नरेंद्र सहगल
चिर-सनातन काल से चले आ रहे भारतीय चिंतन प्रवाह का ही आधुनिक नाम हिन्दुत्व है. भारत की धरती पर जन्म लेने वाले सम्प्रदाय : जैन, बौद्ध, सिक्ख, शैव, वैष्णव, लिंगायत इत्यादि हिन्दुत्व की ही सांस्कृतिक एवं सामाजिक परिभाषाएं अथवा अभिव्यक्तियाँ हैं. भारत में रहने वाली हिन्दू पूर्वजों की संतानें ईसाई तथा मुसलमान भी हिन्दुत्व की विशाल परिधि में ही आते हैं. संक्षेप में सभी भारतीयों की सांझी सांस्कृतिक, सामाजिक, भौगोलिक और ऐतिहासिक धरोहर (विरासत) है हिन्दुत्व.
आज भारत में जितने भी जातीय, मजहबी और क्षेत्रीय झगड़े दिखाई दे रहे हैं, वे सभी हिन्दुत्व अर्थात भारतीयता की ढीली पड़ रही पकड़ के कारण ही हैं. इसीलिए तो जाति, मजहब, क्षेत्र पर आधारित राजनीतिक दल भी हिन्दुत्व के व्यापक दृष्टिकोण से दूर भागते हैं. लॉर्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति, साम्यवाद की धर्म विहीन विचारधारा और पश्चिम की भौतिकतावादी चकाचौंध वाली संस्कृति हावी होती जा रही है. पश्चिम की राजनीतिक एवं भौतिकवादी परिभाषाओं से हिन्दुत्व की सनातन और शाश्वत अवधारणाओं को समझा, पढ़ा और पढ़ाया जा रहा है.
यही वजह है कि 11 सितंबर, 1995 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में हिन्दुत्व को भारतीय उपमहाद्वीप की जीवन शैली, भारत की पहचान और सर्वकल्याणकारी जीवन दर्शन स्वीकारते हुए इसे मजहब से पूर्णतया भिन्न बताया तो अनेक राजनीतिक दलों और संगठनों ने न्यायालय के फैसले को ही कटघरे में खड़ा कर दिया. कैसी विडंबना है कि भारत की इस प्राचीन, वैज्ञानिक और सर्वस्पर्शी चिंतनधारा को सर्वोच्च न्यायालय ने तो पहचान लिया, परंतु अपने जातिगत और राजनीतिक स्वार्थों में डूबे लोगों के गले में यह महत्वपूर्ण ऐतिहासिक फैसला नहीं उतरा.
दलों और संस्थाओं के अज्ञान और सीमित मानसिकता ने हिन्दुत्व की विशालता को टुकड़ों में बांटने के राष्ट्र विरोधी कृत्यों को अपनी राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों का आधार बना रखा है. परिणामस्वरूप ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ जैसे सर्व कल्याण के विचारों से परिपूर्ण हिन्दुत्व को राजनीतिक गलियारों में अपनी ही परिभाषा खोजनी पड़ रही है.
वास्तव में हिन्दुत्व को न समझने की समस्या अथवा मानसिकता धर्म और सम्प्रदाय के घालमेल से ही उपजी है. धर्म को जब रिलीजन कहा गया तो इसका संप्रदाय हो जाना स्वाभाविक ही था. इसीलिए हिन्दुत्व भी साम्प्रदायिक बना दिया गया. जबकि हिन्दुत्व तो अपने देश के किसी महजब (रिलीजन) का नाम न होकर एक राष्ट्रवाचक शब्द है. जो भारत के भूगोल और संस्कृति का परिचायक है. धर्म जीवन पद्धति का नाम है, जबकि मजहब या पंथ पूजा पद्धति होते हैं. अरब देशों में तो आज भी भारत से आने वाले मुसलमानों को हिन्दू ही कहा जाता है, हिन्दू अर्थात भारतीय.
धर्म और सम्प्रदाय की इस पहेली को समझना वर्तमान संदर्भ में बहुत ही आवश्यक है. मजहब अथवा सम्प्रदाय के लिए चार बातों को आवश्यक माना गया है. एक संस्थापक (पैगंबर), एक पुस्तक, पूजा का एक ढंग और अनुयायियों का एक नाम. जैसे इस्लाम के पैगंबर हैं हजरत मुहम्मद, एक पुस्तक है कुरान, एक पूजा पद्धति है नमाज और अनुयायियों का एक नाम है मुसलमान. ईसाइयों के एक संस्थापक है ईसा मसीह, एक पुस्तक है बाइबल, एक पूजा का मार्ग है चर्च और अनुयायियों का एक नाम है ईसाई. पारसियों के भी एक संस्थापक हैं, एक पुस्तक है, पूजा का एक तरीका है और अनुयायियों का भी एक नाम है पारसी. वस्तुतः कालांतर में जब अपने मजहब की भावना संकुचित और कट्टर हो जाए और अन्यों की पूजा पद्धति को बर्दाश्त ही न करे तो इसे साम्प्रदायिकता कहते हैं.
अब हिन्दू धर्म अथवा हिन्दुत्व की बात करें. हिन्दुत्व का कोई भी एक संस्थापक या पैगंबर नहीं. समय-समय पर अवतारी पुरुषों ने हिन्दुत्व के आदर्शों और सिद्धांतों को विकसित किया और युगानुकूल इनकी भिन्न- भिन्न मार्गों एवं ग्रंथों के माध्यम से व्याख्या की. हिन्दुत्व को किसी ने प्रारंभ नहीं किया, बनाया नहीं और न ही किसी ने इसका आविष्कार किया. हिन्दुत्व तो अनादिकाल से ही विकसित होती चली आ रही जीवन प्रणाली है. जिसे भारत में राष्ट्रीय चिंतनधारा कहा जाता है. हिन्दुत्व का कोई एक निश्चित ग्रंथ भी नहीं है. हजारों ग्रंथ एवं पुस्तकें हैं जो समय की आवश्यकता के अनुसार समाज के नैतिक शिक्षण के लिए तैयार की गई.
बौद्ध, जैन, सिक्ख इत्यादि जो भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय दिखाई देते हैं, ये सभी राष्ट्र एवं समाज की आवश्यकतानुसार अस्तित्व में आए हैं. पूजा के हजारों मार्ग इस भूमि पर विकसित हुए हैं. हिन्दुत्व में आस्था रखने वाले अपने रुचि के अनुसार पूजा का तरीका चुनने को स्वतंत्र हैं. किसी को किसी विशेष पूजा पद्धति के साथ बांधा नहीं जाता. इसी प्रकार हिन्दुत्व के अनुयायियों का कोई एक विशेष नाम भी नहीं है. हमारे सैकड़ों-हजारों पंथों और मतों के नाम ही हिन्दुत्व का सम्बोधन हैं.
जिस तरह पवित्र गंगा के प्रवाह को गंगोत्री, गंगा, भागीरथी, जाह्नवी, हुगली इत्यादि नामों से पुकारा जाता है, उसी तरह भारत में हिन्दुत्व के राष्ट्रीय प्रवाह को भी जैन, बौद्ध, सिक्ख इत्यादि नामों से पुकारा जाता है. हिन्दू तत्वज्ञान के सिद्धांतों और व्यवहार समस्त मानवता को धर्म की मर्यादा में रहने का मार्ग दिखाते हैं. महर्षि पतंजलि ने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि ‘यतोभ्युदय निःश्रेयस सिद्धि स धर्मः.’ अर्थात जिससे भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त हो वही धर्म है. धर्म के लक्षणों पर भरतीय ऋषियों ने कहा है कि धृति, क्षमा, कुविचारों का दमन, चोरी न करना, शुद्धता, इंद्रियनिग्रह, धि, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के यह दस लक्षण सारी मानवता के लिए हैं.
इसी प्रकार अष्टांग योग और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का जीवन दर्शन केवल हिन्दुओं के लिए ही नहीं है. हिन्दू तत्वज्ञान का संबंध किसी एक मजहब एवं क्षेत्र से न होकर समस्त मानवता की भलाई के लिए है. हिन्दुत्व सभी भारतीयों का प्राणतत्व है और यह तब से है, जब भारत तो क्या समस्त मानवता पंथिक वर्गों में विभाजित नहीं थी. भारत भूमि पर विकसित हुआ यह विचारतत्व समग्र मानवता के समग्र विकास की गारंटी है. हिन्दुत्व का संबंध केवल मात्र हिन्दुओं से न होकर समस्त मानवता के साथ है.
चिरंतन काल से चली आ रही इस चिंतनधारा ने अनेक प्रकार के व्यवधानों और संकटों के समक्ष भारतीय समाज के न केवल एकजुट बनाए रखा, बल्कि विदेशी शक्तियों को उखाड़ फ़ैकने के लिए निरंतर संघर्षशील भी बनाए रखा. वर्तमान भारत में जितनी भी राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक समस्याएं हैं, उनका एकमात्र समाधान हिन्दुत्व में ही है.
राष्ट्रीय अखंडता, सुरक्षा, सामाजिक सौहार्द से लेकर साधारण अथवा गरीब भारतीय की झोंपड़ी में दो वक्त के भोजन की व्यवस्था करने तक में हिन्दुत्व पूर्णतय सक्षम है. राष्ट्र के व्यापक संदर्भ में हिन्दुत्व सभी भारतीयों को जोड़ने वाली कड़ी है. अतः समय की आवश्यकता है कि कुछ राजनीतिक दलों तथा नेताओं द्वारा आम लोगों के मन मस्तिष्क में बैठाई गई अनेक प्रकार की गलत धारणाओं को निकाल बाहर किया जाए.
वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक
आगामी साप्ताहिक लेख का विषय – ‘राजनीतिक अवधारणा नहीं है हिन्दू राष्ट्र’