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भारत की संस्कृति, धर्म का सकारात्मक प्रभाव सम्पूर्ण विश्व पर – सुधांशु त्रिवेदी

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जयपुर. प्रखर राष्ट्रीय चिंतक डॉ. सुधांशु त्रिवेदी ने कहा कि विकास में सरकार के साथ-साथ आमजन की भागीदारी भी आवश्यक है. आज अधिकतर लोग यह सोचते हैं कि हमारे बच्चे पढ़-लिखकर अच्छी कमाई करने लगें, लेकिन पढ़ाई लिखाई और कमाई हमारे लिए विकास की गारंटी नहीं है. केवल विकास की तरफ ध्यान दिया तो विनाश की ओर ले जा सकता है, इसलिए विवेक का प्रयोग करें. उन्होंने कहा कि मेक इन इंडिया के बाद हर चीज भारत में बनने लगी है. आज ब्रह्मोस मिसाइल तक बन रही है. उसके बाद भी कोई कहता है कि विकास का सरूर नहीं दिख रहा है तो उन्हें नजारे देखने के लिए नजर बदलने की जरूरत है.

डॉ. त्रिवेदी रविवार को भारत विकास परिषद की ओर से “भारत के विकास में हमारी भूमिका” विषय पर आयोजित संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे. उन्होंने कहा कि आज देश में हर क्षेत्र में विकास हो रहा है. स्वाधीनता के 75 वर्ष पूर्ण हुए हैं. हमने एक लंबी यात्रा पूरी की है. 2047 में जब हम स्वाधीनता का शताब्दी वर्ष मनाएंगे, तब भारत अपने भव्यतव रूप में पहुंचे, भारत का वास्तविक स्थान था, वो पुनः प्राप्त हो इसका संकल्प लेना होगा. इस संकल्प कालखंड के 25 वर्षों को अमृत काल कहा गया है. जब विकास की बात करते हैं तो इस बात का भी ध्यान करना होगा कि जब सागर मंथन से अमृत निकला था तो इससे पहले विष भी निकला था. उन्होंने कहा कि कहां-कहां विष रोपा जा रहा है, कहां-कहां पर विष बोया जा रहा है. इसका अपने विवेक से निर्धारण कर सकेंगे तो निश्चित रूप से अमृत काल से अमृत तत्व का मार्ग प्रशस्त होगा.

उन्होंने कहा कि देश में 2014 के बाद विकास के विचार को नया आयाम मिला. विश्व में भारत ही ऐसा देश है, जिसकी संस्कृति, ज्ञान और धर्म का व्यापक सकरात्मक प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ा है. योग दिवस इसका उदाहरण है, संयुक्त राष्ट्र संघ में विश्व के 173 देशों ने योग का समर्थन देकर इसे अपनाया.

मार्क्सवादी इतिहासकारों पर निशाना साधते हुए डॉ. त्रिवेदी ने कहा कि इनमें से किसी ने भी वैदिक संस्थान में जाकर अध्ययन नहीं किया और वैदिक संस्कृति पर टिप्पणी कर डाली. इस मानसिकता से बाहर निकालने की जरूरत है. भारत में भाषा और शब्दों के माध्यम से लोगों में कुत्सित मानसिकता भरी जा रही है, नई पीढ़ी को इससे बचाना होगा. भारत एक मात्र ऐसा देश है, जहां 13वीं शताब्दी से पहले किसी नरसंहार का उल्लेख नहीं है. जो नरसंहार के उदाहरण मिलते हैं, वे 13वीं शताब्दी के बाद के हैं. इसके बाद क्यों नरसंहार और मारने काटने की प्रवृत्ति भारत में आ गई?

उन्होंने हमारे अंदर कैसी मानसिकता बिठाई, कहा गया कि हम गुलाम हो गए थे. हमें पढ़ाया गया कि महाराणा प्रताप हल्दी घाटी का युद्ध हार गए थे. लेकिन युद्ध हारने के चार निर्धारित मापदंड हैं. वह मार दिया गया हो, वह बंदी बना लिया गया हो, उसने टैक्स देना शुरू कर दिया हो और कम से कम दरबार में जाकर हाजिरी लगा दी हो. महाराणा प्रताप ने इन चारों में एक भी काम नहीं किया. फिर किस आधार पर यह निष्कर्ष निकाल दिया गया कि प्रताप युद्ध हार गए थे.

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