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बीती नहीं है 19 जनवरी की वह रात

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लोकेन्द्र सिंह

जम्मू-कश्मीर में हुए हिन्दुओं के नरसंहार को सप्रमाण प्रस्तुत करने वाली फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ भारतीय सिनेमा के लिए एक मील का पत्थर है. जम्मू-कश्मीर को केंद्र में रखकर पहले भी फिल्में बनती रही हैं, लेकिन उनमें सच कभी नहीं दिखाया गया. बल्कि सच पर पर्दा डालने के प्रयास ही अधिक हुए. निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री ने हिन्दुओं के नरसंहार को दिखाने का साहस जुटाया है. एक-एक व्यक्ति यह बात कर रहा है कि आज देश में राष्ट्रीय विचार की सरकार नहीं होती तो 30 वर्ष बाद भी यह सच इस तरह सामने नहीं आ पाता. न तो कोई निर्देशक इस तरह की फिल्म बनाने की कल्पना कर पाता और यदि कोई बना भी लेता, तब उसका प्रदर्शन संभव न हो पाता. जिस तरह से तथाकथित सेकुलर खेमा, कांग्रेस समर्थक बुद्धिजीवी और अन्य लोग ‘द कश्मीर फाइल्स’ का विरोध कर रहे हैं, उसे देखकर आमजन की यह आशंका सही नजर आती है. सोचिए न कि 30 वर्ष पुराने इस भयावह घटनाक्रम की कितनी जानकारी लोगों को है? कितने लोगों को पता था कि हिन्दुओं को भगाने के लिए कश्मीर की मस्जिदों से सूचनाएं प्रसारित की गईं. ‘यहां क्या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा’, ‘कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाहू अकबर कहना है’ और ‘असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान….मतलब हमें पाकिस्तान चाहिए और हिन्दू औरतें भी मगर अपने मर्दों के बिना’. यह धमकी भरे संदेश लगातार प्रसारित किए जा रहे थे. कश्मीरी हिन्दुओं के घरों पर पर्चे चिपका दिए गए. ‘कन्वर्ट हो जाओ, भाग जाओ या मारे जाओ’ इनमें से एक ही रास्ता चुनने का विकल्प हिन्दुओं के पास था. महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म और उसके बाद नृशंस ढंग से हत्याएं करने की जानकारी कितनों को थी? महिलाओं को पति के रक्त से सने चावल खाने के लिए मजबूर किया गया. ये घटनाएं एक-दो नहीं थी, अनेक थीं.

दर्द की ये कहानियां आम लोगों को इसलिए नहीं पता थीं क्योंकि जो वर्ग आज भी फिल्म का विरोध करके हिन्दुओं के नरसंहार पर पर्दा डालने का असफल प्रयास कर रहा है, उसने वर्षों से सेमिनारों, भाषणों, लेखों एवं अपनी फिल्मों के माध्यम से इसी सच को छिपाने का प्रयास किया. लेकिन जब सबेरा होता है और सूरज निकलता है, तब अंधेरा कितना भी घना क्यों न हो, छंट ही जाता है. सच इतना शक्तिशाली होता है कि वर्षों से खड़े किए गए झूठ के पहाड़ को एक फिल्म ने एक झटके में उखाड़ कर फेंक दिया. जिन लोगों को यह फिल्म प्रोपेगैंडा लग रही है, उन्हें सिनेमाघरों के बाहर खड़े होकर भीतर से आती दर्शकों की सिसकियों को सुनना चाहिए. समूचा देश सिनेमाघरों में सुबुक रहा है. फिल्म देखकर सिनेमाघर से बाहर निकल रहे लोग कह रहे हैं कि “इसे फिल्म कहना बंद कीजिए. यह फिल्म नहीं है, हिन्दुओं के नरसंहार का दस्तावेज है”.

आश्चर्य होता है उन बुद्धिजीवियों पर जो यह कह रहे हैं कि उस समय केंद्र में भाजपा समर्थित वीपी सिंह की सरकार थी और जम्मू-कश्मीर में ‘भाजपा के राज्यपाल’ जगमोहन पदस्थ थे. भाजपा ने तब क्यों जम्मू-कश्मीर के हिन्दुओं का पक्ष नहीं लिया, उनकी सहायता नहीं की. यह सोच न केवल हिन्दू विरोधी है, अपितु मानवता को शर्मसार करने वाली भी है. इन प्रश्नों में इन बुद्धिजीवियों की नीयत और धूर्तता, दोनों दिखाई देती हैं. तथ्यों का घालमेल करने वाले ये लोग जरा बताएं कि आज तक हिन्दुओं के दर्द को दर्ज करने का एक भी प्रयास इन्होंने किया है क्या? उल्टा सच को छिपाने में अपनी समूची बौद्धिकता को खपा दिया. वीपी सिंह की सरकार को कम्युनिस्ट पार्टियों का भी समर्थन था, यह बात छिपाने का क्या तुक है? राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार को भाजपा ने 85 और कम्युनिस्ट पार्टियों (माकपा-33 एवं भाकपा-12) ने 45 सांसदों के साथ बाहर से समर्थन दिया था. यानि भाजपा सत्ता में शामिल नहीं थी. दूसरी बात यह कि 1984 के बाद से ही कश्मीर में बढ़ रही जेहादी गतिविधियों के लिए 2 दिसंबर, 1989 को सरकार में आई वीवी सिंह की सरकार कैसे दोषी हो सकती है?

विशेष प्रकार के ये बुद्धिजीवी यह क्यों नहीं बताते कि 1984 के बाद से जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक एवं सांप्रादायिक उथल-पुथल के पीछे क्या कारण थे? क्या इंदिरा गांधी सरकार ने हिन्दुओं पर बर्बर हमलों के आरोपों को आधार मानकर ही 2 अप्रैल, 1984 को फारूक अब्दुल्ला की सरकार को भंग नहीं किया था? कांग्रेस ने अब्दुल्ला की जगह उनके ही बहनोई गुलाम मोहम्मद शाह को यह सोचकर मुख्यमंत्री बनाया कि कश्मीर में उनके विचारों को लागू करेंगे. हालांकि, कांग्रेस की उम्मीद के उलट शाह ने कश्मीर को कट्टर इस्लाम की तरफ धकेलना शुरू कर दिया. (जम्मू एंड कश्मीर एट द पॉलिटिकल क्रॉसरोड्स, पीएस वर्मा)

फरवरी 1986 में गुलाम मोहम्मद शाह के मुख्यमंत्री रहते हुए ही जम्मू-कश्मीर में पहली बार हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए थे. यह दंगे स्पष्ट रूप से जम्मू-कश्मीर में आने वाले तूफान का संकेत दे रहे थे. 6 मार्च, 1986 को कांग्रेस ने अपने समर्थन से बनी इस सरकार को भी भंग कर दिया. 1987 में सत्ता में आया कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेस का गठबंधन. इस गठबंधन की सरकार में मुख्यमंत्री बने फारूख अब्दुल्ला की सरपरस्ती में इस्लामिक चरमपंथियों ने और अधिक गति पकड़ ली. चिह्नित करके हिन्दुओं की हत्याएं होने लगीं. 14 सितंबर, 1989 को कश्मीरी हिन्दुओं के बड़े नेता टीका लाल टपलू की सरेराह हत्या की गई. तीन सप्ताह बाद ही 4 नवंबर को जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति नीलकंठ गंजू को श्रीनगर में उच्च न्यायालय के ही बाहर मौत के घाट उतार दिया गया. 5 जनवरी को गिरिजा पंडित की माँ का शव जंगल में मिला. सामूहिक बलात्कार के बाद उनकी आँखें फोड़कर हत्या कर दी गई. उनकी बेटी के साथ क्या हुआ और वह कहाँ है, यह आजतक पता नहीं लग सका है. भयाक्रांत करने वाली शृखंलाबद्ध इन घटनाओं के लिए कौन दोषी है? किसके शासनकाल में लगातार इस तरह के हालात बने कि 18-19 जनवरी, 1990 की वह भयानक रात आई, जो आजतक बीती नहीं है.

यह क्यों नहीं बताया जाता कि जब यह सब घटनाएं हो रहीं थीं, तब राज्य में किसके गठबंधन की सरकार थी? कठघरे में लगभग डेढ़ माह की वीपी सिंह की सरकार को खड़ा करना चाहिए या फिर उससे पहले की सरकार को? दरबारी लेखक भले ही भ्रम फैलाते रहें, लेकिन पीड़ित कश्मीरी हिन्दुओं से लेकर उनके दर्द से वास्ता रखने वाले सभी लोग जानते हैं कि इस नरसंहार के वास्तविक दोषी कौन हैं?

जिन जगमोहन को भाजपा का राज्यपाल कहकर प्रोपेगंडा फैलाया जा रहा है, जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के रूप में उनकी पहली नियुक्ति कांग्रेस की पूर्ण बहुमतवाली इंदिरा गांधी सरकार ने की थी. जगमोहन, इंदिरा गांधी और संजय गांधी के भी नजदीकी रहे हैं. इन्हीं जगमोहन ने जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के रूप में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को दो पत्र लिखे (18 अप्रैल और 14 मई, 1989), जिनमें उन्होंने जम्मू-कश्मीर के बदलते हालातों पर चिंता जताई और बिना देरी कठोर कदम उठाने के लिए कहा. (जगमोहन, काश्मीर : समस्या और विश्लेषण, राजपाल एण्ड सन्ज, पृष्ठ-89-90) परंतु, प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने न केवल राज्यपाल की चिंताओं की अनदेखी की, बल्कि बाद में उन्हें वहाँ से हटा दिया. जब वीपी सिंह की सरकार ने जगमोहन को राज्यपाल बनाकर भेजा, तब तक हिन्दुओं का नरसंहार हो चुका था. फिर भी १९ जनवरी को राज्यपाल के रूप में कार्यभार संभालकर उन्होंने हालात पर नियंत्रण पाया और हिन्दुओं को सुरक्षित वहाँ से निकाला. यही कारण है कि कश्मीरी हिन्दुओं के मन में उनके प्रति अगाध श्रद्धा है. वास्तविक अपराधियों को छोड़कर जगमोहन को विलेन बनाने की कोशिशें करने वाले बुद्धिजीवी बता सकते हैं कि जगमोहन के प्रति कश्मीरी हिन्दुओं के मन में यह श्रद्धाभाव क्यों है?

यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता ही जम्मू-कश्मीर से लेकर दिल्ली तक, कश्मीरी हिन्दुओं की आवाज बने. कश्मीर में हुए हिन्दुओं के नरसंहार में भाजपा-आरएसएस ने हमले भी झेले और बलिदान भी दिया. जेहादियों ने चिह्नित करके संघ-भाजपा के कार्यकर्ताओं की क्रूरता से हत्याएं कीं. परंतु संघ-भाजपा ने न तो तब हिन्दुओं का साथ छोड़ा था और न ही अब. आज भी वे ही कश्मीरी हिन्दुओं के साथ खड़े दिख रहे हैं. बाकी जो लोग उस समय हिन्दुओं के विरोधी थे, वे आज भी उनके जख्मों पर नमक छिड़क रहे हैं. जरा भी शर्म बाकी हो, तब कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार को स्वीकार करके, उनके प्रति अपनी संवेदनाएं व्यक्त करें.

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