मुंबई. कानूनी अधिकारों के बारे में जागृति एवं जनजातियों के स्वावलंबन का ध्येय लेकर कार्यरत संस्था है वयम्. संस्था जनजाति समाज में आत्मविश्वास जगाने का कार्य कर रही है. लोगों के प्रश्न, उनकी शक्ति और आन्दोलन का मार्ग, इन तीन सूत्रों पर कार्य करने वाली संस्था ने जनसहभाग से विकास का अनुकरणीय प्रारूप जनजाति क्षेत्रों में साकार किया है. पालघर जिले के जव्हार, मोखादा और नासिक जिले के त्र्यंबकेश्वर तालुका की २०० जनजाति बस्तियों में रहने वाले लोग आयुष्य में परिवर्तन लाने वाले कानूनों को समझने का प्रयास कर रहे हैं.
कुछ अलग करने की सोच लेकर मिलिंद थत्ते और दीपाली गोगटे ने जव्हार के समीप आदिवासी पाडों पर (बस्तियों पर) २००८ में काम करना शुरू किया. इससे पहले उन्होंने ऐसे अनेक प्रकल्प देखे थे. कई प्रकल्पों पर काम भी किया था. परन्तु, वहां का प्रयोग यहां पर लागू करने को लेकर आशंकित थे. लोकतंत्र की ताकत का उपयोग करने का मार्ग उन्होंने चुना. वयम् का आंदोलन इसी मिटटी में उपजा और आगे बढ़ने लगा. लोगों के प्रश्न, उनकी शक्ति और आन्दोलन का मार्ग, यह सूत्र कार्यकर्ताओं को मिला. विनायक थालकर, प्रकाश बरफ, जैसे कार्यकर्ताओं के आधार से आन्दोलन दृढ़ होता गया.
लोगों को आत्मविश्वास से जीने का अधिकार देने वाले कानून आते है. कोई अच्छा प्रशासक हो तो कानून व्यवहार में लाने से लाभ होता है. पर, उसके जाने के बाद फिर पुराना ही व्यवहार शुरू हो जाता है. इसीलिए आवश्यक हो जाता है कि जिनके लिए वह कानून बनाया जाता है, उन्हें उस कानून की जानकारी होना. उन्हें सक्षम करना और संकट के समय उन्हें मार्ग दिखाना. वयम् एक संस्था के रूप में सीमित न रहकर एक आंदोलन बन गया.
कानूनों की उपयोगिता के लिए बिंदु निश्चित किये गए, इनकी जानकारी जनजाति समाज तक पहुंचाते गए. यह जानकारी केवल कुछ लोगों तक सीमित ना रहे, इसलिए गांवों में शिविर लगाए जाने लगे. शिविर में कानून, कानून के नियम, संबंधित शासन आदेशों की जानकारी उनके उपयोग के बारे में भी सिखाया जाता है.
वन हक्क और पीसा कानून के लाभ प्राप्त करने के लिए बड़ा संघर्ष करना पड़ा. अनेक वर्ष जिस जमीन पर खेती की, उस का अधिकार प्राप्त करने वाला कानून २००६ में आया. वन अधिकारों पर दावा करना सबसे कठिन काम था. पर, इससे अधिक कठिन था शासन-प्रशासन को कानून सिखाना. जनजातियों के लिये प्रशिक्षण वर्ग शुरू हुए. पिछले १२ साल संघर्ष किया जा रहा है. जिला, राज्य स्तर पर अधिकारियों तक पहुंचकर तो कभी आंदोलन करके लड़ाई चली. अंतिमत: एक आन्दोलन में दो हजार से ज्यादा दावे किये गए. एक साल में उनमें से १४०० दावे मंजूर हो गए. आगे पांच तालुका के चार हजार से अधिक जनजाति किसानों को वन हक्क कानून के अधिकार प्राप्त हुए.
अधिकार के साथ कर्त्तव्य भी था. जैविक संपत्ति संभालने के लिए ग्राम सभाओं द्वारा वन रक्षण और अध्ययन किया जाए, इसलिए लोक-जैव विविधता रजिस्टर तैयार किये गए. जो प्रकृति के सबसे समीप होते हैं, उस पर निर्भर होकर जीते है, वे लोग ही उसकी अच्छी रक्षा करते हैं. फिलहाल, क्षेत्र में पांच से दस बस्तियों की एक ग्राम पंचायत है. २५ बस्तियां अर्थात् पाडे सक्षम रूप से पिछले दो साल से ग्रामसभा के माध्यम से बस्तियों का संचालन करते हैं.
स्वशासन का प्रारंभ
उस दिन से स्वशासन की शुरुआत हुई. अब तक ग्राम पंचायत जो विचार करेगी, उसका ही लाभ बस्तियों को मिलता था. अब पीसा निधि ग्राम सभा के अकाउंट में जमा होती है. उसका उपयोग कैसे करना है, इसका निर्णय भी ग्रामसभा ही लेती है. निधि कम हो या ज्यादा, उसका उपयोग बस्तियों के लिए ही किया जाता है. निधि के उपयोग को लेकर निर्णय लेने का अधिकार ग्रामसभा को है. पारदर्शी ग्रामसभा ग्राम पंचायत को प्रश्न पूछने लगी. इसे समर्थन नहीं मिला तो आरटीआई के माध्यम से आन्दोलन किया गया. १३ बस्तियों के ३९२ लोगों ने आरटीआई का उपयोग किया. इस कारण व्यवस्था से प्रश्न पूछने का आत्मविश्वास जनजातियों में आया. ‘वयम्’ के सभी पदाधिकारी बस्तियों के कार्यकर्ता ही हैं. ये कार्यकर्ता ही ‘वयम्’ की संपत्ति हैं.
अनोखी प्रयोगशाला
सामूहिक और स्वप्रेरित विकास का यह आन्दोलन अगली पीढ़ी तक पहुँचाना भी आवश्यक है. अपने हाथों से प्रयोग करेंगे, विज्ञान सीखेंगे, सीधी-साधी वस्तुओं से प्रयोग करेंगे और प्रयोगशाला चलाएंगे, ऐसा सूत्र लेकर ‘वयम्’ की प्रयोगशालाएं ६० गावों में शुरू हो गयी. बच्चे अपने हाथों से प्रयोग करने लगे. जो संकल्पनाएँ आज तक केवल याद की जाती थीं, वह समझना और भी आसान हो गया.