प्रणय कुमार
जीवन की सबसे बड़ी सुंदरता ही यह है कि वह प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थितियों में भी निरंतर गतिशील रहता है. अपितु यह कहना चाहिए कि गति ही जीवन है, जड़ता व ठहराव ही मृत्यु है. विनाश और विध्वंस के मध्य भी सृजन और निर्माण कभी थमता नहीं. संपूर्ण चराचर सृजनधर्मा है. और मनुष्य की तो प्रधान विशेषता ही उसकी संवेदनशीलता एवं सृजनधर्मिता है. यूं तो भारतीय जीवन-दृष्टि प्रकृति के साथ सहयोग, सामंजस्य एवं साहचर्य का भाव रखती आई है. पर यह भी सत्य है कि मनुष्य की अजेय जिजीविषा एवं सर्वव्यापक कालाग्नि के बीच सतत संघर्ष छिड़ा रहता है. जीर्ण और दुर्बल झड़ जाते हैं, परंतु वे सभी टिके, डटे और बचे रहते हैं, जिनकी चेतना उर्ध्वगामी है, जिनकी प्राणशक्ति मज़बूत है, जो अपने भीतर से ही जीवन-रस खींचकर स्वयं को हर हाल में मज़बूत और सकारात्मक बनाए रखते हैं. और इस दृष्टि से अधिकांश भारतवासियों ने कोरोना-काल में अभूतपूर्व धैर्य, संयम एवं साहस का परिचय दिया है.
कोविड-काल में आम आदमी की भूमिका भी योद्धा जैसी ही रही है. यह कोविड-काल ऐसे तमाम योद्धाओं का विशेष रूप से साक्षी रहा है जो समय के सशक्त एवं कुशल सारथी रहे, जिन्होंने अपना सलीब अपने ही कंधों पर उठाकर प्राणार्पण से मानवता की सेवा और रक्षा की. वे कर्त्तव्यपरायणता के ऐसे कीर्त्तिदीप रहे जिन्होंने प्राणों को संकट में डालकर भी मनुष्यता का पथ प्रशस्त किया. इन अग्रिम पंक्ति के योद्धाओं ने इस महामारी की चपेट से जनजीवन को बचाए रखने में कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं रखी. उन्होंने सेवा परमो धर्मः को सही मायने में साकार कर दिखाया. शिक्षा, सेवा, कृषि, सुरक्षा, सफाई, स्वास्थ्य, यातायात, जनसंचार जैसे तमाम क्षेत्रों में लड़ते-जूझते ये योद्धा सचमुच किसी महानायक से कम नहीं! उन्होंने एड़ी टिका, सीना तान, बुलंद हौसलों से उम्मीदों के सूरज को डूबने से बचा लिया. समय के इन सारथियों ने संपूर्ण तत्परता एवं कुशलता से अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह किया. दुनिया में किसी को नहीं लगता था कि भारत जैसी विशाल जनसंख्या वाला देश कोरोना जैसी महामारी से लड़ सकता है. पर हम लड़े और ख़ूब लड़े. अपने देश में कोरोना-परीक्षण का काम युद्ध स्तर पर ज़ारी है. इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि शीघ्र ही परीक्षण का आंकड़ा दस करोड़ को छूने वाला है. हमारे पास वेंटीलेटर्स की कमी थी. पर इस चुनौती को अवसर में परिणत करते हुए इस अल्पावधि में भी हमने लगभग 80 हजार से अधिक वेंटीलेटर्स तैयार कर लिए हैं. कोरोना मरीजों के लिए आज हमारे पास 90 लाख से अधिक बिस्तरों (बेड्स) की सुविधा उपलब्ध है. 12000 क्वारेंटाइन सेंटर्स और 2000 परीक्षण-प्रयोगशालाएं कार्यरत हैं. तमाम विकसित एवं साधन-संपन्न देशों की तुलना में इस महामारी से मरने वालों की संख्या भारत में बहुत कम रही और स्वास्थ्य-दर में भी निरंतर सुधार देखने को मिल रहा है. अब तो स्वस्थ होने वालों का आंकड़ा 88.26 ℅ तक पहुँच गया है. मृत्यु दर भी सिमटकर 1.50 प्रतिशत से कम है. यह संभव हुआ इन फ्रंटल वॉरियर्स के बल पर. उन्होंने अपना काम बख़ूबी किया है, अब हमारी बारी है. सरकार ने भी इस मोर्चे पर कमोवेश बेहतर प्रदर्शन किया है. जहाँ पश्चिमी देशों की सरकारें कोरोना से लड़ते हुए हांफती दिखीं, वहीं भारत के तमाम राज्यों एवं केंद्र की सरकार इस दिशा में लगातार सतर्क एवं सक्रिय दिखी. नीति, निर्णय एवं कामकाज के स्तर पर शासन-प्रशासन में पंगुता या किसी प्रकार की शिथिलता नहीं के बराबर दिखाई दी. सदियों में कभी-कभार आने वाली ऐसी महामारी के दौरान केंद्र एवं राज्य की सरकारों का यह प्रदर्शन न केवल संतोषजनक है, अपितु उत्साहवर्द्धक भी है.
किसी भी सरकार की शक्ति का मूल उत्स, मुख्य स्रोत वहां का नागरिक-समाज ही होता है. उसके सामूहिक मनोबल और दायित्व-बोध पर ही सरकार का बल निर्भर करता है. इसीलिए प्रधानमंत्री ने बार-बार इस महामारी से लड़ने के लिए देशवासियों का आह्वान किया है. उनका सहयोग मांगा. भिन्न प्रकृति, प्रसार एवं संक्रमण की व्यापकता के कारण बिना नागरिकों के सहयोग के इस महामारी से लड़ पाना अकेले सरकार के बूते संभव भी नहीं है. सामान्य जनजीवन एवं जीविकोपार्जन के लिए कोरोना के प्रकोप, उसके भय एवं आशंकाओं से बाहर आना अत्यंत आवश्यक है. लॉकडाउन के पश्चात कोरोना संबंधी हर प्रकार के नियमों एवं पाबंदियों से सरकार ने हमें लगभग मुक्त-सा कर दिया है. अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने तथा रोज़गार के संकट दूर करने के लिए सरकार के पास इसके अलावा कोई और विकल्प भी नहीं है. अब कोरोना से बचाव की जिम्मेदारी हमारी है. एक परिपक्व समाज के रूप में हमें हर हाल में अपनी नागरिक-जिम्मेदारी निभानी होगी. हमें पहले से अधिक गंभीरता एवं परिपक्वता के साथ कोविड-19 के संक्रमण से बचने के लिए सावधानी एवं सतर्कता बरतनी होगी. हमें कोविड-19 के विरुद्ध प्रधानमंत्री द्वारा आहूत राष्ट्रव्यापी जागरूकता अभियान का हिस्सा बनना पड़ेगा. कोविड-19 के विरुद्ध आंदोलन को हमें जन-आंदोलन में परिणत करना होगा. जब तक वैक्सीन नहीं आ जाती हमें अपने-अपने स्तर पर, अपने-अपने दायरे में सुरक्षा-कवच बनकर कोविड की रोकथाम करनी होगी. प्रत्येक नागरिक को नियम, संयम एवं अनुशासन का पालन करना होगा. ‘दो गज दूरी, मास्क है ज़रूरी’, ‘जब तक दवाई नहीं, तब तक ढिलाई नहीं’ जैसे वाक्यों को जीवन-मंत्र बनाना होगा. बार-बार हाथ धोने को आदतों और संस्कारों में शुमार करना होगा.
त्यौहारों और ठंड का मौसम प्रारंभ हो चुका है. प्रधानमंत्री के शब्दों में – ”लॉकडाउन भले ही चला गया हो, लेकिन वायरस नहीं गया है.” यह समय लापरवाह होने का नहीं है. कई क्षेत्रों एवं देशों में तो कोरोना की दूसरी लहर भी देखने को मिल रही है. अमेरिका, ब्राजील एवं अन्य यूरोपीय देशों का उदाहरण हमारे सामने है. ऐसे में हम सभी को विशेष सतर्कता एवं सावधानी बरतनी होगी. उत्सवधर्मिता हम भारतीयों की प्रमुख विशेषता है. पर हमारी उत्सवधर्मिता अनियंत्रित उपभोग एवं स्वेच्छाचार पर आधारित कभी नहीं रही. वह त्याग, संयम, अनुशासन और इन सबसे अधिक लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित-संचालित रही है. हमें यह बोध रहे कि केवल अपने ही नहीं, औरों के भी सुख और कल्याण की भावना अमूल्य है. किसी के प्राणों की रक्षा से अधिक कल्याणकारी और कौन-सा कार्य हो सकता है? समय आ गया है, जब समस्त देशवासियों को दृढ़ इच्छाशक्ति एवं सामूहिक संकल्पशक्ति के बल पर कोरोना जैसी महामारी को अपने-अपने प्रयासों एवं सावधानियों से निश्चित पराजित करना होगा और अपने तथा अपने पड़ोसियों-सहकर्मियों के स्वास्थ्य एवं आयुष्य की यथासंभव रक्षा करनी होगी.
प्रधानमंत्री द्वारा उद्धृत संत कबीरदास जी के दोहे में निहित संदेश को आज जीवन में उतारने की महती आवश्यकता है –
पकी खेती देखि के, गरब किया किसान.
अजहूँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान….
मानवता के बचाव के लिए छिड़े इस युद्ध में हम भले अपनी ओर से कोई विशेष योगदान न दे पाएं, पर कम-से-कम इसे कमज़ोर न करें तो यह भी कम बड़ा योगदान नहीं होगा.