बलबीर पुंज
कुछ दिन पहले विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) संशोधन विधेयक संसद से पारित हो गया. इस कदम का जहां एक बड़ा वर्ग स्वागत कर रहा है, वहीं दूसरा वर्ग, जिसका अपना निहित स्वार्थ भी है, इसे घातक और लोकतंत्र-विरोधी बता रहा है. देश में ऐसी स्वयंसेवी संस्थाओं (एनजीओ) की बड़ी संख्या है, जिन्हें विदेशी चंदा ईसाई धर्मार्थ संगठनों से प्राप्त होता है. एक आंकड़े के अनुसार, वर्ष 2016-2019 के बीच एफसीआरए पंजीकृत एनजीओ को 58,000 करोड़ का विदेशी अनुदान प्राप्त हुआ था. यक्ष प्रश्न यह है कि जो स्वयंसेवी संगठन विदेशों से ‘चंदा’ लेते है, उनका उद्देश्य सेवा करना होता है या कुछ और.
निर्विवाद रूप से देश में कई ऐसे एनजीओ हैं, जो सीमित संसाधनों के बावजूद देश के विकास में महती भूमिका निभा रहे हैं. किंतु कई ऐसे भी हैं, जो स्वयंसेवी संगठन के भेष में और सामाजिक न्याय, गरीबी, शिक्षा, महिला सशक्तिकरण, मजहबी सहिष्णुता, पर्यावरण, मानवाधिकार और पशु-अधिकारों की रक्षा के नाम पर न केवल भारत-विरोधी, अपितु यहां की संस्कृति और बहुलतावादी परंपराओं को आघात पहुंचा रहे हैं. भारतीय खुफिया विभाग अपनी एक रिपोर्ट में कह चुका है कि विदेशी वित्तपोषित एनजीओ की विकास-विरोधी गतिविधियों से देश की अर्थव्यवस्था नकारात्मक रूप से दो-तीन फीसदी तक प्रभावित होती है.
एफसीआरए संशोधन क्यों आवश्यक था? इसका उत्तर लीगल राइट ऑब्सर्वेटरी (एलआरओ) संगठन के एक खुलासे में मिल जाता है. उसके अनुसार, नागरिक संशोधन अधिनियम (सीएए) विरोधी दंगों और हिंसा में शामिल लोगों का, जिनके खिलाफ अदालत में मामले चल रहे हैं, बचाव करने हेतु चार यूरोपीय चर्चों ने अधिवक्ता कॉलिन गोंजालविस द्वारा स्थापित एनजीओ ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क (एचआरएलएन) को चंदे के रूप में 50 करोड़ रुपये स्थानांतरित किए थे.
जो स्वयंसेवी संगठन इन संशोधनों की आलोचना कर रहे हैं, उनमें ऑक्सफैम सबसे मुखर है. यह संगठन अक्सर भारत-विरोधी रिपोर्टें तैयार करता रहा है. वर्ष 1942 से ब्रितानी चर्च का संरक्षण प्राप्त और ब्रिटिश सरकार द्वारा वित्तपोषित ऑक्सफैम के पदाधिकारियों और कर्मचारियों पर आरोप था कि उन्होंने 2010 में भीषण भूकंप का शिकार हुए कैरेबियाई देश हैती में चंदे के पैसे अपनी वासना शांत करने हेतु वेश्याओं पर खर्च किए थे. यही नहीं, उन पर सहायता के बदले नाबालिग लड़कियों सहित कई पीड़ित महिलाओं के यौन-उत्पीड़न का भी आरोप लगा. अमानवीयता और संवेदनहीनता की पराकाष्ठा को पार करने वाले इस घटनाक्रम की ब्रिटिश संसद भी निंदा कर चुकी है. विडंबना देखिए कि महिला सुरक्षा पर ‘प्रवचन’ देने वाले अधिकांश तथाकथित स्त्री-अधिकारवादी स्वयंसेवी संगठन या स्वघोषित कार्यकर्ता इस घटना पर सुविधाजनक चुप्पी साधे हैं.
भारतीय एनजीओ को जिन विदेशी संगठनों से ‘सेवा’ के नाम पर ‘चंदा’ मिलता है, वे अधिकतर अमेरिका या फिर यूरोप से संबंध रखते है. यदि वाकई उनका उद्देश्य सेवा करना होता, तो इसकी शुरुआत वे अपने देशों से करते. टाइम पत्रिका के अनुसार, अमेरिका में प्रत्येक पांच में से एक बच्चा अत्यंत गरीब है. प्रति एक लाख की आबादी में बलात्कार के मामले में अमेरिका सहित कई यूरोपीय देश शीर्ष 20 राष्ट्रों की सूची में हैं. वास्तव में, कुछ संगठनों में ‘सेवा’ का एकमात्र अर्थ मतांतरण से है. चूंकि अमेरिका और यूरोपीय देशों का मूल चरित्र सदियों पहले ईसाई बहुल हो चुका है, इसलिए उनके लिए वहां न ‘सेवा’ का कोई अर्थ है और न ही किसी सामाजिक कलंक का.
कैथोलिक चर्च और वेटिकन सिटी का घोषित एजेंडा यह है कि जिस प्रकार पहली सहस्राब्दी में यूरोप और दूसरी में अमेरिका-अफ्रीका को ईसाई बनाया, उसी तरह तीसरी सहस्राब्दी में एशिया का ईसाइकरण किया जाएगा. बहुलतावादी सनातन संस्कृति का उद्गम स्थान भारत सदियों से भय, लालच और धोखे से होने वाले मतांतरण का शिकार रहा है. विश्व के इस भूखंड में ईसाई मतांतरण की शरुआत जहां 16वीं शताब्दी में सेंट फ्रांसिस जेवियर के गोवा आगमन के साथ हुई, वहीं 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ‘आत्मा के व्यापार’ को गति तब मिली, जब 1813 में चर्च के कहने पर अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्टर में एक विवादित धारा जोड़कर पादरियों और ईसाई मिशनरियों के भारत में ईसाइयत के प्रचार-प्रसार का रास्ता प्रशस्त कर दिया.
विश्व के अधिकतर इस्लामी देश वेटिकन सिटी के प्रभाव से पूरी तरह बाहर हैं और उन्हीं देशों में ईसाई सहित अन्य सभी अल्पसंख्यक दोयम दर्जे के नागरिक हैं. साम्यवादी चीन में प्रचार तो दूर, ईसाई, मुस्लिम सहित अन्य सभी अल्पसंख्यकों पर सरकार की ओर से मजहबी प्रतिबंध है. इसके विपरीत, भारत में कुछ राजनीतिक दलों और एनजीओ की मदद से एजेंडा आधारित कार्य जारी है. गुलाम औपनिवेशिक मानसिकता अब भी जीवित है, जो अलग-अलग चोला ओढ़ अपने एजेंडे की पूर्ति हेतु सक्रिय है, जिसमें विदेशी वित्तपोषित स्वयंसेवी संगठनों का एक वर्ग भी शामिल हो जाता है. देश के विकास में अवरोध पैदा करना, राष्ट्रीय एकता-अखंडता को चुनौती देना या ऐसा करने वालों की ढाल बनना और यहां की बहुलतावादी सनातन संस्कृति व परंपराओं को कलंकित करना यदि विदेशी अनुदानों पर आश्रित एनजीओ की वास्तविकता है, तो विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) संशोधन विधेयक निश्चित ही रोक का उचित कदम है.