म्यांमार की सीमा न ही जम्मू कश्मीर से सटी है और न ही संस्कृति व खान-पान मेल खाता है. इसके बावजूद हजारों की संख्या में रोहिंग्या मुसलमानों का जम्मू कश्मीर में धीरे-धीरे पहुंचना और वहां बस जाना एक बड़ी साजिश की ओर इशारा करता है. यह मानवता और रोजगार की आड़ में जम्मू की जनसांख्यिकी स्वरूप को बदलने की साजिश है. और इस पूरे खेल में अलगाववाद और मजहबी राजनीति पूरी तरह हावी है. इस साजिश में तथाकथित एनजीओ, मौके का लाभ उठाने वाले एजेंट और मजहब के नाम पर रोटियां सेंकने वाले राजनेता सभी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जुड़े रहे हैं.
अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम और नागालैंड के साथ ही म्यांमार की सीमा लगती है. इसके बावजूद अधिकांश रोहिंग्या बांग्लादेश के रास्ते कोलकाता पहुंचते रहे हैं. बंगाल के मालदा में रोहिंग्या शरणार्थियों की एक बड़ी तादाद बसी है और यहीं से इन्हें जम्मू पहुंचाने का खेल शुरू होता था. एक हिस्सा इसके समानांतर दिल्ली में चलता था, जहां रोहिंग्या शरणार्थियों का संयुक्त राष्ट्र से संबंधित एजेंसियां पंजीकरण करती हैं. रोहिंग्या की मदद के नाम पर विभिन्न मजहबी संस्थाएं और तथाकथित एनजीओ कोलकाता और दिल्ली में पूरी तरह सक्रिय रहती थीं. यह तत्व रोहिंग्याओं को जम्मू कश्मीर के मुस्लिम बहुल होने का हवाला देते हुए कहते हैं कि वहां आप और आपका मजहब पूरी तरह से सुरक्षित है. आपको वहां रोजगार भी आसानी से मिलेगा. आपकी पूरी मदद होगी, वहां आप पर कोई पाबंदी नहीं होगी. रोहिंग्या इससे प्रभावित होते और उनका जम्मू के लिए सफर शुरू हो जाता.
रोहिंग्या शरणार्थियों का जब कोई परिवार जम्मू के लिए हामी भरता था तो फिर यही मजहबी संस्थाएं और एनजीओ उनकी यात्रा का बंदोबस्त करतीं. कई मामलों में वह जम्मू, सांबा और बाड़ी ब्राह्मणा में सक्रिय अपने लोगों के फोन नंबर देतीं. रोहिंग्या जब जम्मू पहुंचते तो सक्रिय तत्व पहले उनको मस्जिदों, मदरसों में रहने का बंदोबस्त करते. बाद में इन्हें जम्मू के आसपास बसी रोहिंग्याओं की झुग्गियों में पहुंचा देते.
सुरक्षा एजेंसियों की बीते एक दशक के दौरान तैयार की गई विभिन्न रिपोर्ट के अध्ययन से पता चलता है कि जम्मू कश्मीर में सक्रिय अलगाववादी और कट्टरवादी विचारधारा का प्रचार करने वाले संगठन इन्हें जम्मू के उन इलाकों में बसा रहे हैं, जहां एक विशेष समुदाय की आबादी कम है. इससे संबंधित क्षेत्रों में समुदाय की आबादी को धीरे-धीरे बढ़ाया जा रहा है. इसके अलावा कट्टरपंथी तत्व रोहिंग्या शरणार्थियों के बीच जिहाद और कश्मीर में अलगाववादी हिंसा को म्यांमार के हालात से जोड़कर बात करते हैं.
इस तरह से वह उन्हें जम्मू कश्मीर में जिहादी तत्वों के लिए काम करन के लिए भी तैयार कर लेते हैं. ऐसे कई मामले बीते एक दशक के दौरान सामने आ चुके हैं. जम्मू कश्मीर की सीमा का पाकिस्तान के साथ सटा होना भी इनकी मदद करता है. इसके अलावा जम्मू में बड़ी संख्या में पहले से ही उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और बांग्लादेश के विशेष समुदाय के लोग बसे हैं, ऐसे में रोहिंग्या को आम लोग आसानी से चिन्हित नहीं कर पाते हैं.
05 अगस्त, 2019 को जम्मू कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम के लागू होने से पूर्व जम्मू कश्मीर की सियासत में रोहिंग्या का खूब इस्तेमाल हुआ. अगर कभी इनके खिलाफ आवाज उठी तो अलगाववादी और मजहबी संगठनों ने जम्मू कश्मीर में समुदाय के उत्पीडऩ का शोर मचाया. नेशनल कांफ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, अवामी इत्तेहाद पार्टी और कांग्रेस ने भी रोहिंग्याओं का अपने वोट बैंक के लिए इस्तेमाल किया. हालांकि रोहिंग्या जम्मू कश्मीर में मतदान नहीं कर सकते हैं, लेकिन उनके खिलाफ कार्रवाई करने का मतलब इस समुदाय के वोटर को नाराज करना है.
यही कारण है कि जम्मू कश्मीर की अंतिम मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कथित तौर पर कहा था कि जम्मू में बेशक लोग रोहिंग्या को बाहर निकालने की मांग करें, लेकिन हम नहीं निकाल सकते. उन्होंने गेंद केंद्र के पाले में फेंकते हुए कहा था कि यह केंद्र का विषय है.
आतंकवाद और अलगाववाद का साथ
जम्मू कश्मीर में रोहिंग्या को बसाने में सक्रिय रहे मजहबी संगठनों, एनजीओ और अलगाववादियों से जुड़े संगठन की गतिविधियों को देखा जाए तो उनके मकसद को आसानी से समझा जा सकता है. जमात-ए-इस्लामी कश्मीर और इससे संबंधित कुछ संगठन वर्ष 2018 तक रोहिंग्याओं के बीच काम करते रहे हैं. इन संगठनों ने कई बार कश्मीर घाटी में रोहिंग्याओं के नाम पर तनाव पैदा किया, जुलूस भी निकलवाए.
ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस के उदारवादी गुट के चेयरमैन मीरवाइज मौलवी उमर फारूक ने रोहिंग्या के लिए कश्मीर में सांत्वना दिवस का भी आयोजन किया था. कश्मीर में सक्रिय लश्कर, जैश व अन्य कई संगठनों के साथ रोहिंग्या आतंकी संगठनों का तालमेल रहा है. कुछ साल पहले सुरक्षाबलों ने एक म्यांमारी आतंकी छोटा बर्मी को उसके दो अन्य साथियों संग मुठभेड़ में मार गिराया था. म्यांमारी आतंकियों को कश्मीर के आतंकियों के साथ जोड़ेने में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी का भी एक बड़ा रोल रहा है.
बीते 10 साल से जम्मू के नरवाल में बसे रोहिंग्या मोहम्मद रफीक ने कहा कि यहां हमारे लिए रोजगार आसानी मिल जाता है. इसके अलावा यहां ज्यादातर आबादी हमारे समुदाय की है. मैं इन्हीं दो कारणों से यहां आया था और मुझे कोलकाता में एक मौलवी साहब ने जम्मू के बारे में बताया था. यहां पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं हुई. सैय्यदुल्ला अमीन ने कहा कि मेरा एक रिश्तेदार पहले से ही यहां था. मैं जब दिल्ली में यूएनओ कार्यालय में कार्ड बनवा रहा था तो उस रिश्तेदार ने कहा कि जम्मू में रहने की जगह भी मिल जाएगी और दिहाड़ी भी ठीक मिलती है. बस यहां चला आया.
रोहिंग्या मोहम्मद रफीक ने कहा कि रेलगाड़ी या बस में सफर के दौरान हमें कभी किसी ने नहीं रोका. किसी जगह हमारी जांच नहीं हुई.
डीआइजी रैंक के एक अधिकारी ने कहा कि यह लोग एक संवेदनशील राज्य में बिना किसी की जांच दाखिल होते हैं, यह अपने आप में कई सवाल पैदा करता है. पूरे रास्ते में कोई इनकी जांच पड़ताल नहीं करता. जम्मू रेलवे स्टेशन पर हजारों लोगों रोजाना आते हैं, हरेक की जांच संभव नहीं हो पाती. इनके बारे में तभी पता चलता है, जब पुलिस विभिन्न बस्तियों में इनकी जांच के लिए जाती है या फिर कोई समाजसेवी संस्था इनका आंकड़ा जुटाती है.
इनपुट साभार – दैनिक जागरण