राजीव तुली
आज देश ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ मना रहा है. सात दशक से भी अधिक पहले 14 अगस्त, 1947 को भारत को बांटकर दो टुकड़े कर दिए गए. देश की सैकड़ों साल पुरानी संस्कृति को कुछ लोगों ने सिर्फ कागज की लकीरें खींच कर बांट दिया. बंटवारे के साथ ही खूनी खेल भी शुरू हो गया. लाखों मारे गए, इनमें हिन्दुओं की संख्या अधिक थी. इस त्रासदी ने देश की आत्मा तक को रक्तरंजित कर दिया. वहीं, बंटवारे में मुसलमानों और मुस्लिम लीग द्वारा देश के विरुद्ध किया गया अपराध अक्षम्य और कभी ना भूलने वाला है. आज के पाकिस्तान में बसे हिन्दुओं के साथ वह अन्याय हुआ, जो सदियों बाद भी नहीं भुलाया जा सकेगा.
बर्बरता की कड़ी में सावधानीपूर्वक और पूरी योजना बनाकर पूरे गांवों और कस्बों का सफाया कर दिया गया था. वह चाहे शेखूपुरा, गुजरांवाला, मोंगटोमेरी, सियालकोट, मियांवाली, झांग, बहावलपुर, झेलम, गुजरात और सरगोधा हो या फिर सैन्य ताकत से खत्म करने की सिंध की योजना का क्रियान्वयन हो.
मुस्लिम लीग द्वारा दीन के नाम पर भीड़ का आयोजन किया गया था, मुस्लिम पुलिसकर्मी, प्रशासन और सैन्यकर्मियों ने हिन्दुओं और सिक्खों के नरसंहार में मदद की. कामोके हत्याकांड में 5000 लोगों को सुरक्षित स्थानों पर भेजे जाने का हवाला देकर ले जाया गया, पराचिनार हत्याकांड में 1,000, गुजरात हत्याकांड में 2,500 से 3,000 और इनमें सबसे वीभत्स शेखूपुरा का हत्याकांड, इसमें 15,000 लोगों की हत्या की गई थी. लड़कियों के साथ दुष्कर्म किया गया. शराकपुर हत्याकांड, गुजरांवाला हत्याकांड, मुजफ्फराबाद हत्याकांड और मीरपुर-कोटली हत्याकांड जैसी अन्य घटनाएं भी इनमें शामिल हैं.
कितने हिन्दुओं की हत्या की गई, इसकी संख्या आज भी किसी को नहीं पता है. परंतु सबसे वीभत्स शेखूपुरा हत्याकांड था. इसकी याद भर से रूह कांप जाती है. शेखूपुरा के इतिहास में कभी भी साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ था. इसे गैर-मुसलमानों का मजबूत गढ़ माना जाता था.
शहर में हिन्दुओं और सिक्खों की ठीकठाक आबादी थी. यह अलग बात है कि इस जिले में 68 प्रतिशत मुसलमान थे, 12 प्रतिशत हिन्दू और 20 प्रतिशत सिक्ख थे, लेकिन इस जिले में सिक्ख समुदाय सबसे महत्वपूर्ण और मजबूत स्थिति में था. वे इस जिले को अपना मजबूत गढ़ मानते थे. सिक्खों के सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल ननकाना साहिब और सच्चा सौदा भी इसी जिले में थे.
भारत के विभाजन की घोषणा के बाद भी हिन्दुओं और सिक्खों ने इस जिले को नहीं छोड़ा. गुजरांवाला के पड़ोस के जिलों में रहने वाले गैर-मुसलमानों को लगता था कि उनके लिए यहां जाना ही सुरक्षित रहेगा. इस तहसील और शहर को हिन्दुओं और सिक्खों के लिए सुरक्षित माना जाता था.
पहली बार शेखूपुरा में लगा था कर्फ्यू
15 अगस्त से पहले और बाद में मुसलमानों ने दृढ़ता से घोषणा की थी कि गैर-मुसलमानों के जीवन, सम्मान और संपत्तियों की रक्षा की जाएगी. पंजाब का विभाजन और इसके लिए अधिकारियों ने जो कदम उठाए, उनमें गैर-मुसलमान अधिकारियों को हटाए जाने को प्रमुख विकल्प के रूप में अपनाया गया. सभी मजिस्ट्रेट, निगमों के अधिकारी और पुलिस सब मुसलमान थे. यहां तक कि सीमा पर भी पूरी तरह मुसलमानों को तैनात कर दिया गया था. शेखूपुरा के इतिहास में 24 अगस्त, 1947 को पहली बार मजिस्ट्रेट द्वारा कर्फ्यू लगाया गया था.
रात के अंधेरे में एक घर को आग लगा दी गई थी और मुसलमान सैनिकों ने नजर रखी कि कौन-कौन आग बुझाने आता है ताकि उसे गोली मारी जा सके. उस रात दो लोगों को मार भी दिया गया. 26 अगस्त को दो बजे फिर कर्फ्यू लगा दिया गया. सभी पेट्रोल पंप मालिकों को प्रशासन ने सम्मन किया और आपातकाल का हवाला देकर उनसे सारा पेट्रोल ले लिया. हिन्दू और सिक्ख दुकानदारों के समीपवर्ती स्थित दुकानों के मुसलमान मालिकों से अपनी दुकान खाली करने को कहा गया था.
अपनी बेटियों का कत्ल करने को मजबूर हुए लोग
कर्फ्यू लागू होने के बाद मुसलमान मजिस्ट्रेट काजी अहमद शफी ने सेना का नेतृत्व किया और शेखपुरा के अंतिम छोर के अकालगढ़ से शुरु कर पूरे शहर में मार्च निकाला. उनका काम बहुत व्यवस्थित था और उसे सैन्य सहयोग से लागू किया गया. उन्होंने व्यवस्थित तरीके से सभी पुरुषों और उम्रदराज महिलाओं की हत्या कर दी और लड़कियों का अपहरण कर लिया. एक दूसरी पार्टी ने संपत्तियों को लूटना शुरू कर दिया और गैर-मुसलमानों के घरों में आग लगाना शुरू कर दिया. अपना आत्मसम्मान बचाने के लिए कुछ हिन्दू और सिक्ख परिवारों ने अपनी बेटियों को मार डाला और उनके शवों को कुएं में डाल दिया.
एक अन्य घटना में हिन्दुओं और सिक्खों को एक जगह इकट्ठा होने के लिए कहा गया और एक लाइन में महिलाएं और दूसरी में पुरुषों को खड़ा कर दिया गया. उनके परिजनों, भाइयों और पतियों के सामने युवतियों का चयन शुरू कर दिया गया था. उनमें से जिसने भी प्रतिरोध किया तो वहां खड़े सभी पुरुषों को गोली मार दी गई. यह अगस्त के अंत तक चलता रहा. दो दिनों में 10,000 पुरुषों की हत्या कर दी गई थी. ट्रकों में लड़िकयों को भरकर ले जाया गया.
करीब 15,000 आबादी में से केवल 1500 को ही बचाया जा सका. उन्हें शरणार्थी कैंप में भेज दिया गया. देश की सबसे समृद्ध आबादी को उनके हाल पर छोड़ दिया गया. यह समृद्धि पूर्वी पंजाब में स्थित शैक्षणिक संस्थानों, बैंकों के मुख्यालयों, बीमा कंपनियों और वहां से निकलने वाले अखबारों और पत्रिकाओं की मौजूदगी से भी नजर आती थी.
आजाद तो हुए, लेकिन सबकुछ लुट चुका था
जब 15 अगस्त को देश आजाद हुआ, इन चेहरों से आजादी की चमक निश्चित रूप से नदारद थी. बतौर शरणार्थी, हमने अपना सब कुछ खो दिया, अपना घर और चूल्हा, अपने नाते-रिश्तेदार, अपनी चल और अचल संपत्तियां, अपने धार्मिक स्थल और स्थान. हम लोगों का जीवन व जीवन जीने आदि के तरीके हमारे बलिदानियों के खून से लथपथ हैं. हमारे लिए आज एकमात्र सांत्वना यही है कि आजादी के 75 वर्षों के बाद देश हिन्दुओं और सिक्खों के नरसंहार और सर्वनाश को ‘विभाजन विभीषिका दिवस’ के रूप में याद करने की कोशिश कर रहा है.