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याद करें सन् सत्तावन की वह तलवार पुरानी, रोटी और कमल ने लिख दी युग की अमिट कहानी

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1770 से लेकर 1857 तक पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ 235 विद्रोह हुए, जिनका परिपक्व रूप हमें 1857 में दिखाई देता है. 1770 में बंगाल का संन्यासी आन्दोलन, जहां से वंदे मातरम निकल कर आया. 150 संन्यासियों को अंग्रेजों की सेना गोली मार देती है. जहां से मोहन गिरी, देवी चौधरानी, धीरज नारायण, किसान, संन्यासी, कुछ फकीर, ये सभी मिलकर विद्रोह में खड़े हुए, जिन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम किया था और इसी विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों को तीस वर्ष लग गये. जहां से भारतीय राष्ट्रीयता की सबसे बड़ी नींव पड़ी, 1857 से पहले किसानों, जनजातियों तथा आम लोगों का अंग्रेजों के खिलाफ बहुत बड़ा विद्रोह रहा है.

हमारे देश की वीरांगनाओं का इसमें बड़ा योगदान था, उस दौरान पचास-पचास महिलाओं को अंग्रेजों ने फांसी पर लटकाया है, पेड़ों से रस्सी बांध कर. आज भी बागपत और इन इलाकों के गाँव के अंदर उन पेड़ों को लोगों द्वारा पूजा जाता है. 1857 की क्रान्ति और उसके बाद की घटनाओं में इस आंदोलन में महिलाओं ने कई बार अंग्रेजों के दांत खट्टे किए हैं. मेरठ, मुज्फ्फरनगर, शामली इन तमाम जगहों पर ऐसे नाम मिलते हैं. अच्छी बात इसमें यह है कि इसमें गुर्जर, जाट, ब्राह्मण, दलित भाई-बहनें और मुस्लिम समुदाय के भी हैं. इसमें ऐसी भी महिलाएं हैं, जिन्होंने झुंड बनाकर अंग्रेजों के खिलाफ काम किया और ऐसे कई उदाहरण हैं कि पति मेरठ के बाद दिल्ली लड़ाई लड़ने चला गया और फिर उनकी महिलाओं ने मेरठ में मोर्चा संभाला. इसमें अवंतीबाई का नाम आता है.

यहां तक कि मध्य प्रदेश की एक गायिका का नाम भी सामने आता है जो अंग्रेजों के बीच छावनी में जाती थी, तो नाच करने के दौरान अपने सैनिकों को पुड़िया में संदेश पहुंचाया करती थी. मोतीबाई, झलकारीबाई, झांसी का रानी का नाम प्रमुखता से आता है. यहां महिलाओं की सेना मटके द्वारा छत से अंग्रेज सैनिकों के ऊपर गर्म तेल डालती थी. साथ ही अपनी रानी का सुरक्षा घेरा बनाकर उनकी रक्षा करती थी.

कमल का फूल, रोटी और पत्र पूरे देश के अंदर घूम रहे थे. अंग्रेज़ खुद लिखते हैं, एक-एक रात के भीतर ये रोटी 200 से 300 मील तक चली जाती थी. उस समय चौकीदार की बहुत बड़ी भूमिका रही थी क्योंकि एक भी चौकीदार ने अपनी जुबान नहीं खोली कि इस कमल और रोटी घूमने का मतलब क्या है, या पेड़ की छाल छीलने का क्या मतलब है. पेशावर से लेकर बेलगांव तक और डीमापुर से लेकर शिवसागर तक पंचमहल, शोलापुर, देश के कौने-कौने में यह सुनियोजित तरीके से फैल रही थी.

अभी हाल ही में पराग टोपे की एक किताब आई है, पराग टोपे तात्या टोपे के खानदान से हैं. बड़ा अच्छा मतलब बताया है उन्होंने, एक कमल के फूल में 25 से 30 पंखुड़ियाँ होती हैं और जो अंग्रेजी प्लाटून होती थी, उसमें 25 से 30 सिपाही होते थे. ऐसे में लाल रंग के कमल के रूप में भारतीय सैनिकों के लिए संदेश था कि तुमको विद्रोह करना है. रोटी का मतलब था कि ऐसा समय आने वाला है, जब तुम्हें खाने पीने की चीजों की किल्लत हो सकती है. देखिये जो हिन्दुस्तानी सिपाही हैं, उनको कभी रसद की दिक्कत नहीं हुई. पेड़ की छाल छीलने का मतलब था कि जिस तरह से पेड़ की छाल छीलने पर पेड़ मर जाता है, उसी प्रकार से अँग्रेजी हुकूमत हमें खा रही है और हमें इसके खिलाफ खड़े होना है.

अब पत्रों के अंदर पेशावर से लेकर बंगाल तक के सभी पत्रों को ही ले लीजिये, पेशावर से लेकर बंगाल तक क्या कारण है कि पत्रों की गुप्त भाषा एक जैसी है, जिसमें एक जैसे संदेश दिये जा रहे हैं. नाना साहब की चिट्ठियाँ आप देखिये कि जो भाषा है, वह एक ही है. 1857 से पहले नाना साहब की चिठ्ठी आप देखिए कि जम्मू के राजा तक को पत्र लिखा कि हमारी मदद करना, जिस पर जम्मू के राजा ने हामी भरी है. साफ है यह एक सुनोयोजित तरीके से की गयी क्रांति थी.

जेएनयू के हिस्ट्री डिपार्टमेंट में 1857 की क्रान्ति पर एक भी थीसिस जमा नहीं हुई. अलीगढ़ विश्वविद्यालय और हैदराबाद में भी नहीं है, जो अपने आप में रिसर्च के गढ़ माने जाते हैं. दिल्ली में एक दो बाद में हो गए, वह भी तब जब सरकार ने इसे घोषित किया कि यह स्वतंत्रता संग्राम था.

जब मैं तात्या टोपे (tatya tope) पर संग्रहालय के लिए एक पैनल बना रहा था तो एक वृतांत मिलता है कि 1 जनवरी, 1859 को युद्ध के अंदर तात्या टोपे की मृत्यु हो गयी. बताते हैं कि 6 जनवरी को अंतिम संस्कार भी कर दिया गया. फिर एक रिपोर्ट आती है कि 6 अप्रैल को तात्या टोपे को जंगलों से पकड़ लिया गया, उस आदमी पर मुकदमा चलाकर जून के अंदर शिवपुरी में उसको फांसी दे दी जाती है. लेकिन 1864 का एक कागज मिलता है कि जिसमें एक डीएम कहता है कि मैंने 40 हजार सैनिक एकत्र कर लिए हैं और मैं असली तात्या टोपे को पकड़ने जा रहा हूं.

इसलिए ना चाहते हुए भी मैं एक प्रश्न खड़ा करता हूं कि क्या वास्तव में ग्वालियर में झांसी का रानी की मृत्यु हुई थी, क्योंकि अंग्रेजों को रानी की मौत की खबर सात दिन बाद लगी थी. साथ ही रानी को बचाने में आश्रम के 782 साधुओं ने अपनी जान दी थी. वो कहते हैं कि रानी घायल थी, जिसे हमने नाना साहब के पास भेज दिया और दूसरी स्त्री थी झलकारी बाई, उसका दाह संस्कार किया गया और अंग्रेजों को बताया गया कि झांसी की रानी मर गयी है. वह भी एक हफ्ते बाद में, और फिर उसकी अस्थियों को दिखा दिया गया. जिससे लगता है कि झांसी की रानी की मौत नहीं हुई. लेकिन इस पर अभी शोध बाकी है. तो अभी ऐसा बहुत कुछ है जो इतिहास में जानने योग्य है और हमारे यहां के शोध छात्रों को इस पर काम करना चाहिए.

साभार – 1857 के तथ्य – प्रो. कपिल कुमार की जुबानी

(वरिष्ठ चिंतक और इतिहासकार, वर्तमान में इंदिरा गांधी ओपन यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर)

 

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