खंभों को आधार (support) देना पड़ा (साथ में चित्र दिया है). और हम अभी भी कहेंगे, ‘अंग्रेजों की वास्तुकला हमसे बेहतर है’..!

मंदिर को राजराजा ने विशेष रुचि ले कर बनाया है, तो स्वाभाविकतः नक्काशी से इसे सुंदर बनाने के पूरे प्रयास किए गए हैं. अनेकों मूर्तियां, नाजुक कलाकारी, गज़ब की समरुपता (symmetry)… मंदिर के सामने की नंदी की प्रतिमा भी एक ही पाषाण में बनी है, जो ६ मीटर लंबी, २.६ मीटर चौड़ी तथा ३.७ मीटर ऊंची है. स्वतः बृहदेश्वर, अर्थात शंकर भगवान की पिंडी भी विशालतम आकार में है.

यह मंदिर देखना अपने आप में एक अनुभव था. हजार वर्ष पहले, कितनी समृद्ध और परिपक्व संस्कृति यहां बसती थी, यह सोचकर आश्चर्य होता है.

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