करंट टॉपिक्स

भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टि का पुनरावलोकन – 2

Spread the love

भारत की सुरक्षा नीति का मूल्यांकन और विश्लेषण करने का यह सर्वथा उचित समय है . जब राष्ट्रीय सुरक्षा-सिद्धांत को स्वातंत्र्यवीर सावरकर और सुभाषचंद्र बोस की दृष्टि के आधार पर देखा जाना चाहिये, साथ में भारत को ये भी स्वीकार करना होगा कि गांधी जी के महत्व्पूर्ण योगदान के बावजूद उनकी सम्पूर्ण अहिंसा और हिन्दुओं की कीमत पर हिन्दू-मुस्लिम एकता की विचारधारा ने राष्ट्र को भयंकर नुकसान पहुंचाया है और आज भी हमें भ्रमित कर रहा है.

उदय माहुरकर

गांधी जी की संपूर्ण अहिंसा की विचारधारा पर ईमानदार बहस की जरूरत –

बहुत से लोग यह नहीं जानते कि गांधी जी ने भी एक बार सुझाव दिया था कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भारत को सेना को खत्म कर देना चाहिए और केवल पुलिस पर भरोसा रखना चाहिए. 1925 में यह कह कर उन्होंने कई लोगों को चौंका दिया कि गुरु गोविंद सिंह, महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी दिग्भ्रमित देशभक्त थे. जब द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी लन्दन पर बमबारी कर रहा था, तब गांधी जी ने कहा था कि उन्हें खून-खराबा देखकर आत्महत्या करने का मन हो रहा है और बाद में उन्होंने इंग्लैंड को अपने बचाव के लिए नैतिक बल पर भरोसा करने की सलाह दी, बजाय सैन्य शक्ति के. उनके इन अकल्पनीय सुझावों से ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल बहुत बुरी तरह चिढ़ गए थे. स्पष्टत: गांधी का शांतिवाद हमें चीन जैसे दुश्मन देशों की दुष्टता को देखने से रोकता है. उरी हमले के बाद सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट जैसे दुर्लभ मामलों को छोड़कर, हमने शायद ही कभी जैसे को तैसा की विचारधारा का पालन किया है. यह गांधीवादी विरासत का प्रत्यक्ष परिणाम है. यदि चीन हमारे क्षेत्र पर कब्जा कर सकता है तो उसके सीमावर्ती कुछ अन्य स्थानों पर हम क्यों नहीं कर सकते हैं! यह उल्लेखनीय है कि कूटनीति और सुरक्षा व्यवस्था में नए प्रतिमान स्थापित करने वाले मोदी जैसे दूरदर्शी व्यक्ति की दृष्टि को भी गांधीवाद भ्रमित करता है.

“अमेरिका ने 9/11 घटना के एक दशक बाद भी बदला लिया और ओसामा को 11,000 किलोमीटर दूर होने के बावजूद मार गिराया, लेकिन हम हाफिज सईद और मसूद अजहर को अपनी सीमा के 150 किलोमीटर के दायरे में भी मिटा पाने में असमर्थ हैं.”

जब हमें चुनौती दी जाती है तो हम उपदेशों के साथ शुरू करते हैं, जैसे – भारत कभी भी आक्रमण नहीं करता, लेकिन जब कोई आक्रमण के लिए बाध्य करता है, तब भारत इसे बर्दाश्त भी नहीं करता”. यह स्थिति आत्म-संशय का प्रमाण है. एक तरफ जहां अमेरिका ने कुख्यात आतंकी ओसामा बिन लादेन से 11,000 किलोमीटर दूर जाकर ट्विन टावर त्रासदी में मारे गए 3,000 लोगों का बदला लिया, वहीं इसके ठीक विपरीत हाफिज सईद और मौलाना मसूद अजहर, जिन्होंने 1995 के बाद से हजारों भारतीयों को मौत के घाट उतार दिया, भारतीय सीमा से मात्र 150 किलोमीटर दूर बैठे होने के बावजूद हम उन्हें ख़त्म करने में असमर्थ हैं. क्या यह ओसामा के खिलाफ अमेरिका की प्रतिक्रिया के ठीक विपरीत नहीं है?

अत: सबसे पहले गांधी जी की विचारधारा पर एक ईमानदार बहस होनी चाहिए, जो राष्ट्र के लिए उनके योगदान की सराहना करते हुए यह प्रमाणित करें कि उनकी विचारधारा ने भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को कितनी क्षति पहुंचाई है. इसके बाद भारतीय स्वतंत्रता अभियान के महानायक और हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा-दृष्टि के पुरोधा वीर सावरकर और आजाद हिन्द फ़ौज के प्रणेता सुभाषचंद्र बोस को भारत के सुरक्षा प्रतीक के रूप में प्रस्थापित करना चाहिए.

कोई पूछ सकता है कि सावरकर और बोस राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रतीक पुरुष क्यों?

पहले सावरकर के विचारों और दृष्टि का विश्लेषण करें. सावरकर वह अद्वितीय व्यक्ति हैं, जिन्होंने पाकिस्तान के जन्म से कई साल पहले भारत के विभाजन की भविष्यवाणी कर दी थी. यह कहते हुए कि कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियां मुस्लिम लीग का चारा बन जाएंगी और जिसका आख़िरी मुकाम होगा भारत का विभाजन. सन् 1937 से सावरकर ने कई बार कांग्रेस को अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के खिलाफ चेतावनी दी थी, लेकिन उनके विचारों को एक सांप्रदायिकतावादी के रूप में करार दिया गया, हालांकि उन्होंने कभी भी मुस्लिम अधिकारों की कीमत पर हिन्दुओं के लिए विशेष व्यवहार की मांग नहीं की. दस साल बाद उनकी बात सच साबित हुई, जब पाकिस्तान का जन्म हुआ. और कांग्रेसी नेता जो कह रहे थे कि पाकिस्तान का निर्माण हमारी लाशों पर होगा, गलत साबित हुए.

सावरकर भारत की सुरक्षा के एक महान दूरदर्शी थे. उन्होंने 1940 में असम की मुस्लिम समस्या (असम की मुस्लिम आबादी तब सिर्फ 10% थी. आज यह 35% है) की भविष्यवाणी और 1962 के भारत-चीन युद्ध की भविष्यवाणी आठ साल पहले कर दी थी. 1954 में उन्होंने नेहरू को चेतावनी दी थी कि पंचशील का उनका सिद्धांत चीन के कुत्सित मंसूबों को बढ़ावा देगा और अगर निकट भविष्य में वह हमला कर भारत की भूमि को हड़प लेता है तो उन्हें आश्चर्य नहीं होगा. पाकिस्तान पर भी उनकी चेतावनी सटीक थी. उन्होंने कहा कि जब तक धार्मिक कट्टरता पर आधारित एक राष्ट्र भारत का पड़ोसी रहेगा, तब तक भारत शांति से नहीं रह पाएगा. यह आज तक सही प्रतीत होता रहा है. दिलचस्प बात यह है कि सावरकर ने पहली बार द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत की स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र रणनीति की वकालत की थी. उन्होंने स्वतंत्रता से पहले और बाद में भारतीयों के सैन्यीकरण की बात की थी. उन्होंने भारत को महाशक्ति बनाने के लिए परमाणु बम की भी बात की थी. लेकिन, किसी ने सावरकर के विचारों को पैन-इस्लामिक और कम्युनिस्ट विचारों के सामने प्राथमिकता नहीं दी.

भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टि में सावरकर का योगदान अंतहीन है और इस लेख के दायरे से परे भी. उदाहरण के तौर पर उन्होंने आजादी के तुरंत बाद जवाहरलाल नेहरू सरकार को सलाह दी थी कि अरब सागर को ‘सिंधु सागर’ कहना चाहिए. लेकिन नेहरू सहमत नहीं हुए. सावरकर-जीवनी के लेखक धनंजय कीर के अनुसार, 1940 में सावरकर ने सुभाषचन्द्र बोस को यह सलाह दी थी कि विश्व मंच पर दुश्मन के दुश्मन देश को हमारे मित्र के रूप में देखा जाना चाहिए. इसी से प्रेरित होकर सुभाषचंद्र बोस ने इटली, जापान और जर्मनी जैसे इंग्लैण्ड विरोधी शक्तियों के साथ एक समझौता करते हुए आज़ाद हिंद फौज का गठन किया. इस फ़ौज में उन भारतीय सैनिकों को शामिल किया गया था जो द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटिश शासन की ओर से लड़ते हुए इटली और कुछ अन्य मित्र देशों द्वारा पकड़ लिए गये थे.

आजाद हिन्द फ़ौज ने ब्रिटिश शासन से हिंदुस्तान को मुक्त कराने के उद्देश्य से अंग्रेजी हुकूमत पर हमला किया था. हालांकि आजाद हिन्द फ़ौज नाकाम रही, लेकिन उसने भारत को स्वतंत्र करने के लिए ब्रिटेन पर भारी दबाव पैदा किया. एक अर्थ में बोस ने सावरकर की दृष्टि को लागू किया. 1947 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री के रूप में भारत को स्वतंत्रता देने वाले क्लेमेंट एटली ने 1956 में अपनी भारत यात्रा के दौरान (जब वह ब्रिटिश पीएम नहीं थे) कुछ चौंकाने वाले खुलासे किए. पश्चिम बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल पीवी चक्रवर्ती के साथ उनकी बातचीत और उनकी टिप्पणियां भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को देखने के तरीके में पूरी तरह से बदलाव के लिए मजबूर करती हैं. एटली ने चक्रवर्ती से कहा – “आजाद हिन्द फ़ौज द्वारा बनाए गए दबाव, द्वितीय विश्वयुद्ध से लौटने वाले भारतीय सैनिकों की ओर से ब्रिटिश शासन को स्वीकार करने की अनिच्छा और अंततः 1946 में मुंबई डॉक पर नौसेना के सैनिक विद्रोह ने ब्रिटेन पर दबाव बनाने में एक बड़ी भूमिका निभाई. चक्रवर्ती द्वारा पूछे गए एक विशेष सवाल पर एटली ने कहा कि भारत की आजादी के लिए ब्रिटेन पर दबाव बनाने में कांग्रेस और महात्मा गांधी की भूमिका ’न्यूनतम’ थी. इस पूरी बात का उल्लेख महान इतिहासकार आर.सी. मजूमदार ने अपनी पुस्तक ”बंगाल का इतिहास” में विस्तार से किया है.

इसलिए, भारत के लिए वह समय आ गया है कि वह सावरकर और बोस को राष्ट्रीय सुरक्षा प्रतीक-पुरुष के रूप में घोषित करे. सामाजिक-आर्थिक विकास और आत्मनिर्भरता के गांधी विचारों पर भले ही अमल किया जाए, लेकिन सुरक्षा-सिद्धांत के मामले में गांधी-विचारों को भारत अस्वीकृत करता है, यह घोषणा भी होनी चाहिए. इस विषय पर सावरकर-बोस सिद्धांत ही उपयुक्त और मान्य हो. गौरतलब है कि मुस्लिम समुदाय के प्रति रवैये को लेकर सावरकर और बोस के बीच कुछ मतभेद थे, लेकिन ज्यादातर राष्ट्रीय सुरक्षा विषयों पर दोनों एकमत थे. पर हमें इस बात को भी स्वीकार करना होगा कि हिन्दू-मुस्लिम विषयों पर सावरकर ने जो भी भविष्यवाणीयां आज से 80-90 वर्ष पहले की थीं, वे सभी सच साबित हुई हैं.

इन प्रयासों का क्या असर होगा?

इन प्रयासों से गांधी जी के नाम का दुरुपयोग बंद हो जाएगा. पैन-इस्लामिक तत्वों द्वारा गांधी का नाम राष्ट्र को ब्लैकमेल करने के लिए लिया जाता रहा है. यह प्रयास भारत के मुस्लिम समुदाय के उस हिस्से को ठीक से परिभाषित करने में सक्षम करेगा जो नरमपंथी है और पैन-इस्लामिक अभियान का हिस्सा नहीं है तथा भारत की मुख्यधारा में बने रहना चाहता है. समावेशी मुसलमानों की संख्या भारत में काफी है, लेकिन सावरकर-बोस आधारित राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के अभाव में भारत उन्हें अंगीकृत करने में असमर्थ है.

हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के मैदान से गांधी जी के अति मानवतावाद वाली विचारधारा को हटाकर भारत दुनिया के ताकतवर देशों को उपयुक्त सन्देश देने में समर्थ होगा, विशेषकर चीन और पाकिस्तान जैसे दुष्ट प्रतिद्वन्दी देशों को. पूरी दुनिया को पता चलेगा कि चुनौती देने पर भारत से क्या उम्मीद रखनी चाहिए. भारत की भ्रमित राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टि को स्पष्ट करना और सही दिशा देना बहुत बड़ी राष्ट्रीय सेवा होगी.

वर्तमान परिस्थितियों और समय की मांग है कि सुरक्षा के मोर्चे पर सिर्फ सरकार का ही नहीं, बल्कि देशवासियों का नजरिया स्पष्ट हो. जाहिर है, राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर दृष्टि और सिद्धांत बदलने का समय आ गया है. और आज के शासक भी अगर ये कहते हैं कि उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि गांधी जी के विचारों से पूरी तरह मुक्त है तो वे गलत कह रहे हैं. इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि हमारी सरकार ने बीते 6 वर्षों में 10 हजार तबलीगी जमात के विदेशी वहाबी प्रचारकों को भारत में आने और प्रचार करने की अनुमति दी. हालांकि 30 मार्च, 2020 के बाद हुए तबलीगी जमात के कोरोना काण्ड के बाद सरकार ने इन विदेशी प्रचारकों को प्रतिबंधित कर दिया है. यह स्पष्ट है कि आज के भारतीय जहाज के तल में एक बड़ा छेद है, जिसे हमें दुरुस्त करने की आवश्यकता  है. अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो यह जहाज सागर में डूब सकता है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *