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..इसलिए संकट में है गांवों का अस्तित्व

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स्वराज से सुराज ही बचा सकता है इन्हें…!

जयराम शुक्ल

स्वतंत्रता के बाद भारतमाता की पुनर्प्राण प्रतिष्ठा का सपना पाले गांधी जी इहलोक से प्रस्थान कर गए. अन्ना समेत सभी समाजसेवी कहते हैं और मानते हैं कि आज गांव संकट में हैं, इस देश को बचाना है तो गांवों को बचाना होगा. और गांवों को बचाने के लिए व्यापक पैमाने पर अभियान की आवश्यकता है. इस वर्ष विजयादशमी के वार्षिक उद्बोधन में सरसंघचालक मोहन भागवत जी ने स्वराज्य से सुराज की बात की है. ऐसा सुराज, जिसमें सबकुछ अपना हो और वह विश्व के समक्ष एक आदर्श बने.

मोहन भागवत जी का विजयादशमी संबोधन वस्तुतः भारतमाता की उस वैभवशाली तस्वीर को रेखांकित करता है, जिसकी बात अब इतिहास के पन्नों पर दर्ज है. उन्होंने परंपरागत कौशल, लोक अन्न, गोवंश केंद्रित कृषि के साथ आत्मनिर्भर, स्वस्थ व समर्थ भारत की बात की. जहां गांव स्वयमेव एक आर्थिक इकाई बनें.

गांधी हमेशा ग्राम स्वराज के पैरोकार थे. उन्हें इसकी आशंका थी कि आजादी के बाद पहला प्रहार गांवों में होगा, और हुआ भी. यूरोपीय दर्शन से प्रभावित पं. जवाहरलाल नेहरू ने शहरों को विकास का मानक बना दिया. श्रम आधारित कुटीर उद्योगों की जगह भारी मशीनों का बोलबाला शुरू हुआ. गांव की मिश्रित अर्थवयवस्था भंग होती गयी. परिणाम यह हुआ कि 90 के ग्लोबलाइजेशन के बाद, टाटा, बाटा सभी गांव पहुंच गए. गांव के परंपरागत कौशल को संगठित व बड़ी कंपनियों ने हजम करना शुरू कर दिया. सबसे पहले इसी वर्ग से काम छिना जो गांव की अपनी स्वतंत्र अर्थव्यवस्था के कारक थे.

मध्यप्रदेश के रीवा जिले के जिस बड़ी हर्दी नामक गांव का मैं निवासी हूँ, उसका इतिहास पांच सौ वर्ष से ज्यादा पुराना है. जो गांव दो सौ वर्ष भी पुराने होंगे, वहां के उम्रदराज लोगों ने आहिस्ता-आहिस्ता ढहती अर्थव्यवस्था को अपनी नजरों से देखा होगा. हमारे गांव में प्रायः हर वृत्ति के पारंगत लोग थे. लुहार, बढ़ई, सोनार, ठठेर, ताम्रकार, रंगरेज, कोरी, धोबी, रंगरेज, नाई लखेरा, पटवा, मनिहार, बेहना, भड़भूजा बांस का काम करने वाले बंसोर, चमड़े का जूता बनाने वाले चर्मकार, कुम्हार, बनिया, किसान. सभी एक दूसरे पर निर्भर या यूं कहें परस्पर पूरक.

सन् सत्तर के दशक तक मेरी जानकारी में रुपये का विनिमय महज 10 प्रतिशत था. सभी काम सहकार और वस्तु विनिमय के आधार पर चलते थे. बड़ी कंपनियों के उत्पादों ने गांव में सेंध लगानी शुरू कर दी. सब एक-एक कर बेकार होते गए. आज मेरे गांव से लगभग समूचा कामकाजी वर्ग पलायन कर गया. लुहारी टाटा ने छीन ली और बाटा चर्मकार होकर पहुंच गए. सोनारों के धंधे में भी ब्रांडेड कंपनियाँ आ गई.

एक बार टीवी डिबेट में मेरे एक साथी ने आपत्ति उठाई कि आप उनके उत्थान के पक्षधर नहीं हैं क्या? मैंने जवाब दिया हूँ.. लेकिन मेरा आग्रह यह कि जिनके पास सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी पारंपरिक कौशल है, उसे आधुनिकता के साथ जोड़ा जाना चाहिए. यदि उन्हें ही कौशल संपन्न बनाया जाता तो आज गांवों में टाटा-बाटा, तनिष्क नहीं घुसते.

सबसे बड़ा खेल राजनीति का रहा. उन्होंने जातियों को वोट बैंक में बदल दिया और आरक्षण की मृगतृष्णा दिखा कर नौकरी की लाइन में खड़ा कर दिया. देश की सत्ता का संचालन करने भगवान् स्वयं आ जाएं तो वे सबको नौकरी नहीं दे सकते. साजिशाना तरीके से परंपरागत कौशल छीन कर उद्योगपतियों के हवाले कर दिया गया. गांधी ने जो ग्रामोद्योग वाली स्वावलंबी व्यवस्था सोची थी, उसका सत्यानाश हो गया. हर छोटे-बड़े काम उद्योगपतियों के हवाले कर दिए गए. उद्योग जातीय बंधन नहीं मानता, इसलिए पंडित बिंदेशरी पाठक आज देश के सबसे बड़े स्वीपर हैं और पंडित विश्वनाथ दुबे ने देश का सबसे बड़ा मुर्गीफार्म खड़ा कर दिया.

आरक्षण से ज्यादा जरूरी था इस वर्ग का आर्थिक सशक्तिकरण. यदि दलित जातियों के पास धन आ जाता तो सामाजिक गैरबराबरी अपने आप मिट जाती. मुझे नाम याद नहीं आ रहा, अटल जी की सरकार में योजना आयोग में रहे एक बड़े दलित नेता ने कहा था – हर परिवार को न्यूनतम पांच एकड़ जमीन दे देजिए और अपना ये आरक्षण अपने पास रखिये, ये कामकाजी कर्मठ लोग अपनी हैसियत खुद बना लेंगे.

सत्तानशीनों से पूछिये क्या हुआ सीलिंग एक्ट का? यह तो सांविधानिक व्यवस्था थी कि एक परिवार के पास निर्धारित रकबा से ज्यादा भूमि न हो. अतिशेष जमीन भूमिहीनों में बांट दी जाए. छः दशक कांग्रेस का शासन रहा, क्या हुआ उस संविधानिक व्यवस्था का. चौधरी चरण सिंह उत्तरप्रदेश में आज भी चकबंदी के फैसले और उस पर कड़ाई से अमल के लिए जाने जाते हैं.

सत्ता में नए जमाने के जमीदार काबिज हैं. जो नहीं थे वे कुर्सी पाते ही बन गए. आज गांवों के सामने नया संकट है. पहला तो यह कि सत्तर प्रतिशत की लैंड होल्डिंग दस प्रतिशत लोगों के पास है. ये दस फीसद लोगों की दोहरी नागरिकता है. हैं किसान, पर रहते शहर में हैं. बड़े नगरों की पचास किमी की परिधि में अब ज्यादातर शहरी साहब ही किसान हैं. जमीनों का मालिकाना हक इन्हीं के पास है. ये बड़े अफसर हैं या व्यवसायी. इनका गांवों की उन्नति से कोई लेना देना नहीं. निवेश और औद्योगिकीकरण के नाम पर जोत की जमीनें जा रही हैं. नेशनल हाइवेज के विस्तार में भी जोत की जमीन का बड़ा हिस्सा जा रहा है.

गांव के जो मध्यमवर्गीय किसान हैं उन्हें डराया जा रहा है कि खेती जोखिम का धंधा है. शहरी कारोबारी ठेके की खेती करने गांव घुस रहे हैं. हताश किसान एक मुश्त रकम पाकर खेती छोड़ रहा है. सरकारें किसानों की सुविधाओं की बातें तो कर रही हैं, लेकिन उनका भरोसा नहीं जीत पा रहीं. यह कथित किसान आंदोलन भी कुछ इसी तरह के भ्रम का परिणाम है.

कहीं पढ़ा था कि ब्राजील में ऐसा ही हुआ. गांवों में सिर्फ बीस प्रतिशत लोग रह गए. वे पलायन कर शहरों के स्लम में बस गए. खेती शहरी कारोबारियों के कब्जे में आ गई. अपना देश जब आजाद हुआ था, तब 85 फीसद लोग गावों में रहते थे. अब यह आंकड़ा 65 फीसदी तक पहुंच गया. इस दरम्यान शहरों की संख्या तीन गुना बढ़ गई, नब्बे हजार गांव खत्म हो गए. जब आजादी मिली थी, तब कृषि क्षेत्र का जीडीपी में योगदान 50 प्रतिशत था, 2015 में यह 17 प्रतिशत आ गया. 40 प्रतिशत किसान ऐसे हैं, जिन्हें विकल्प मिल जाए तो तत्काल खेती छोड़ दें.

गांधी ने कहा था – प्रत्येक गांव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्वावलंबी हों, तभी सच्चा ग्राम स्वराज आ सकता है. आजाद भारत में जमीन पर अधिकार जमीदारों का नहीं, जोतने वालों का होगा, वही असली मालिक होंगे. गांधी के इस सपने को तिल तिल मारा गया. जिस क्रूर अर्थव्यवस्था की छाया में हम आगे बढ़ रहे हैं, उसके चलते गांवों का वजूद संकट में है. भारत माता ग्राम्यवासिनी है, गांव बचेंगे तभी देश बचेगा. हम सब अपने-अपने हिस्से का सोचें और जितना बन सके करें.

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