भारत में कम्युनिस्ट एवं इस्लामी कट्टरपंथी समूहों ने मिलकर देश के विभिन्न हिस्सों में षड्यंत्रपूर्वक आतंकी गतिविधियों को अंजाम दिया है. एक ओर जहां इस्लामिक जिहादियों ने आतंकी हमले, बम विस्फोट, सेना पर हमला और आम नागरिकों पर आतंकी हमलों को अंजाम दिया है, वहीं दूसरी ओर कम्युनिस्ट आतंकी तो पूरा एक लाल गलियारा बनाकर माओवादी गतिविधियों में लगे हुए हैं.
इसके अलावा भारत में माओवादियों और इस्लामिक कट्टरपंथियों के शहरी एवं बौद्धिक पैरोकारों के बीच भी एक अलिखित समझौता नजर आता है, जिसमें दोनों समूहों द्वारा एक दूसरे के पक्ष में बातें की जाती हैं.
जहां इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा सीएए विरोधी आंदोलन और दिल्ली के हिन्दू विरोधी दंगों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जाती है, वहीं कम्युनिस्ट समूह अवैध गतिविधियों में इस्लामिक समूह का साथ देते नजर आए हैं.
दोनों समूहों का एकमात्र उद्देश्य भारत में हिन्दुओं की आस्था पर चोट करते हुए भारतीय संस्कृति, परंपरा को खत्म करना और भारत को अपने विदेशी आकाओं के इशारे पर अस्थिर करना है. यह तो हुई भारत की बात, जहां लोकतंत्र है, जहां दोनों विचारों को स्थान मिला हुआ है और दोनों विचार के लोग खुलेआम घूम रहे हैं.
यदि हम बात करें इस्लामिक देशों की तो क्या पाकिस्तान में और बांग्लादेश जैसे तथाकथित लोकतंत्र में ‘साम्यवाद’ का कोई स्थान है, या सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और अफगानिस्तान सहित अज़रबैजान और अफ्रीकी इस्लामिक देशों में कम्युनिस्ट मौजूद हैं? इसका सीधा सा उत्तर है, नहीं!
वहीं चीन, लाओस, क्यूबा जैसे कम्युनिस्ट शासन में इस्लामिक दलों की कोई जगह नहीं है, यहां तक कि चीन इस्लाम मानने वालों की क्या दुर्गति करता है, वह सर्वविदित है.
चीन में कुरान में फेरबदल किए जा चुके हैं, मस्जिदों को तोड़ा जा चुका है, इस्लाम मानने वालों को बंदी बनाकर रखा जाता है, मुस्लिम महिलाओं से चीनी सैनिकों द्वारा जबरन शारीरिक संबंध बनाए जाते हैं, साथ ही इस्लाम मानने वाले समूह की पूरी जमीन पर चीनी कम्युनिस्ट सरकार ने कब्जा किया हुआ है.
वहीं, दूसरी ओर पाकिस्तान में कम्युनिस्टों का कोई स्थान नहीं है, इंडोनेशिया जैसे देशों ने तो कानून लाकर वामपंथ की बात करने या प्रचार करने पर जेल में डालने का प्रावधान किया है.
दरअसल, कम्युनिस्ट और इस्लामिक कट्टरपंथी गतिविधियों को रोकने के लिए विभिन्न सरकारें ‘हथियारों’ और ‘कानूनों’ से प्रयास करते आई हैं, लेकिन मूल जड़ को समझने का प्रयास किसी ने नहीं किया है.
सीरियाई लेखिका डॉ. वफ़ा सुल्तान ने एक दशक पूर्व अपनी पुस्तक ‘अ गॉड हू हेट्स’ में इस्लामिक कट्टरपंथियों की गतिविधियों के ‘जड़’ की बात लिखी थी, जिसमें उन्होंने बताया था कि आखिर तमाम प्रतिबंधों और सजाओं के बाद भी नये जिहादी कैसे तैयार हो रहे हैं?
उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा था कि उन्होंने मुस्लिम देशों में जन-संहारक हथियारों को खोजने का प्रयास किया, लेकिन वह कहीं नहीं मिला, क्योंकि उन्हें यह नहीं पता था कि उसे कहाँ छिपाकर रखा गया है.
डॉ. वफ़ा आगे लिखतीं हैं कि यदि अरब देशों की स्कूली किताबों को खोल कर पन्ने-दर-पन्ने पढ़े जाएं तो यह समझा जा सकता है कि मानवता का संहार करने का सामर्थ्य लिए जो हथियारों का असली जखीरा है, वह उन्हीं किताबों में है. मुस्लिमों में आतंकी मानसिकता पैदा करने वाले संस्थान पूरे विश्व में मौजूद किसी भी हथियार के कारखाने से अधिक खतरनाक हैं. इसके अलावा आतंकियों पर दारुल उलूम और देवबंद के मौलानाओं का प्रभाव भी किसी से छिपा नहीं है.
दूसरी ओर हम यदि कम्युनिस्ट विचार की बात करें तो सोवियत में स्थापित पहले कम्युनिस्ट शासन से लेकर वर्तमान में मौजूद चीन, उत्तर कोरिया, क्यूबा और लाओस सहित वियतनाम की स्थिति क्या कहती है?
इनमें से किसी भी देश में नागरिक स्वतंत्रता नहीं है, किसी भी देश में लोकतंत्र नहीं है और इन सभी देशों में मौजूद कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लोग ‘एक विचार, एक पार्टी, एक नेता’ को अपना सर्वस्व मानकर चल रहे हैं. कम्युनिस्ट विचार में भी विद्यालयी शिक्षा एवं पाठ्यक्रमों के माध्यम से बच्चों में ‘जहर’ डाला जा रहा है, जो आगे चलकर वामपंथी दलों और विचारकों के लिए ही कार्य करता है.
भारत के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में जब ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे..’ के नारे लगाए जाते हैं, तो इसके पीछे वही ‘ब्रेनवॉश’ युवा होते हैं, जिन्हें पुस्तकों और विचारों से अपनी मातृभूमि के टुकड़े कराने के लिए पोषित किया गया है.
हमें यह समझना आवश्यक है कि इस्लामिक कट्टरपंथ और कम्युनिस्ट उग्रवाद वास्तव में साम्राज्यवादी विचार है. जिनका घोषित लक्ष्य पूरी दुनिया में अपने विचार की स्थापना करना है.
इसके लिए ये दोनों समूह किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं, और इसके लिए की जाने वाली तमाम गतिविधियों को इन दोनों समूह द्वारा ‘जिहाद’ और ‘क्रांति’ का नाम दिया गया है.
जिहाद के नाम पर जहां इस्लामिक समूह ने दुनियाभर में कट्टरपंथ, आतंक, जनसंख्या वृद्धि, प्रेम जाल और मतांतरण का मकड़जाल बुन रखा है, तो वहीं दूसरी ओर लोकतांत्रिक देशों में उदारवाद, बौद्धिकता, स्वतंत्रता और संविधान का नाम लेकर वामपंथियों ने ‘क्रांति’ शुरू की हुई है.
अपने इस साम्राज्यवादी लक्ष्य को हासिल करने के लिए दोनों समूहों ने अपने से असहमत लोगों को ना सिर्फ चुप कराया है, बल्कि उनका नरसंहार भी किया है. जिसके अनगिनत उदारहण दुनियाभर में मौजूद हैं.
यही कारण है कि जब इस समस्या के निराकरण की बात आती है तो हमें हथियारों से अधिक डॉ. वफ़ा सुल्तान और अलेक्सान्द्र सोल्शेनीत्सिन द्वारा बताए तरीकों को समझना होगा.
डॉ. वफ़ा कहती हैं कि सभी अरबी-इस्लामी पाठ्यपुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं और इस्लामी लेखों को विश्वसनीय तरीके से अंग्रेजी में दुनिया के सामने रखा जाना चाहिए, जिससे पूरी दुनिया को पता चले कि आखिर ‘एक कौम के बच्चे’ क्या पढ़ रहे हैं?
यूरोपीय देशों से लेकर भारत की सरकार भी इन पुस्तकों के अपने देश की भाषा में अनुदित करवाएं ताकि सभी को पता चले कि ‘जिहाद’ की वास्तविक जड़ कहाँ मौजूद है. इसके सामने आने के बाद ही यह पता चलेगा कि वास्तविक समस्या वहां नहीं है, जहां अभी तक समझा जा रहा है.
वहीं साम्यवाद की बात करें तो अलेक्सान्द्र सोल्शेनीत्सिन की उस रचना को याद करना चाहिए जो उन्होंने सोवियत संघ के कम्युनिस्ट शासनकाल में लिखी थी, और जिससे कम्युनिस्ट शासन की जड़ें हिल गई थीं.
सोवियत के कम्युनिस्ट शासन ने दुनिया की तमाम ताकतों को झेल लिया था, अमेरिका से दशकों तक शीत युद्ध झेल लिया था, और तो और हिटलर के हमले को भी झेल लिया था. लेकिन जब साम्यवाद के विचारों की असलियत को अलेक्सान्द्र सोल्शेनीत्सिन ने उजागर किया, उसी दिन से सोवियत में वामपंथ का पतन शुरू हो गया.
बस, इसी बात को समझना और जानना जरूरी है कि इन इस्लामिक कट्टरपंथियों और कम्युनिस्ट आतंकियों की जड़ें कहाँ मौजूद हैं, और यदि एक बार हम यह समझने में कामयाब हो गए तो पूरे विश्व को इनके ‘जिहाद’ और ‘क्रांति’ से बचाया जा सकता है, जो मानवता को बचाने के समतुल्य होगा.
इनपुट – नेरेटिव वर्ल्ड