नरेन्द्र सहगल
वैशाखी पर्व भारत के उन राष्ट्रीय पर्वों में से एक है, जिनका सम्बन्ध राष्ट्र की सुरक्षा और स्वतंत्रता के साथ है. नई फसल के स्वागत के साथ ग्रीष्म काल के अभिनन्दन के रूप में हर्षोल्लास से मनाए जाने वाले इस पर्व के साथ दो राष्ट्रीय महत्व के प्रसंग जुड़ जाने से पर्व का महत्व राष्ट्रव्यापी हो गया है. गुरु गोविंद सिंह जी द्वारा भारत की सशस्त्र भुजा के रूप में खालसा पंथ की स्थापना और अमृतसर के जलियांवाला बाग में सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों का सामूहिक बलिदान.
पंजाब के आनंदपुर साहिब नामक स्थान पर लगभग एक लाख गुरुभक्तों के महासमागम में जब गुरु गोविंद सिंह जी ने पांच शिष्यों के शीश मांगे तो सारा वातावरण सत् श्री अकाल के जयकारों से गूंज उठा. देश के कोने-कोने से आए गुरु भक्तों में से पांच सिंह अपने शीश देने के लिए मंच पर आ गए. तब श्री गुरु महाराज ने इन्हीं पांच शिष्यों के आधार पर एक विशाल राष्ट्रव्यापी खालसा पंथ की स्थापना की. स्थापना के समय ही गुरु गोविन्द सिंह जी ने अपना ध्येय वाक्य घोषित कर दिया ‘सवा लाख से एक लडाऊं – तभी गोविन्द सिंह नाम कहाऊं’.
दशमेश पिता गुरु गोविन्द सिंह द्वारा खालसा पंथ की स्थापना किसी नई कौम अथवा राष्ट्र बनाने के लिए नहीं हुई थी. इतिहास साक्षी है कि जब भी विदेशी और विधर्मी आक्रमणकारियों ने भारत भूमि पर आक्रमण करने और यहां के जीवन मूल्यों को समाप्त करने का प्रयत्न किया तो हमारे यहां आध्यात्मिक महापुरुषों ने आक्रमणकारियों के जुल्मों का सामना किया तथा जनता को जगाने और उसमें एकात्मता स्थापित करने के अपने राष्ट्रीय कर्तव्यों की पूर्ति की. खालसा पंथ की सृजना भी इसी उद्देश्य हेतु हुई थी.
हमारे इतिहास में दो और भी प्रसंग आते हैं. जब समाज में क्षात्रधर्म की अवधारणा की आवश्यकता पड़ी थी. एक समय यही क्षात्र धर्म सम्राट पुष्यमित्र के रूप में प्रतिष्ठित हुआ तथा दूसरे समय में समाज ने अपने आप को बप्पा रावल के रूप में उठाया. भगवान श्री राम से लेकर गुरु गोविन्द सिंह जी तक हमारे राष्ट्र का इतिहास यही स्पष्ट करता है कि भक्ति आन्दोलन या संगठित शक्ति के माध्यम से क्षात्रशक्ति का उदय यह समाज को जिन्दा रखने की परंपरा सदैव रही है.
गुरु गोविन्द सिंह जी ने भी अन्य भारतीय महापुरुषों की भांति खालसा पंथ की स्थापना को ईश्वरीय कार्य की संज्ञा दी. हमारे देश की मान्यतानुसार जब भी पाप बढ़ने लगता है तो परमात्मा की योजनानुसार कोई राष्ट्रपुरुष उत्पन्न होता है. उस महापुरुष के प्रयत्न से संगठित शक्ति का उदय होकर धर्म की स्थापना होती है. खालसा पंथ के सृजन के समय गुरु गोविन्द सिंह जी ने भी इसी ईश्वरीय कार्य की घोषणा की थी – “आज्ञा भई अकाल की तभी चलायो पंथ”.
गुरु गोविन्द सिंह ने यह भी कहा – खालसा प्रगटयो परमात्मन की मौज, खालसा अकाल पुरुख की फ़ौज खालसा के सृजन के समय श्री गुरु ने पांच प्यारों के रूप में सारे देश की एकता का अनूठा संगठित स्वरुप प्रकट किया. पांचों प्यारे देश के प्रत्येक कोने में से थे. सारे भारत से असंख्य गुरु भक्त इस राष्ट्रीय उत्सव में आए थे. श्री गुरु द्वारा दिया गया दर्शन कच्छ – कड़ा – कृपाण – कंघा – केश पूर्णतया भारतीय संस्कृति पर आधारित है.
उपनिषदों में समाज के कार्य के लिए तैयार हुई संगठित शक्ति को अमृत शक्ति पुत्र कहा गया है. गुरु गोविन्द सिंह ने भी पांच प्यारों को अमृत छकाकर हिन्दू समाज का कायाकल्प करने हेतु खालसा पंथ बनाया. अपने ही शिष्यों से अमृत पान ग्रहण करके श्री गुरूजी ने इस संस्था की सर्वकालिक श्रेष्ठता सिद्ध कर दी अर्थात् मर्द अंगम्म्ड़ा……वाहे-वाहे गुरु गोबिन्द सिंह आपे गुर चेला. क्योंकि श्री गुरु ने स्वयं अमृत सिद्धि करके अमृत दान दिया और उन्हीं पांच शिष्यों के हाथों स्वयं अमृत पान किया. अत: यह खालसा पंथ आधुनिक प्रजातंत्र का भी प्रतीक है. हिन्दू की रक्षा, हिन्दू के लिए, हिन्दू के द्वारा. खालसा पंथ में हिन्दू समाज के विविध वर्गों एवं वर्णों से लोगों को दीक्षित किया है. इसलिए यह खालसा पंथ सम्पूर्ण समाज और राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है.
गुरु गोविन्द सिंह जी ने अपने आप को भगवान राम के सूर्यवंश से जोड़ा है. उनकी आत्मकथा के अनुसार वेदी और सोढ़ी वंश दोनों का सम्बन्ध राम के पुत्र लव और कुश से है. दूसरी ओर गुरु गोविन्द सिंह जी ने स्वयं को श्री कृष्ण की गीता के उस आश्वासन के साथ जोड़ा है…
परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम.
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे…
गुरु गोविन्द सिंह जी ने अपनी आत्मकथा विचित्र नाटक में कहा है –
या ही काज धरा हम जनमे, समझ लेहू साध सब मनमे
धरम चलावन संत उबारन, दुष्ट सभी को मूल उपारन
वैशाखी पर्व पर आनंदपुर साहिब में सृजित खालसा पंथ को वीरव्रती खालसा पंथ कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. कालांतर में इसी खालसा पंथ के शूरवीरों में से बंदा सिंह बहादुर (वीर बैरागी), सेनानायक बाबा दीप सिंह, सरदार श्याम सिंह अटारी वाले, महाराजा रणजीत सिंह और सरदार हरी सिंह नलवा जैसे शूरवीर उत्पन्न हुए. जिन्होंने कश्मीर से मुगलों का सर्वनाश करने से लेकर अफगानिस्तान तक पठानों को परास्त करते हुए काबुल और कंधार में भगवा धवज फहराया.