जयराम शुक्ल
31 अक्तूबर की तारीख का बड़ा महत्व है. आज के दिन ही सरदार बल्लभ भाई पटेल पैदा हुए थे. इस महान हस्ती को इतिहास के पन्ने से अलग कर दिया जाए तो हम भारतवासियों की पहचान रीढ़ विहीन और लिजलिजी हो जाएगी.
इसलिए, इस दिन को मैं प्रातः स्मरणीय मानता हूं.
हमारे शहर में पिछले बीस पच्चीस साल से सरदार पटेल जयंती धूमधाम से मनाई जाती है. आयोजन का वैभव साल दर साल बढ़ता ही जाता है, यह स्वागतेय है. शुरुआत के चार-पांच वर्षों तक प्रसिद्ध समाजवादी विचारक जगदीश चंद्र जोशी के साथ मैं भी इस समारोह में वक्ता के तौर पर बुलाया गया. बोलने के लिए खूब तैयारी करता था. इस बहाने कई किताबें पढ़ डालीं, जिसमें वीपी मेनन की.. यूनिफिकेशन ऑफ इंडियन स्टेट.. भी शामिल है.
पिछले कई वर्षों से यह जातिगत आयोजन हो गया है. हम जैसे जिज्ञासु श्रोताओं के लिए कोई जगह नहीं. मैंने इसी आयोजन के जरिए जाना कि सरदार पटेल कुर्मी थे. एक महामानव की जातीय पहचान के साथ ऐसी प्राण प्रतिष्ठा मुझ जैसे कई लोगों के लिए ह्दय विदारक है. यह वैसे ही है जैसे कृष्ण को अहीरों का देवता, राम को क्षत्रियों का और परशुराम को ब्राह्मणों का मान लिया जाए.
पटेल जयंती पर वक्ता सिर्फ एक लाइन में ही बोलते हैं कि सरदार साहब के साथ बड़ा अन्याय हुआ. नेहरू को प्रधानमंत्री बनाकर उनका हक छीन लिया गया. सरदार यदि प्रधानमंत्री होते तो कश्मीर की समस्या कब की हल हो गई होती. घुमाफिरा कर यही बात प्रायः सभी वक्ता कहते हैं.
मुझे याद है कि जोशी जी ने भाषण में यह स्पष्ट किया था कि जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री पद के प्रस्तावक सरदार पटेल ही थे. महात्मा गांधी ने नेहरू को जब अपना उत्तराधिकारी घोषित किया तो सरदार ने इसे समयोचित बताया.
जोशी जी ने यह भी कहा था कि उन परिस्थितियों में घरू मोर्चे पर जो काम सरदार कर सकते थे, वे नेहरू नहीं कर सकते थे और जो काम नेहरू वैश्विक मोर्चे पर कर सकते थे, वे सरदार नहीं कर सकते थे.
सरदार नेहरू से उम्र में बड़े थे, वे प्रधानमंत्री को जवाहर ही कहते थे और उनकी जो भी नीति ठीक नहीं लगती थी, उस पर भरी सभा या बैठक में खरी-खरी सुना देते थे.
मुझे याद है कि मैंने जोशीजी की बात को आगे बढ़ाते हुए महाभारत में कृष्ण व बलराम का उदाहरण दिया. जिस तरह कई मसलों में कृष्ण और बलराम के बीच गंभीर असहमतियां थीं, वैसे ही नेहरू और पटेल में भी थीं. लेकिन दोनों एक दूसरे के परस्पर पूरक थे. दोनों ही धर्मयुद्ध में व्यापक लोकहित के साथ थे.
नेहरू को उत्तराधिकारी घोषित करने के बावजूद गांधी पटेल की ज्यादा सुनते थे. आजादी के तत्काल बाद जब कबाइलियों ने कश्मीर पर हमला किया और उनसे निपटने के लिए पटेल ने पल्टन भेजी तो गांधी ने यह कहते हुए सरदार की पीठ थपथपाई कि ..यदि लोगों की प्राणरक्षा के आड़े कायरता आती है तो हथियारों का बेहिचक प्रयोग होना चाहिए. जबकि पूरा देश अहिंसा के पुजारी गांधी की प्रतिक्रिया की ओर देख रहा था.
जिन लोगों ने जातीय आधार पर सरदार की जयंती को बढ़चढ़कर मनाना शुरू किया, दरअसल वे कुछ भी गलत नहीं कर रहे हैं. मोदी जी की सरकार के आने के पहले तक यदि वे जयंती नहीं मनाते तो कोई दूसरे मनाने वाले थे भी नहीं.
जिस कांग्रेस के लिए सरदार ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया. उस कांग्रेस ने उन्हें तो विस्मृत ही कर दिया था. कांग्रेस का सबसे बंटाधार चापलूसी की संस्कृति ने ही किया. इस संस्कृति को शीर्ष नेतृत्व ने ही पाला पोसा.
सबको याद होगा कि अस्सी से पचासी का दशक संजय गांधी के नाम रहा. सरकारी मूत्रालय से लेकर औषधालय तक सब कुछ संजय की स्मृति के हवाले. आज भी देश के कई राष्ट्रीय संस्थानों में संजय गांधी का नाम टंका है. संजय गांधी की कुल मिलाकर योग्यता थी प्रधानमंत्री का बेटा होना. देश पर आपातकाल की दूसरी गुलामी थोपने के पीछे संजय गांधी मंली की निरंकुश स्वेच्छाचरिता रही.
सन् अस्सी के बाद चापलूसी की संस्कृति ऐसे सैलाब बनकर उमड़ी की कांग्रेस के वांग्मय से दादाभाई नौरोजी, लोकमान्य तिलक, गोखले, सरदार पटेल, मौलाना आजाद, जीबी पंत, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, रफी अहमद किदवई, लालबहादुर शास्त्री जैसे सभी महापुरूषों के पन्ने बह गए. सुभाषचंद्र बोस और बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर से तो कांग्रेस शुरू से ही अदावत मानती रही.
कांग्रेस को गांधी-नेहरू खानदान तक समेट दिया गया. यह उसी का परिणाम है कि कांग्रेस जैसी महान पार्टी आज माँ-बेटे तक सिमट चुकी है, बाकी जो हैं उनकी पहली और आखिरी अनिवार्य योग्यता सिर्फ चापलूसी है. सो कांग्रेस ने जिस तरह सरदार पटेल की स्मृतियों को बिसराया, वह कोटि-कोटि लोगों के लिए पीड़ाजनक रहा.
गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है –
जद्दपि जग दारुन दुख नाना. सबते कठिन जाति अपमाना..
जातीयता का अपमान सबसे भीषण होता है. विद्रोह की ज्वाला यहीं से धधकती है. यहां जातीयता के मायने अस्मिता से है, पहचान से है. स्वाभाविक है. जब ऐसी उपेक्षा समझ में आई तो लोगों का आत्मगौरव जागा.
महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक, शिवाजी की भांति दैवतुल्य व प्रातः स्मरणीय हैं क्यों ? क्योंकि दिल्ली की खानदानी सल्तनत ने अपनी श्रेष्ठता के आगे सबको तुच्छ माना.
क्या आप यह नहीं मानते कि यदि काशीराम नहीं पैदा हुए होते तो बाबासाहेब को कोई पूछता. काशीराम ने भी वही जातीय स्वाभिमान जगाया. लोगों को गोलबंद किया बाबासाहेब के नाम से. सत्ता तक पहुंचे, पहुंचाया बाबासाहेब के नाम पर.
बाबासाहेब का नाम भी वोट के काम आ सकता है, अब यह सभी भलीभांति जान गए हैं. सरदार पटेल भी अब वोट के लिए पूजे जाने शुरू हुए हैं. हम खुदगर्ज लोग हैं ही ऐसे कि यदि बाप भी किसी काम का नहीं तो जाए सत्रह सौ साठ में. और किसी अघोरी से भी काम सधे तो फिर वही परमपिता परमेश्वर.
कश्मीर को लेकर अक्सर कहा जाता है कि सरदार पटेल होते तो यह समस्या कब की दफन हो चुकी होती. पत्रकार कुलदीप नैय्यर की जीवनी है..बियांड द लाइन्स… नैय्यर साहब ने पूरे शोध व दस्तावेजों का हवाला देते हुए आजादी, बंटवारे से लेकर मनमोहन सिंह के समयकाल तक की कथा लिखी है.
नैय्यर एक जगह लिखते हैं -..पटेल चाहते थे कि पाकिस्तान से सभी हिन्दू सिक्ख निकल आएं. मुसलमानों को लेकर उन्हें कोई चिंता नहीं थी क्योंकि उन्हें पाकिस्तान मिल चुका था….
दरअसल, पटेल इस बात को लेकर स्पष्ट थे कि जब पाकिस्तान बन ही गया है तो सभी मुसलमानों को पाकिस्तान जाना चाहिए व सभी हिन्दुओं को भारत में.
पाकिस्तान के शहरों व सरहद पर हिन्दू काटे-मारे जा रहे थे और इधर नेहरु मुसलमान बस्तियों में घूम घूमकर उन्हें निर्भय यहीं रहने की आश्वस्ति दे रहे थे.