डॉ. प्रतिभा आठवले
कैलाश मानसरोवर यात्रा को 25 साल हो चुके हैं, लेकिन चीन शब्द सुनते ही आज भी मेरी भौंहे तन जाती है. मैं 1995 में भारतीय प्रशासन की ओर से कैलाश मानसरोवर यात्रा पर गई थी. उस समय की यादें अभी भी ताजा हैं. कैलाश जाने का निश्चय होने पर जो कागजात तैयार करने थे, उनमें सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज था चीनी वीजा!
1962 के युद्ध में तिब्बत का जो क्षेत्र चीन ने निगल लिया था (या वो नेहरू ने दिया था..?). वही कैलाश है – – मानसरोवर का क्षेत्र. इसलिए निश्चित रूप से चीनी वीजा की आवश्यकता थी. अब तो खैर वहां जा सकते हैं. 1962 के युद्ध के बाद तनावपूर्ण संबंधों के कारण 1962 से 1982 तक (20 साल तक) चीन ने इस यात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया था. कितना दुर्भाग्य है हमारा कि अपने स्वयं के तीर्थस्थल की यात्रा करने के लिए हमें चीन से अनुमति लेनी पड़ती है. और न केवल अनुमति, बल्कि 500 अमेरिकी डालर की ‘दक्षिणा’ चीन को देनी पड़ती है. अब तो और ज्यादा भुगतान करना पड़ता है. इतने पैसे देने के बावजूद वे आपको कोई भी सुविधा प्रदान नहीं करते हैं. हमें अपनी भूमि पर पैर रखने की अनुमति देने की उपकार की भावना ही अधिक होती है! उनकी कपटी और ओछी मानसिकता का अनुभव हम पल-पल करते हैं.
भारतीय सीमा पार करने के बाद चीनी कब्जे वाले तिब्बत में प्रवेश करने के बाद हमारी 27 लोगों की टीम को उन्होंने दो गाइड दिए थे. लेकिन दोनों शराब पीकर सराबोर थे…उनके भरोसे पर हम पहाड़ उतरकर 17,500 फीट की ऊंचाई से 15,000 फीट की ऊंचाई पर आए. वहां हमें एक खटारा बस दी गई, जिसमें टूटी-फूटी खिड़कियां थी और बैठने के लिए सीटें भी नहीं थीं. खिड़कियां टूटी होने के कारण गड्डों से गुजरते हुए वे खटाक से टूटकर नीचे गिरती थी. बस का ड्राइवर नशे में था. तीन या चार फीट तक पानी वाले और तेजी से बहने वाले नालों को पार कर, हिचकोले खाती हुई उस बस से हमें तकलाकोट लाकर उतार दिया गया. वहाँ आव्रजन, सीमा शुल्क, जाँच आदि प्रक्रियाएं पूरी हुई. वहां के पड़ाव पर शौचालय की कोई सुविधा नहीं थी. अहाते के बाहर सार्वजनिक स्थान पर शौचालय (टॉइलेट) का उल्लेख था, जहां न दरवाजे थे और न पानी. ऐसी असुविधाओं के बारे में कोई शिकायत भी नहीं की जा सकती थी. कहा नहीं जा सकता था कि उनका सिर कब घूम जाएगा, फिर वे अशिष्टता और उद्दंडता की हद कर देते.
कैलाश-मानसरोवर यात्रा में याक का उपयोग वैसे ही किया जाता है, जैसे हमारे यहां हिमालय में घोड़ों का उपयोग किया जाता है. हमारी परिक्रमा के दौरान वहां के याक वाले या पोर्टर हमेशा दांत निकालकर हमारे साथ अपमानजनक बर्ताव करते थे. रास्ते में रुकने के स्थान जैसे-तैसे ही होते थे. खिड़कियां, दरवाजे टूटे होते थे. इसलिए जब बर्फ पड़ती थी तो दरवाजे पर बर्फ का ढेर इकठ्ठा हो जाता था. मानसरोवर परिक्रमा के दौरान तो हद हो गई. मानससरोवर के तट पर चीनी सैनिक जानबूझकर शराब पीकर, हंगामा करते हुए, शराब की खाली बोतलों को तोड़कर इधर-उधर फेंक रहे थे. मानस सरोवर जैसी नितांत खूबसूरत जगह देखकर दिल पसीज जाता था, लेकिन क्या करें? इस स्थिति के बारे में बात करना स्वयं को जोखिम में डालना था. इतना ही नहीं, हमें भारत सरकार द्वारा विशेष निर्देश दिए गए थे कि कोई भी अपनी टीम को अकेला न छोड़े, महिलाएं तो बिल्कुल नहीं! क्योंकि चीनी सैनिकों पर भरोसा करना बिल्कुल भी संभव नहीं है. (अपहरण, लूटपाट जैसी चीजें पहले हुई थीं.)
लौटते समय भी शराबी बस चालक ने हमारी बस से पुरुषों को आधी रात में जबरदस्ती बस से उतरने के लिए मजबूर किया और लापरवाही से केवल महिलाओं को लेकर चला गया. जबरदस्त मानसिक दबाव में, मानसिक कष्ट देने वाले वे दस दिन याद आते ही आज भी रोंगटे खड़े होते हैं.
इन असुविधाओं के बारे में भारत सरकार द्वारा चीनी सरकार से लगातार कई वर्षों तक शिकायतें करने के बाद, अब कहीं ए.सी. बसें उपलब्ध कराई गई हैं और तकलाकोट और अन्य शिविरों के स्थानों में थोड़ा सुधार दिया गया है. यह भी कुछ कम नहीं!
हमारे अरुणाचल प्रदेश से सटकर लगे चीनी सीमा के पास एक गाँव में अनुभव अलग ही है. पिछले 20 वर्षों से, मैं पूर्वांचल यानी पूर्वोत्तर भारत में जाकर दंत चिकित्सा कर रही हूं. अरुणाचल प्रदेश के न्यापिन गांव से चीनी सीमा 15 किमी दूर है. जब इस गांव में मेरा डेंटल कैंप चल रहा था, तब वहां के जनप्रतिनिधि मुझसे मिलने आए थे. उनके द्वारा बताई गई एक कहानी अजीब थी. उन्हें भारत सरकार की ओर से एक बैठक के लिए चीन जाना था. तब चीन सरकार ने उनसे कहा, “आपको वीजा की आवश्यकता नहीं है.” क्योंकि, उस चीनी ने उनसे कहा, आप अरुणाचल से हैं, अरुणाचल चीन का ही हिस्सा है. आपको अपनी मातृभूमि में प्रवेश करने के लिए वीजा या अनुमति की आवश्यकता नहीं है. आप और हम एक ही हैं. हम आपका स्वागत करते है! देखिए कैसे सोच-समझकर और चालाकी से चीन अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों का ब्रेनवॉश कर रहा है.
चीनी राजनीति कितनी गिर चुकी है, यह अनुभव हमारे देश ने 2008 में किया. तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की अरुणाचल यात्रा का चीन ने विरोध किया था. अर्थात्, उसकी निंदा करने के लिए उस समय अरुणाचल प्रदेश में काम करने वाले छात्र परिषद के कार्यकर्ता नीरव गेलानी ने तुरंत पांच सौ से अधिक युवाओं को एकत्र लाकर चीन की निंदा करने वाली बड़ी रैली राजधानी इटानगर में करवाई. इस चेतनादायी घटना की भी साक्षी हूं.
‘तवांग’ शब्द सुनते ही हमें 1962 का चीन युद्ध याद आता है. आज भी अरुणाचल प्रदेश में चीनी आक्रमण के निशान जगह जगह पर दिखते हैं. चीनी सैनिक अक्तूबर 1962 में पूर्वी पहाड़ियां उतरकर होलांग-अमलीयांग तक उतरे थे. वहीं पश्चिम की ओर पहाड़ियों से सादे कपड़ों में चीनी सैनिक उतरे थे. तवांग में स्थानीय नागरिकों के साथ रहकर, उन्होंने खेतों में फसल काटने में मदद करके उनका विश्वास अर्जित किया और पहले से तय तारीख पर, ’हिंदी चीनी भाई भाई’ कहते हुए उन्होंने हमारी पीठ में खंजर घोंप दिया. इससे भयंकर युद्ध हुआ.
हमारी सेना तैयार नहीं थी. सरकार ने गलत निर्णय लिया. परिणामस्वरूप, चीनी सेना ने तवांग पर कब्जा कर लिया, सेला दर्रे, जसवंतगढ़ को पार किया और तेजपुर तक पहुंच गई. भयानक नरसंहार हुआ. हमारे 2,420 सैनिक हुतात्मा हुए और हम यह युद्ध हार गए.
2007 में जब मैं तवांग गई, तो विवेकानंद केंद्र स्कूल के निर्माण की देखरेख करने वाले इंजीनियर मेरे साथ थे. उन्होंने अपने परिवार का एक अनुभव साझा किया. उनके दादा-दादी के घर पर रहकर और खेतों में काम कर चीनीयों ने अचानक आक्रमण किया था. यह उनके लिए बहुत बड़ा शारीरिक और मानसिक आघात था. इस अनुभव को सुनकर मेरा दिमाग और शब्द जम गए.
तब से मन में हमेशा विचार आता है, क्या हमने उस विनाशकारी हार, इतिहास और त्रासदी से कुछ सीखा है?
तो उत्तर है हां! हमने जरूर सीखा है!!
सकारात्मक बदलाव हो रहा है. इसका कारण है पूर्वांचल में अत्यंत निष्ठापूर्वक काम करने वाले सेवाव्रती और वहां के कार्यकर्ता. उनके अथक प्रयासों ने लोगों के मन में जागरूकता पैदा की है. सीमा के पास रहने वाले कई युवा ‘सीमांत चेतना मंच’ के साथ जुड़ चुके हैं. सीमा पर जहां कंटिली बाड़ नहीं थी, वहां सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के जवानों के साथ जमीन को मापने में स्थानीय युवाओं ने मदद करना शुरू कर दिया है. गांव-गांव में सीमा जागरूकता के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं.
15 जून 2020 को लद्दाख की गलवान घाटी में चीनी आक्रमण के बाद अरुणाचल प्रदेश के कई गांवों में, सड़कों पर चीन विरोधी नारों के साथ रैलियां निकाली गईं. चीनी अध्यक्ष के पुतले फूंके जा रहे हैं. चीनी माल-सामानों के खिलाफ उग्र विरोध प्रदर्शन हुए हैं. भारतीय वस्तुओं के उपयोग को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन दिया जा रहा है. अरुणाचल प्रदेश के कुछ नागरिकों ने “हम अरुणाचली हैं, हम भारतीय हैं” के संदेश देने वाले वीडियो भेजे हैं.
इतना ही नहीं, बल्कि कोलोरियांग जिले के युवाओं ने एक साथ चौराहे पर आकर भारत सरकार और भारतीय सेना से सेना में एक ‘अरुणाचल रेजिमेंट’ बनाने की अपील की. हम सभी अरुणाचली भारत माता की रक्षा के लिए सीमा पर लड़ने के लिए तैयार हैं. मुझे यह कहते हुए गर्व हो रहा है कि 1962 के अनुभव के कारण चीन के दबाव में रहने वाली भारत सरकार और अरुणाचल प्रदेश के लोग उस मानसिकता से बाहर आए हैं. वहां कार्यरत कार्यकर्ताओं के कार्य के कारण वर्ष 2020 का ‘व्यक्ति निर्माण से देशनिर्माण’ आकार ले रहा है.
पांचजन्य फूंककर पूरी दुनिया में अपना अस्तित्व दिखा रहा है.
जय हिंद!
(लेखिका पिछले 20 वर्षों से पूर्वांचल और कई वर्षों से कश्मीर में सेवा-उन्मुख चिकित्सक के रूप में काम कर रही हैं. उनकी पुस्तक ‘पूर्वरंग-हिमरंग’ प्रसिद्ध है, जिसे महाराष्ट्र सरकार से पुरस्कार प्राप्त है.)