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श्रद्धेय नरेंद्र कोहली

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नरेंद्र कोहली का जन्म ६ जनवरी, १९४० को संयुक्त पंजाब के सियालकोट में हुआ था जो अब पाकिस्तान मे है. प्रारम्भिक शिक्षा लाहौर में हुई और भारत विभाजन के पश्चात परिवार के जमशेदपुर चले आने पर आगे की शिक्षा वहीं हुई. प्रारम्भिक अवस्था में हिन्दी के इस सर्वकालिक श्रेष्ठ रचनाकार की शिक्षा का माध्यम हिन्दी न होकर उर्दू था. हिन्दी विषय उन्हें दसवीं कक्षा की परीक्षा के बाद ही मिल पाया. विद्यार्थी के रूप में नरेन्द्र अत्यंत मेधावी थे एवं अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होते रहे. वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भी उन्हें अनेक प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ.

दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर और डाक्टरेट की उपाधि ली. प्रसिद्ध आलोचक डॉ. नगेन्द्र के निर्देशन में “हिन्दी उपन्यास : सृजन एवं सिद्धांत” विषय पर उनका शोध प्रबंध पूर्ण हुआ. इस प्रारम्भिक कार्य में ही युवा नरेन्द्र कोहली की मर्मभेदक दृष्टि एवं मूल तत्व को पकड़ लेने की शक्ति का पता लग जाता है.

१९६३ से लेकर १९९५ तक उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया और वहीं से १९९५ में पूर्णकालिक लेखन की स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए स्वैच्छिक अवकाश ग्रहण कर लिया.

यों तो छह वर्ष की आयु से ही उन्होंने लिखना प्रारम्भ कर दिया था, लेकिन १९६० के बाद से उनकी रचनाएँ प्रकाशित होने लगीं. समकालीन लेखकों से वो भिन्न इस प्रकार हैं कि उन्होने जानी मानी कहानियों को बिल्कुल मौलिक तरीके से लिखा. उनकी रचनाओं का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है. ‘दीक्षा’, ‘अवसर’, ‘संघर्ष की ओर’ और ‘युद्ध’ नामक रामकथा श्रृंखला की कृतियों में कथाकार द्वारा सहस्राब्दियों की परंपरा से जनमानस में जमे ईश्वरावतार भाव और भक्तिभाव की जमीन को, उससे जुड़ी धर्म और ईश्वरवाची सांस्कृतिक जमीन को तोड़ा गया है. रामकथा की नई जमीन को नए मानवीय, विश्वसनीय, भौतिक, सामाजिक, राजनीतिक और आधुनिक रूप में प्रस्तुत किया गया है. नरेन्द्र कोहली ने प्रायः सौ से भी अधिक उच्च कोटि के ग्रंथों का सृजन किया है.

उपन्यास, कहानी, व्यंग, नाटक, निबंध, आलोचना, संस्मरण इत्यादि गद्य की सभी प्रमुख एवं गौण विधाओं में नरेन्द्र कोहली ने अपनी विद्वता का परिचय दिया है. उपन्यास विधा पर अद्भुत पकड़ होने के कारण नरेन्द्र कोहली की कई विषयों में व्यापक सिद्धहस्तता मानव मनोविज्ञान को वह गहराई से समझते हैं एवं विभिन्न चरित्रों के मूल तत्व को पकड़ कर भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में उनकी सहज प्रतिक्रया को वे प्रभावशाली एवं विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं. औसत एवं असाधारण, सभी प्रकार के पात्रों को वे अपनी सहज संवेदना एवं भेदक विश्लेषक शक्ति से न सिर्फ पकड़ लेते है, वरन उनके साथ तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं. राजनैतिक समीकरणों, घात-प्रतिघात, शक्ति-संतुलन इत्यादि का व्यापक चित्रण उनकी रचनाओं में मिलता है. भाषा, शैली, शिल्प एवं कथानक के स्तर पर नरेन्द्र कोहली ने अनेक नए एवं सफल प्रयोग किये. उपन्यासों को प्राचीन महाकाव्यों के स्तर तक उठा कर उन्होंने महाकाव्यात्मक उपन्यासों की नई विधा का आविष्कार किया.

सैकड़ों पात्रों एवं हजारों घटनाओं से समृद्ध ‘महासमर’ के आठ खंडों के चार हज़ार पृष्ठों के विस्तार में कहीं भी न बिखराव है, न चरित्र की विसंगतियां, न दृष्टि और दर्शन का भेद. पन्द्रह वर्षों के लम्बे समय में लिखे गए इस महाकाव्यात्मक उपन्यास में लेखक की विश्लेषणात्मक दृष्टि कितनी स्पष्ट है, यह उनके ग्रन्थ “जहां है धर्म, वहीं है जय” को देखकर समझा जा सकता है जो महाभारत की अर्थप्रकृति पर आधारित है. इस ग्रन्थ में उन्होंने ‘महासमर’ में वर्णित पात्रों एवं घटनाओं पर विचार किया है, समस्याओं को सामने रखा है एवं उनका निदान ढूँढने का प्रयास किया है. महाभारत को समझने में प्रयासशील इस महाउपन्यासकार का यह उद्यम देखते ही बनता है, जिसमें उनकी विचार-प्रक्रिया के रेखांकन में ही एक पूरा ग्रन्थ तैयार हो जाता है. साहित्य के विद्यार्थियों और आलोचकों के लिए नरेन्द्र कोहली की साहित्य-सृजन-प्रक्रिया को समझने में यह ग्रन्थ न सिर्फ महत्वपूर्ण है, वरन् परम आवश्यक है.

कोहलीजी का प्रथम उपन्यास था ‘पुनरारंभ’. इस व्यक्तिपरक-सामाजिक उपन्यास में तीन पीढ़ियों के वर्णन के लक्ष्य को लेकर चले उपन्यासकार ने उनके माध्यम से स्वतंत्रता-प्राप्ति के संक्रमणकालीन समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों की मानसिकता एवं जीवन-संघर्ष की उनकी परिस्थितियों को चित्रित करने का प्रयास किया था. इसके पश्चात् आया ‘आतंक’. सड़ चुके वर्तमान समाज की निराशाजनक स्थिति, अत्याचार से लड़ने की उसकी असमर्थता, बुद्धिजीवियों की विचारधारा की नपुंसकता एवं उच्च विचारधारा की कर्म में परिणति की असफलता का इसमें ऐसा चित्रण है जो मन को अवसाद से भर देता है.

नरेन्द्र कोहली की एक बड़ी उपलब्धि है “वर्तमान समस्याओं को काल-प्रवाह के मंझधार से निकाल कर मानव-समाज की शाश्वत समस्याओं के रूप में उनपर सार्थक चिंतन”. उपन्यास में दर्शन, आध्यात्म एवं नीति का पठनीय एवं मनोग्राही समावेश उन्हें समकालीन एवं पूर्ववर्ती सभी साहित्यकारों से उच्चतर धरातल पर खडा कर देता है.

उनके स्वर्गारोहण पर सभी साहित्यानुरागियों का सश्रद्धा प्रणाम…!

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